शमीमा हुसैन की लघुकथा : बड़े घर का सपना
ऐसा भी होगा, यह कभी रुकैया ने सोचा नहीं था।
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रुकैया अपने चाल की भारी बाई थी। उसका पूरे चॉल में हुक्म चलता था। उसकी मां ने शादी के समय उसे एक खोली और पांच तोले सोने दिए थे। इससे उसकी जिंदगी बड़े शान से चल रही थीं। उसके पास अपनी खोली थी। पानी के लिए दो-दो नल थे। वहां की दूसरी औरतें भी उसके नल से पानी भरती थी। उसके बच्चे म्युनिस्पिलीटी के स्कूल में पढ़ते थे। उसकी जिंदगी सुकून से कट रही थी।
लेकिन छह, सात महीने से रुकैया के दिमाग में एक बात घूम रही थी। हर बात में वह कहती, ''मेरी खोली छोटी है।''
वह कुछ दिनों से बार-बार यही बोल रही थी।
एक दिन वह सिल्वर फिश खरीद रही थी। उसी समय एक खनक वाली आवाज ने उसे चौंका दिया।
''मच्छी कैसे?''
रुकैया ने पलट कर देखा। वह नाहिदा थी।
''अरे, नाहिदा तुम। कैसी हो? कहां हो आजकल?''
''अरे बाबा सांस तो ले ले, फिर बता रही हूं। मैं खैरियत से हूं। तुमने क्या सोचा, कोरोना से मैं मर गई?'' मुस्कुराते हुए नाहिदा ने रुकैया से कहा।
''अरे नहीं नाहिदा।'' रुकैया ने जवाब दिया।
''सुन रुकैया। मैंने तुम्हारा मोबाइल बहुत लगाया, लेकिन 'नंबर तपासून' बोलता था। तुमने नंबर बदल लिया, लेकिन मेरा नंबर तो वही जूना है। मैं याद नहीं रही। कोरोना जैसी मुसीबत में मैं मुंबई से अपने गांव चली गई थी।'' नाहिदा ने कहा।
''जल्दी घर चलो नाहिदा।'' रुकैया ने कहा।
''नहीं, मैं वैशाली भाभी की लड़की की शादी में आई हूं। अभी नहीं, बाद में आती हूं।'' नाहिदा बोली।
रुकैया ने कहा, ''अच्छा, तुम मछली ले लो।''
''नहीं, नहीं रुकैया। बस ऐसे ही मछली का भाव पूछ रही हूं। मैं अभी हिरवाला में हूं।'' नाहिदा ने दुपट्टा संभालते हुए कहा।
''नाहिदा, अपना नंबर तो दे दो। तुमसे कमसे कम बात तो कर लिया करूंगी।'' रुकैया ने अपना मोबाइल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
''भर दे झोली मेरी या मोहम्मद...''
एक महीने बाद नाहिदा का मोबाइल घनघना उठा।
उधर से रुकैया की आवाज आई, ''कैसी हो नाहिदा है?''
बहुत देर तक दोनों में बात होती रही।
अंत में रुकैया ने कहा, ''नाहिदा मुझे अपना घर बेचना है।''
''क्यों''? नाहिदा ने चौंकते हुए कहा।
''यह घर छोटा पर रहा है।'' रुकैया की आवाज में उदासी थी।
यह सुनने के बाद नाहिदा ने रुकैया को घर न बेचने की सलाह दी। उसने उसे खूब समझाया, पर उस पर कोई असर न हुआ। रुकैया ने नाहिदा से कहा कि उसे वह अब अपने हिरवाला वाले इलाके में ही कोई बड़ा-सा घर दिखाए। नाहिदा ने उसे इसी रविवार को घर देखने के लिए आने को कह दिया।
रविवार की सुबह रुकैया नाहिदा के घर पहुंच गई।
वहां पूरे दिन इलाके की छानबीन करने के बाद रुकैया बोली, ''हिरवाला तो अच्छा इलाका है। मैं इधर ही, घर लूंगी।''
नाहिदा ने उसे घर दिलाने वाले एक दलाल का नंबर दे दिया।
इधर रुकैया ने अपना घर बेचने के लिए दलाल लगा दिए और आनन-फानन में एक महीने के अंदर उसका घर बिक गया।
इसके बाद उसने हिरवाला में घर ले लिया।
हिरवाला में घर मिलते ही रुकैया को चैन मिल गया। उसका बरसों का सपना पूरा हो गया। रात हुई। पानी का टाइम था। नौ बजे पानी आने का समय था, लेकिन आया दस बजे। इस तरह हर दिन पानी आने का समय अनियमित था। कभी-कभी दो बजे रात में आता, तो कभी-कभी रात तीन बजे तक भी पानी नहीं आता। कभी आधा टंकी-पौना टंकी पानी भरता, तो कभी कभी दो दिन पानी नहीं आता था। पानी की तकलीफ बढ़ती गई, जिससे बड़ा घर मिलने की सारी खुशी फीकी पड़ गई।
अब रुकैया को अपने पुराने दिन और पुराना घर याद आने लगा।
...लेकिन अब तो उसके सिर पर मुसीबत आ गई थी।
(लघुकथा : शमीमा हुसैन)
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