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ओ भगत सिंह, अचानक तो नहीं बदलने लगी है दुनिया : कविता

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ओ भगत सिंह, अचानक तो नहीं बदलने लगी है दुनिया यह अचानक तो नहीं हुआ कि बदल गया इतना सब कुछ बदल गया रंग धरती और आकाश का पहाड़ों की चोटियों पर जमी बर्फ पिघल कर बहने लगी नदी-तालाबों का पानी बगुले सा चमकने लगा यह अचानक तो नहीं हुआ कि तेज हवा का झोंका आया और उड़ गए सड़े-गले पत्ते दूर चली गई दीवारों के कोनों में जमी धूल और राख गायब हो गई अलगनी पर पसरीं मैली चादरें यह अचानक तो नहीं हुआ कि तेज बारिश से भर गए बड़े-बड़े गड्ढे टूटने लगे तटबंध ढहने लगे आडंबरों के पवित्र महल गिरने लगीं साम्राज्य की अट्टालिकाएं कीचड़ में सनने लगा तिजोरियों में भरा धन नालों में बहने लगा त्वचा का गोरा रंग और घनी मूंछों का अभिमान सच, यह सब अचानक नहीं हुआ भगत सिंह जब तुमने लिखना और बोलना शुरू किया तब बदलने लगी दुनिया तुम्हें जानने के बाद तेज होने लगी इंकलाबी तलवार की धार भारी भरकम बूटों के तले रौंदी जाती गरदन की नसों में दौड़ने लगा गर्म लहू निस्तेज आँखों में भर गए सपने भींच गई खुली हुई मुट्ठियाँ खुल गए सिले हुए होंठ और मुख से निकल पड़ा: इन्कलाब जिंदाबाद! --- गुलज़ार हुसैन

भगत सिंह का सपना

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नई पीढ़ी के लिए आज़ाद देश का जो सपना भगत सिंह (Bhagat Singh) और उनके सहयोगी क्रांतिकारियों ने देखा था, वो अभी पूरा होना बाक़ी है। आज भी देश के किसी कोने में जब साम्प्रदायिक या जातीय दंगे भड़क उठते हैं या प्रांतवाद के नाम पर गरीब मजदूरों को धक्के मार कर भगाया जाता है ...या किसी गावों-कस्बों में शादी -ब्याह के भोज में दलितों की पंक्ति अलग रखी जाती है ...या दहेज के लिए किसी की बहन-बेटी जलाई जाती है, तब हमें भगत सिंह की जरूरत महसूस होती है ...भगत सिंह के विचार अब भी प्रासंगिक हैं।  आज शहीद दिवस के दिन हमारा महानगर अखबार के मेरे कॉलम 'प्रतिध्वनि' में छपा एक आलेख आपके सामने प्रस्तुत है।