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Showing posts from 2013

मन में चिंगारी भर देने वाले राजेन्‍द्र यादव अगर आज होते

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By Gulzar Hussain  ओह! ...राजेन्द्र यादव यह नहीं जान पाए कि गाँव-देहात के सरकारी स्कूल में झोले में किताब रखकर स्कूल जाने वाला एक लड़का उन्हें इतना अधिक प्यार करता था। उसके मन में इतना अधिक उनके लिए सम्मान था कि उनके साहसिक व्यक्तित्व के सामने सारे फ़िल्मी एक्शन हीरो के तिलिस्म धीरे -धीरे फीके पड़ गए। युवावस्था आते ही कब राजेन्द्र 'रीअल हीरो' बन बैठे, पता ही नहीं चला। गाँवों में शोषण और अत्याचार देखकर पढाई -लिखाई से निराश उस युवक के मन में धर्मान्धों, कट्टरपंथियों और परंपरावादियों की चुन-चुन कर धज्जियां उड़ाने वाले राजेन्द्र के सम्पादकीय ने चिंगारी भर दी थी।  'हंस' के सम्पादकीय में जिस तरह उन्होंने लगातार ताकतवर साम्प्रदायिक नेताओं और पूंजीपतियों की खबर ली ,वह सब एकदम से अभूतपूर्व और रोंगटे खड़े करने वाला था। जिस तरह उन्होंने सवर्णवादियों के ढकोसलों और यातनाओं को बेनकाब किया, वह सब हमेशा कुछ लिखने ,कुछ करने को प्रेरित करता रहा था। उन्होंने जिस प्रकार हिंदी साहित्य में दलितों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को मंच प्रदान किया ,वह सब हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। राजे

...खो गए कितने जाने -अनजाने चेहरे

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पिछले दिनों कीनिया के नैरोबी में हुए आतंकी हमले की भयावहता लोग अभी भूले नहीं होंगे .इस हमले में कई लोगों की मौत हो गयी थी . उस दौरान कीनिया में रह रहीं  मेरी मित्र पिऊ राय भी इस आतंकी घटना से बहुत परेशान हुईं थी . उन्होंने इस हमले को करीब से देखा और बहुत दुखी हुईं .उन्होंने आतंकी कारवाई के दौरान मॉल से उठता धुआँ देखा ...चीख -पुकार सुनी ... पिऊ ने इस विषय पर एक कविता भी लिखी है  .उनकी कविता बांग्ला में है.उन्होंने इसका अनुवाद भी मुझे हिंदी (रोमन )में भेजा . मैंने इसे देवनागरी में आप सबके लिए  टाइप कर यहाँ रखा है ...   पिऊ राय   आतंक धीरे -धीरे  कम होता जाता है  बचपन से सोया भय  लेकिन लौटता है बार -बार अधिक भयावह होकर   जब- तब आ जाते हैं हमलावर  और पटाखों की तरह चलती हैं गोलियां यहाँ वहाँ पड़ी मांसपेशियाँ और लाश के टुकड़े यह कैसा आतंक है ... कहाँ जा कर जिउं कहाँ जाकर लूं शान्ति की सांस   टेलीविजन पर आते -जाते दिख रहे हैं जाने पहचाने चेहरे और उन पर है पसरे डर और आतंक की कहानी इंसान की तरह ही दिखाई देते  हैं ये हमलावर लेकिन हृदयहीन पाषाण हैं ये आतंकित करके ये निभा रहे हैं

...जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो

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मलयज ने अपनी डायरी में लिखा था कि कविता का विचार आता है और  उसे गद्य का भाव काट देता है . मलयज के इस कथन का प्रभाव मेरे काव्य लेखन में भी आप महसूस कर सकते हैं . बहुत कुछ विस्तार से कहने की तमन्ना मुझे पद्य से गद्य की और खींचती है . मैं  कभी -कभी कविता को किसी कहानी या आलेख का पहला पड़ाव समझ लेता हूँ ,क्योंकि मुझे लगता है कि इस 'मोड़ ' से आगे भी बढ़ा जा सकता है ...लेकिन इन सबके बावजूद मैं यह भी महसूस करता हूँ कि मेरे  गद्य लेखन में कविता अधिक भरी हुई है  और मूल रूप में छुपी बैठी है ....या यह भी हो सकता है कि मैं इन स्थितियों को ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ . स्त्री जीवन के संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को लेकर कविता लिखना मेरे लिए सबसे कठिन मगर प्रिय विषय रहा है .इस बार दो कवितायें प्रस्तुत हैं ..आलोचना और सुझाव का इंतज़ार है .....                                                             -  गुलज़ार हुसैन   . ..जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो   बूढ़े बरगदों ,पीपलों की घनी छाया से बहुत दूर उस जामुन के पेड़ की शाखाएं काटता है कुल्हाड़ी से कोई सुनसान सांझ में सबसे छुप कर करता है प्रहा

कहां से आए चमन में आग लगाने वाले

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                                                              - गुलज़ार हुसैन     ज म्मू -कश्मीर की हरी-भरी वादियां पिछले कई वर्षों से सुलग रहीं हैं। यहां खिले हुए फूल बार -बार गोली-बारूद से मुर्झाते हैं। आग की लपटों से झुलसी कलियां चटकने से पहले दम तोड़ देती हैं, लेकिन आग  की तपिश जैसे ही ठंडी होती है, ये कलियां फिर खिल उठती हैं। फिर अपने सुगंध से लोगों को अपनी तरफ खींचतीं हैं। जम्मू के किश्तवाड़ जिले और उसके आसपास की वादियों में एक बार फिर किसी कोने से आग की लपटें उठीं हैं। सांप्रदायिकता की ये लपटें फूलों-कलियों को समय से पहले मुर्झा रहीं हैं। यहां की घाटियों में बहती नदियां उदास हैं। सेब और खट्टे अनार के जंगलों से बहती हवाएं किसी डरी हुई लड़की की तरह कांपती -थरथरातीं हैं। ध्यान से सुनिएगा, तो यहां के हर कोने से आवाज आती महसूस होती हैं। ये कहतीं हैं कि इस चमन में अब आग मत लगाइए ...प्रकृति के सबसे अनमोल उपहार को इस घुटन से बाहर निकालिए। पिछले दिनों किश्तवाड़ जिले और आसपास के इलाकों में फैले सांप्रदायिक तनाव के माहौल ने फिर से यह साबित किया है कि इस सबसे पुराने और गंदे रोग को बार -बार कु

गरीबों के संघर्ष पर भारी राजनीतिक जादूगरी

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                                                                                                             -   गुलज़ार हुसैन पिछले दिनों गरीबों के भोजन और रहन-सहन को लेकर राजनीतिक गलियारों में जो मजाक उड़ाने का दौर चला था उसका लक्ष्य -सूत्र आप कहां पर देख पा रहे हैं? कोई जिम्मेदार नेता एक प्लेट खाने के दाम को लेकर हास्यास्पद टिप्पणियां करता है तो उसके निहितार्थ क्या हो सकते हैं। इस विषय के उद्देश्यों को भी गहराई से समझना होगा। आप देखिए कि गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले लोगों के लिए जो सरकारी कल्याणकारी योजनाएं लागू हुईं हैं और जो होने वाली हैं उसकी स्थिति क्या है। सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी के माध्यम से गरीब बच्चों और महिलाओं को क्या सुविधाएं मुहैया कराई जा रहीं हैं? इसके दो पहलूओं पर ध्यान दें,पहला तो ये योजनाएं ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हैं और दूसरा कि इन योजनाओं में में जबर्दस्त लापरवाही और भ्रष्टाचार है। इसका बड़ा उदाहरण हाल ही में बिहार के एक सरकारी स्कूल में मिड-डे मिल खाने से हुई छात्रों की मौत है देश की छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां अगले वर्ष

प्रेमचंद के साहित्य में कैसे हैं गाँव -देहात ?

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                                                                 - गुलज़ार हुसैन कहानी और उपन्यास की दुनिया भले ही प्रेमचंद युग से काफी आगे निकल गई है ...बहुत बदल भी गई है, लेकिन प्रेमचंद अब भी प्रासंगिक हैं। गरीब किसानों,मजदूरों और गांवों के दबे-कुचले लोगों के दुख -दर्द को जितनी गहराई से प्रेमचंद ने उठाया,उस तरह उनके समकालीन और उनके बाद के साहित्यकार नहीं उठा सके। सच तो यह भी है कि प्रेमचंद के नक्शे-कदम पर चलने वाले साहित्यकार भी उनकी लेखनी सा प्रभाव और जनप्रिय शैली नहीं पा सके। गरीब किसानों की समस्या को समझने और गांवों में दलितों -पिछड़ों के दैनिक संघर्षों को बेहद संवेदनात्मक तरीके से उजागर करने की अद्भुत कला प्रेमचंद के पास थी। वे खेतिहर मजदूरों के संघर्षों के साथ ही उनकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति को भी बड़ी गहराई से चित्रित करते थे। उनके पात्र इतने जीवंत होते थे कि पाठक उनके दुखों- सुखों से खुद को आसानी से जोड़ पाते थे। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनका कालजयी उपन्यास 'गोदान' है। 'गोदान' का मुख्य पात्र होरी हिंदी साहित्य ही नहीं विश्व साहित्य में परिचित नाम है। होरी क

कुपोषित बच्चों को पहचानना बहुत कठिन तो नहीं है

                                                                                 आलेख : गुलज़ार हुसैन * कुपोषण की समस्या भीषण गरीबी और सरकारी -राजनीतिक उपेक्षा से लगातार बढ़ती जा रही है,लेकिन इसके बावजूद यह किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए सबसे प्रमुख मुद्दा नहीं हैं । पिछले दिनों महाराष्ट्र के विभिन्न राज्यों में बढ़ती कुपोषण की समस्या का मुद्दा चर्चा का विषय बना रहा है। विधानपरिषद में भी कुपोषण को लेकर जमकर हंगामा हुआ। विधानपरिषद में विपक्ष ने पिछले नौ महीनों के दौरान महाराष्ट्र में कुपोषण से चार हजार बच्चों की मौत का मुद्दा उठाया। पि छले कुछ दशकों में कुपोषण देश के लिए एक बड़ा मुद्दा बन गया है। यह बीमारू प्रदेशों,आदिवासी इलाकों के अलावा महानगरों और विकास का डंका पीटने वाले राज्यों में भी गंभीर रूप में मौजूद है। अगर आप बिहार या उत्तर प्रदेश के गांवों- देहातों में कुपोषित बच्चों को देख रहे हैं, तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र और गुजरात में भी कुपोषण से बच्चों का भविष्य बर्बाद हो रहा है। पिछले दिनों महाराष्ट्र के विभिन्न राज्यों में बढ़ती कुपोषण की समस्या का मुद्दा चर्चा का विष

THE WILD DUCK: प्यार और नफरत के बीच झूलता जीवन

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'द वाइल्ड डक' एक गरीब युवक हजलमार की कहानी है, जो अपनी पत्नी गीना और बेटी हेदविग से बहुत प्यार करता है। लेकिन उसके यह प्यार का महल तब भरभरा कर ढह जाता है, जब उसे उसके मित्र ग्रेगर्स से कुछ रहस्य का पता चलता है। इब्सन का यह नाटक पुरुषवाद की कलई तो खोलता ही है, साथ ही बुर्जआ मानसिकता से भरे समाज की नींव की कमजोरियों को भी उजागर करता है।  Symbolic Photo by  Yannis Papanastasopoulos  on  Unsplash BY  Gulzar Hussain       ना र्वे के प्रसिद्ध नाटककार इब्सन का नाटक ' The Wild Duck'  : (हिंदी अनुवाद :यशपाल) पढ़ने के बाद लगभग तीन दिनों तक मेरे मन में झपसी लगी रही। सो भला कब तक इसे बरसने से रोका जा सकता था। आदर्शवाद की कसौटियों पर कसे जाते पुरुष मन के अंतर्द्वंद्व और पलायन को इब्सन ने बड़े ही सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। 'द वाइल्ड डक' एक गरीब युवक हजलमार की कहानी है, जो अपनी पत्नी गीना और बेटी हेदविग से से बहुत प्यार करता है। लेकिन उसके यह प्यार का महल तब भरभरा कर ढह जाता है, जब उसे उसके मित्र ग्रेगर्स से कुछ रहस्य का पता चलता है। इब्सन का यह नाटक पुर

साहित्य में नक्सलबाड़ी आंदोलन की आग

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                                                                                     आलेख : गुलज़ार हुसैन 'हमलोग जब आए तो हमारे लिए आइडियोलॉजिकल ग्राउंड नक्सलबाड़ी था। यानी हमलोग वेणु गोपाल और आलोक धन्वा को पढ़ते हुए आए थे और उसी से प्रेरणा पाकर हम मार्क्सवादी हुए,ये संपत्ति हमें विरासत में मिली। नक्सलबाड़ी से राजनैतिक मतभेद थे पर आइडियोलॉजिकल मतभेद न थे।  - राजेश जोशी पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में १९६७ में शुरू हुए सशस्त्र आंदोलन से न केवल सामान्य जन -जीवन में बदलाव आया,बल्कि देश का साहित्य भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।  विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य पर नक्सली संघर्ष का व्यापक प्रभाव पड़ा। चूंकि बंगाल की भूमि से ही नक्सली आंदोलन का सूत्रपात हुआ,इसलिए बांग्ला गद्य और पद्य में इसकी प्रतिध्वनियां अधिक रेडिकल रहीं,लेकिन कुछ ही समय के बाद हिंदी और पंजाबी के अलावा अन्य कई भारतीय भाषाओं में भी इसके अंकुर फूट निकले। मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव तो स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही साहित्य पर रहा था,लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन ने इसका रुख ही बदल दिया। देश के साहि

कौन बनेगा बिहार की रंग बदलती राजनीति का सफल खिलाड़ी ?

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                                                                                                   - गुलज़ार हुसैन बिहार की राजनीति में पिछले दिनों हुए बड़े उलट-फेर ने कई राजनीतिक विश्लेषकों को चक्कर में डाल दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा से अलग हो जाने के बाद अब यहां की सियासी लड़ाई का रुख भी पूरी तरह बदल गया है। बिहार की राजनीति के दिग्गज खिलाड़ियों के खेल के मायने भी बदले -बदले से लग रहे हैं। लालू यादव, रामविलास पासवान सहित कई छोटे -बड़े नेता अब वैसा  नहीं सोच रहे हैं,जैसा वे पहले सोचा करते थे। विशेष रूप से लालू यादव को अब अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उस तरह से नहीं दीख रहा है,जैसा कुछ महीने पहले दिखाई दे रहा था। नीतीश कुमार के बदले तेवर ने निस्संदेह लालू के सियासी दांव पर ही वार कर दिया है, इसलिए अब उनके बोल भी बदलते जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि लालू अब अपने सबसे बड़े सियासी दुश्मन को उस तरह हाइलाइट करके नहीं कोस सकते हैं,जैसा वे पहले करते रहे हैं। नीतीश के पीठ पर अब भाजपा का हाथ नहीं है और वे पूरी तरह भाजपाई राजनीति के खिलाफ बोलने के लिए स्वतंत्र है

अब किसी कहर से न उजड़े बस्तियां

                                         ~ गुलज़ार हुसैन   भारत जैसे देश में प्रकृति को लेकर संवेदनशील होना बहुत जरूरी है,क्योंकि यहां विकास के नाम पर सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहे हैं। जल,जंगल और पहाड़ों को विकास के नाम पर नष्ट करने का काम तीव्र गति से किया जा रहा है। यह सब बहुत ही खतरनाक है,क्योंकि प्रकृति के साथ खिलवाड़ किए जाने का परिणाम भी बहुत भयानक हो सकता है।  उत्तराखंड में हुई भीषण तबाही ने पूरी दुनिया के सामने एक नया सवाल खड़ा कर दिया है। वह सवाल यह है कि क्या वर्तमान समय में प्राकृतिक आपदाओं पर काबू पाना संभव नहीं रह गया है? क्या ऐसे कहर के लिए आधुनिक होते इंसान का प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ही जिम्मेदार है या फिर कोई और ही वैज्ञानिक कारण है, जिससे ऐसी विपत्तियां आती हैं। यह सवाल निश्चित रूप से परेशान करनेवाला है,क्योंकि तेजी से बढ़ती आबादी ने आवासीय इलाकों ,फैक्ट्रियों,कंपनियों और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए जल,जंगल और पहाड़ से बहुत अधिक छेड़छाड़ की है। पहाड़ों को काट कर सड़कें,होटल और नगर बसाए गए हैं। जंगलों को उजाड़ कर कालोनियां बसाई गईं हैं और नदियों की धाराएं मोड़कर फैक्ट्रियों को