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Showing posts from 2015

मेरी तीन कविताएँ

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गुलज़ार हुसैन  पुकार (Drawing: Gulzar Hussain ) चुनौतियों से भरे इस समय में   उबड़ -खाबड़ पथरीली राहों पर चलते हुए   जब कोई भी किसी को नहीं बुलाता तब ऐसे में बुलाना चाहता हूँ मैं तुम्हें हरी घास से भरी पगडंडी विषधर सांप में बदल गई है अचानक   और उस पर चलने के अलावा कोई चारा भी नहीं है   और उसके डंसने का डर भी है साथ- साथ तब ऐसे समय में गुनगुनाना चाहता हूँ   कोई गीत तुम्हारे साथ जब फूल -फल देने वाले पेड़ों   से गोले -बारूद निकालने के लिए   की जा रही हो सियासत   और इस सियासत से नजरें चुरा कर   तुम्हें फूल भेजना मानी जाए सबसे बड़ी कायरता   तब ऐसे समय में मैं गुलदस्ता लिए   करना चाहता हूँ तुम्हारा इंतज़ार ऐसे खतरनाक समय में   जब जेब में चाकू रखना कोई अपराध नहीं हो   और लोग एक -दूसरे से डरते हुए रास्ते बदलते हों जब हर तरफ माचिस की बिक्री बढ़ गई हो और बस्तियों में आग लगने की आशंका   सबसे अधिक हो   तब ऐसे समय में तुम्हें एक बाल्टी पानी लेकर आने के लिए कहना चाहता हूँ तुम्हीं कहो ,  इस तरह मैंने पहले कब पुकारा है तुम्हें  ? ( 'युद्धरत आम आदमी ' में प्रकाशित ) ---

मेहनतकश की बस्तियों में बसी है मुंबई की जान

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कभी फिल्म वालों ने इसे प्रसिद्ध बनाने का दावा किया, तो कभी चित्रकारों-साहित्यकारों ने इसकी नींव मजबूत करने का दावा किया। दावे लाखों किए गए, लेकिन मुंबई ने इन दावों से प्रभावित हुए बिना ही सब को समान रूप से सीने से लगाया और प्यार दिया। मुंबई ने कभी किसी प्रांत विशेष, भाषा विशेष, धर्म या जाति विशेष के नाम से प्रभावित होकर स्नेह नहीं दिया, बल्कि जी जान लगाकर मेहनत करने और संघर्ष करने वालों को ही अपना बनाया। Photo by Gulzar Hussain By Gulzar Hussain जाने क्या बात है बंबई तेरी शबिस्तां में हम शाम-ए-अवध, सुबह-ए-बनारस छोड़ आए हैं                                                - अली सरदार जाफरी  ‘मुंबई महानगर’ ( Mumbai)  कभी शायरों और मजदूरों के होठों पर ‘क्रांति गीत’ बनकर थिरकने वाला शहर कहलाया, तो कभी यह राजनीति की भट्ठी में तपकर चर्चा में रहने वाला महानगर बना, लेकिन इसकी रवानगी को बदल पाना कभी किसी के बस में नहीं रहा। इस महानगर को सबने अपने-अपने नजरिए से देखा। मराठियों ने इसे अपना शहर माना, तो उत्तर भारतीयों ने अपनी मेहनत से इस शहर को सजाने संवारने का दावा किया। कभी गुजरा

आइए, 'हत्यारे अंधविश्वास' का बहिष्कार करें

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याद रखिए ,  आपका छोटा सा दिखने वाला अंधविश्वास ( superstition)  भी मानवता को खतरे में डालता है। नजर लगने के अवैज्ञानिक तथ्य को मानने वाला व्यक्ति किसी महिला की डायन के नाम पर हुई हत्या का मास्टरमाइंड हो सकता है।  ' नजर लगने '  से पीड़ित लोगों को नजर उतारने की नहीं ,  बल्कि अपने नजरिये का इलाज कराने की जरूरत है। BY Gulzar Hussain एक मजहब का उपदेशक आता है और कहता है - मां के पैरों के नीचे जन्नत है।   दूसरे धर्म का प्रवचन देने वाला आता है और कहता है- बूढे माता-पिता का दिल दुखाने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती।  तीसरे धर्म का प्रचारक आता है और कहता है - मां की सेवा करने सेे परमेश्‍वर प्र सन्न होते हैं। ... लेकिन इतनी महान बातें कहने वाले इन सभी धर्म प्रचारकों को पिछले एक दशक में डायन के नाम पर देश की  ‘ माताओं ’  की हुई हत्याएं क्यों नहीं दिखाई देती ?  ये कभी भी अपने प्रवचन कार्यक्रम में ये क्यों नहीं कहते कि डायन ,  चुड़ैल का कोई वजूद नहीं है और इसके नाम पर किसी  ‘ मां ’  की जान लेने का अधिकार किसी को नहीं है ? Photo by  freestocks.org  on  Unsplash निस्संदेह ,  डायन

...जो आजीवन अंधविश्वास के खिलाफ लड़ते रहे

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नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या मामले की जांच में बरती जा रही लापरवाही को लेकर मैंने फेसबुक पर जो लिखा था, उसे यहाँ एक जगह रख रहा हूँ .( गुलज़ार हुसैन ) 20 अगस्त, 2014 अंधविश्वास और विनाशकारी प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने वाले नरेंद्र दाभोलकर की मौत के एक वर्ष बीतने के बाद भी उनके हत्यारों का सुराग नहीं लग पाया है। दूसरी ओर उनके हत्यारों को पकड़ने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर थी, उन्हीं पर अंधविश्वास के सहारे छानबीन करने के आरोप भी लग ही चुके हैं। यह स्पष्ट है कि दाभोलकर की हत्या मामले की जांच को लेकर घोर लापरवाही और सुस्ती बरती जा रही है।  आश्चर्य तो इस बात का है कि  इक्कीसवीं सदी में भी जहां बच्चों की बलि चढ़ाए जाने जैसे अंधविश्वास अस्तित्व में रहे हैं , वहीं पर इन कुरीतियों के खिलाफ लड़ने वाले दाभोलकर के क्रांतिकारी और महत्वपूर्ण कार्यों को रिड्यूस करने का प्रयास किया गया। दाभोलकर की लड़ाई इस देश की नई पीढ़ी को वैज्ञानिक दृष्टकोण सौंपने के लिए थी। वे समाज से अंधविश्वास के दलदल को हमेशा के लिए दूर कर देना चाहते थे। जिन कुप्रथाओं की आड़ में स्त्रियों को डायन कह कर मारा जाता रहा है.