शमीमा हुसैन की लघुकथा : बड़े घर का सपना
ऐसा भी होगा, यह कभी रुकैया ने सोचा नहीं था। Photo by Marina Vitale on Unsplash रुकैया अपने चाल की भारी बाई थी। उसका पूरे चॉल में हुक्म चलता था। उसकी मां ने शादी के समय उसे एक खोली और पांच तोले सोने दिए थे। इससे उसकी जिंदगी बड़े शान से चल रही थीं। उसके पास अपनी खोली थी। पानी के लिए दो-दो नल थे। वहां की दूसरी औरतें भी उसके नल से पानी भरती थी। उसके बच्चे म्युनिस्पिलीटी के स्कूल में पढ़ते थे। उसकी जिंदगी सुकून से कट रही थी। लेकिन छह, सात महीने से रुकैया के दिमाग में एक बात घूम रही थी। हर बात में वह कहती, ''मेरी खोली छोटी है।'' वह कुछ दिनों से बार-बार यही बोल रही थी। एक दिन वह सिल्वर फिश खरीद रही थी। उसी समय एक खनक वाली आवाज ने उसे चौंका दिया। ''मच्छी कैसे?'' रुकैया ने पलट कर देखा। वह नाहिदा थी। ''अरे, नाहिदा तुम। कैसी हो? कहां हो आजकल?'' ''अरे बाबा सांस तो ले ले, फिर बता रही हूं। मैं खैरियत से हूं। तुमने क्या सोचा, कोरोना से मैं मर गई?'' मुस्कुराते हुए नाहिदा ने रुकैया से कहा। ''अरे नहीं नाहिदा।'' रुकैय