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Showing posts from June 30, 2013

साहित्य में नक्सलबाड़ी आंदोलन की आग

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                                                                                     आलेख : गुलज़ार हुसैन 'हमलोग जब आए तो हमारे लिए आइडियोलॉजिकल ग्राउंड नक्सलबाड़ी था। यानी हमलोग वेणु गोपाल और आलोक धन्वा को पढ़ते हुए आए थे और उसी से प्रेरणा पाकर हम मार्क्सवादी हुए,ये संपत्ति हमें विरासत में मिली। नक्सलबाड़ी से राजनैतिक मतभेद थे पर आइडियोलॉजिकल मतभेद न थे।  - राजेश जोशी पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में १९६७ में शुरू हुए सशस्त्र आंदोलन से न केवल सामान्य जन -जीवन में बदलाव आया,बल्कि देश का साहित्य भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।  विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य पर नक्सली संघर्ष का व्यापक प्रभाव पड़ा। चूंकि बंगाल की भूमि से ही नक्सली आंदोलन का सूत्रपात हुआ,इसलिए बांग्ला गद्य और पद्य में इसकी प्रतिध्वनियां अधिक रेडिकल रहीं,लेकिन कुछ ही समय के बाद हिंदी और पंजाबी के अलावा अन्य कई भारतीय भाषाओं में भी इसके अंकुर फूट निकले। मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव तो स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही साहित्य पर रहा था,लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन ने इसका रुख ही बदल दिया। देश के साहि

कौन बनेगा बिहार की रंग बदलती राजनीति का सफल खिलाड़ी ?

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                                                                                                   - गुलज़ार हुसैन बिहार की राजनीति में पिछले दिनों हुए बड़े उलट-फेर ने कई राजनीतिक विश्लेषकों को चक्कर में डाल दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा से अलग हो जाने के बाद अब यहां की सियासी लड़ाई का रुख भी पूरी तरह बदल गया है। बिहार की राजनीति के दिग्गज खिलाड़ियों के खेल के मायने भी बदले -बदले से लग रहे हैं। लालू यादव, रामविलास पासवान सहित कई छोटे -बड़े नेता अब वैसा  नहीं सोच रहे हैं,जैसा वे पहले सोचा करते थे। विशेष रूप से लालू यादव को अब अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उस तरह से नहीं दीख रहा है,जैसा कुछ महीने पहले दिखाई दे रहा था। नीतीश कुमार के बदले तेवर ने निस्संदेह लालू के सियासी दांव पर ही वार कर दिया है, इसलिए अब उनके बोल भी बदलते जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि लालू अब अपने सबसे बड़े सियासी दुश्मन को उस तरह हाइलाइट करके नहीं कोस सकते हैं,जैसा वे पहले करते रहे हैं। नीतीश के पीठ पर अब भाजपा का हाथ नहीं है और वे पूरी तरह भाजपाई राजनीति के खिलाफ बोलने के लिए स्वतंत्र है

अब किसी कहर से न उजड़े बस्तियां

                                         ~ गुलज़ार हुसैन   भारत जैसे देश में प्रकृति को लेकर संवेदनशील होना बहुत जरूरी है,क्योंकि यहां विकास के नाम पर सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहे हैं। जल,जंगल और पहाड़ों को विकास के नाम पर नष्ट करने का काम तीव्र गति से किया जा रहा है। यह सब बहुत ही खतरनाक है,क्योंकि प्रकृति के साथ खिलवाड़ किए जाने का परिणाम भी बहुत भयानक हो सकता है।  उत्तराखंड में हुई भीषण तबाही ने पूरी दुनिया के सामने एक नया सवाल खड़ा कर दिया है। वह सवाल यह है कि क्या वर्तमान समय में प्राकृतिक आपदाओं पर काबू पाना संभव नहीं रह गया है? क्या ऐसे कहर के लिए आधुनिक होते इंसान का प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ही जिम्मेदार है या फिर कोई और ही वैज्ञानिक कारण है, जिससे ऐसी विपत्तियां आती हैं। यह सवाल निश्चित रूप से परेशान करनेवाला है,क्योंकि तेजी से बढ़ती आबादी ने आवासीय इलाकों ,फैक्ट्रियों,कंपनियों और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए जल,जंगल और पहाड़ से बहुत अधिक छेड़छाड़ की है। पहाड़ों को काट कर सड़कें,होटल और नगर बसाए गए हैं। जंगलों को उजाड़ कर कालोनियां बसाई गईं हैं और नदियों की धाराएं मोड़कर फैक्ट्रियों को