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Showing posts from 2022

राहुल गांधी को मिल गया 'अलादीन का चिराग'?

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भारत जोड़ो यात्रा का एक दृश्य/ फोटो : सोशल मीडिया से साभार निस्संदेह भारत जोड़ो यात्रा ( #BharatJodoYatra ) से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi )  की छवि बदली है। इसे राहुल के समर्थक ही नहीं दबी जुबान से राहुल गांधी के विरोधी भी मान रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस यात्रा से क्या राहुल गांधी कांग्रेस के दिन बदल पाएंगे। यह तो साफ है कि भारत जोड़ो यात्रा शुरू होने पर इसकी सफलता पर संदेह किया जा रहा था, लेकिन इस यात्रा को जितना समर्थन मिला, वह कांग्रेस पार्टी के लिए किसी बड़े चमत्कार से कम नहीं है। कन्या कुमारी से चली यात्रा में गांवों-कस्बों के गरीब-गुरबे, स्त्रियां और मजदूर ही नहीं जुड़े, बल्कि फिल्म और समाजसेवा से जुड़े चर्चित चेहरे भी जुड़े और इसकी चर्चा भी खूब हुई। अभिनेता सुशांत सिंह से लेकर कमल हासन जैसे दिग्गज अभिनेता भी इसमें शामिल हुए। अभिनेता-अभिनेत्रियों के अलावा पूर्व आरबीआई अध्यक्ष रघुराम राजन के शामिल होने की चर्चा भी खूब रही। सत्ताधारी भाजपा इन चेहरों की आलोचना भी करती नजर आई, जिससे राजनीतिक विश्लेषकों को यह लगा कि यह एक तरह से यात्रा की सफलता ह

लघुकथा : जवानी

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Photo by Briana Tozour on Unsplash कथाकार : शमीमा हुसैन ''ताहिरा ...ताहिरा, क्या कर रही हो? आज तो तुम्हारा छुट्टी का दिन था, घर पर थोड़ा आराम ही कर लेती।'' दूर से मां की आवाज आई। ताहिरा अनसुना करते हुए बाथरूम की तरफ चली जाती है। फिर वहां से आकर किचन में जाकर देखती है, उसका मनपसंद खाना खीर-पूरी बना हुआ है। इसके बाद वह सीधे मां के पास आकर कहती है, ''ममा, आज तो आपने मेरे पसंद का खाना बनाया है। ...शुक्रिया ममा। मैं तो आलिया आंटी के पास गई थी और उसके बाद सविता आजी के इधर चली गई, इससे लेट हो गया।'' ममा तुनक कर बोली, ''मुझे कुछ मत सुना, तेरे दिल में जो आए तू कर।'' ताहिरा जानती थी ममा को कैसे मनाना है। ममा लेटी हुई थी। वह सीधा उनके पैर के पास बैठ गई और उसके पैर दबाने लगी। ममा चाहे कितनी भी गुस्सा क्यों न हो, वह पैर दबाने से पिघल ही जाती है। थोड़ी देर में ही ममा बोल पड़ी, ''चल, खाना लगाती हूं। छोड़, पैर में दर्द नहीं है।'' ''ममा थोड़ा सा दबा देती हूं।'' ताहिरा पैर दबाते हुए बोलती है। ममा पैर को खींचकर उठ जाती है।

देवदास की आखिरी इच्छा

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    देवदास फिल्म का पोस्टर/ सोशल मीडिया से साभार By Gulzar Hussain उसकी आखिरी इच्छा क्या थी, यही न कि सांसों की डोर टूटने से पहले बस एक बार वह अपने बचपन की प्रेमिका को देख ले... लेकिन यह भी नहीं हो सका। पारो के दरवाजे पर आकर उसके नाम लेता हुआ देवदास दम तोड़ता रहा ...लेकिन पारो उससे मिलने की चाहत के बावजूद नहीं आ पाई ...वह देवदास से मिलने के लिए घर से दौड़ी लेकिन उसे घर के बंधन ने रोक लिया। दरवाजे बन्द कर दिए गए। क्या यही है किसी सच्चे प्रेम की मंजिल? शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित 1955 में बनी बिमल राय की इस फिल्म में दिलीप कुमार ने मानो देवदास के हर सजीले पल को जीवंत कर दिया है। ट्रेन से उतरने के बाद नशे में लड़खड़ाते देवदास के मन में बस एक ही आस है कि वह पारो से मिल ले। यह ठीक ऐसी ही आस या इच्छा है, जब कोई भी व्यक्ति मरने से पहले अपने सबसे प्रिय कार्य को पूरा कर लेना चाहता है। एक चित्रकार चाहता है कि मरने से पहले उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति पूरी हो जाए ...एक उपन्यासकार अपनी मौत से पहले कालजयी उपन्यास लिख लेना चाहता है ...एक पिता अपने बच्चों के सपने पूरे होते देखने के बाद ही मरना चाहता है ...

वह भूखा था, प्यासा था, मगर चोर नहीं था...

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जागते रहो'फिल्म का एक दृश्य :  सोशल मीडिया से साभार By Gulzar Hussain आप भी सोचेंगे कि नेटफ्लिक्स पर चमकती-दमकती फिल्मों के दौर में मैं यह पुरानी ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म के बारे में क्या कहने बैठ गया। लेकिन होती है कोई कसक ...कोई हूक जो किसी फिल्म को देखकर या याद कर अचानक उठती है और ऐसी उठती है कि चुप रहा नहीं जाता, लेकिन 1956 में बनी फिल्म जागते रहो के बारे में कुछ कहने से पहले मैं चलती ट्रेन की खिड़की पर लटके एक चोर के बारे में कुछ कहना चाहता हूं। दरअसल, कुछ दिनों पहले एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें कुछ लोग ट्रेन की खिड़की पर एक चोर पंकज कुमार को पकड़े हुए दिखे और वह जान बचाने की गुहार लगाता दिखाई दिया। उस वीडियो पर सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया देखकर मैं दंग था। कोई लिख रहा था-हाथ क्यों न छोड़ दिया, मर जाता, कोई लिख रहा था-ठीक हाल किया, ऐसे लोगों की यही सजा है। दरअसल, यह सब वैसा ही मॉबलिंचिंग जैसा दृश्य था, जिसमें मोबाइल चोर, पॉकेटमार या झपटमार के आरोपी को पकड़कर भीड़ बेरहमी से पीटती है और वहां कोई भी बीच-बचाव करने नहीं आता। अगर चोर ने खिड़की से मोबाइल चोरी का प्रयास किया भी था, तो भी

हिटलर के तानाशाह बनने की कहानी

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                 Photo by Mathew Browne on Unsplash  (प्रतीकात्मक फोटो) By Gulzar Hussain इस फिल्म (टीवी सीरीज) को देखकर मन में इतनी हलचल मची हुई है कि कुछ लिखे बिना रहा नहीं जा रहा... दरअसल, इस फिल्म को हर पत्रकार और लेखक को जरूर देखना चाहिए। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, इसे यहां अंत में बताऊंगा। ...सबसे पहले तो मैं यह बता दूं कि 2003 में बनी इस कनाडियन सीरीज Hitler: The Rise of Evil की सबसे बड़ी खासियत है इसके मुख्य किरदार निभाने वाले रॉबर्ट कर्लेले (Robert Carlyle) का अभिनय। हिटलर के शैतान के रूप में निरंतर परिवर्तित होते किरदार को जी पाना आसान नहीं था। रॉबर्ट ने हिटलर के क्रोध में कांपते चेहरे ...घृणा से फूलते-पिचकते उसके नथुने को बखूबी अपने अभिनय में ढाला है। हिटलर जब यहूदियों को जड़ से मिटा देने की बात कहता है, तो उसकी आंखों में साम्प्रदायिकता की भेड़ियानुमा चमक जो आ जाती है, उसे भी राबर्ट सामने लाता है। खैर, यह फिल्म हर पत्रकार और लेखक को इसलिए देखनी चाहिए, क्योंकि इस फिल्म की रूपरेखा या कहें कथा ही एक जर्मन पत्रकार-इतिहासकार Fritz Gerlich की रिपोर्टों पर आधारित है। इस फिल्म में Frit

बड़ी मां और प्रेमचंद की कहानियों की दुनिया

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Photo by hannah grace on Unsplash By Gulzar Hussain तब मैं बहुत छोटा था, जब मेरी बड़ी मां (चाची) मुझे प्रेमचंद की कहानियों के बारे में बताती थीं। जब वह प्रेमचंद की कहानियों पर चर्चा करतीं, तब मैं घोर आश्चर्य में पड़ जाता, क्योंकि वह पढ़ी-लिखी तो बिल्कुल भी नहीं थीं, फिर कैसे वह कहानियों पर विस्तार से बात कर पाती थीं?तब मैं मुजफ्फरपुर के उस गांव के स्कूल की किताब में पढ़ी गईं प्रेमचंद की कहानियों से ही परिचित था, लेकिन बड़ी मां का कहानी पर चर्चा करने का अंदाज ऐसा था कि मैं अनोखी दुनिया में पहुंच जाता था। वह हर कहानियों के मानवीय पहलू का जिक्र ऐसे करती थी कि आंखें भर आतीं थी। वह कहती- हामिद ऐसा बच्चा था कि उसे कोई खिलौना खरीदने का न सूझा और दादी का चूल्हे के पास बैठकर रोटियां सेंकने में होने वाली तकलीफ याद रही...आह, कैसा दिल वाला बच्चा था वह। मैं यह सुनकर भावुक हो जाता।   'ईदगाह' कहानी पर बोलते-बोलते उनकी आंखें भर आती थीं। हामिद का अपनी दादी के लिए चिमटा लाने का उत्साह हो या उसकी दादी की आंखों में आंसू आ जाने का दर्द हो, सब कुछ वह इस तरह सुनातीं कि कोई टीचर क्या सुनाएगा।   वह हर

...तो मैं मर जाऊंगा

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Photo by  Claudio Schwarz  on  Unsplash अगर मुझे कोई एक ही धर्म या एक ही जाति के लोगों के बीच रहने के लिए छोड़ दे, तो मैं मर जाऊंगा। मुझे हर धर्म और हर जाति के दोस्तो का साथ चाहिए। विविधता मेरे लिए बहुत जरूरी चीज है। मैं वह फूल हूं जो हर तरह के फूलों के बीच खिला रहता है। जरा सोचिए कि एक ही भाषा, एक ही सेक्स या एक ही सोच की तरह के लोगों के बीच रहना कितना नीरस और जानलेवा होगा। अगर मैं नास्तिक हूं, तो मुझे धार्मिक दोस्त भी चाहिए, जिनसे बहस कर सकूं। अगर मैं धार्मिक हूं तो भी मुझे नास्तिक मित्र चाहिए। महात्मा गांधी, बाबासाहेब आंबेडकर, भगत सिंह और अशफाक सभी अलग-अलग धर्मों, विचारों के थे, लेकिन इनके उद्देश्य एक थे- मानवता की रक्षा। यह एक धागा इन्हें एक सूत्र में जोड़कर रखता था। यही धागा भारत की शान है, इसे कभी टूटने मत दीजिए। इस बगीचे में हर रंग के फूलों को पल्लवित होने दीजिए। न जाने क्यों आज यह कहना जरूरी लग रहा है कि एकता- भाईचारा ही इस देश की असली ताकत है। इस देश में रहने वाले बौद्ध, सिख, हिंदू, ईसाई, मुस्लिम और नास्तिक सभी एक साथ मिलजुल कर रहते आए हैं और आगे भी रहना चाहते हैं। तो फिर कौन है

नफरत फैलाने की हर साजिश को नाकाम कैसे करते हैं हम भारतवासी?

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  Photo by Noorulabdeen Ahmad on Unsplash -गुलजार हुसैन आपने कभी सोचा है कि नफरत फैलाने की हर गहरी साजिश को हमारे देश के लोग आखिरकार नाकाम कैसे कर देते हैं? किन साहित्यकारों और फिल्मकारों का नाम आप लेना चाहेंगे, जिन्होंने अपनी कला और विचार से देश की एकता रूपी पेड़ की जड़ों को इतना मजबूत बनाए रखा है कि डालियों-पत्तियों को नष्ट किए जाने के बावजूद ये फिर से उगकर हरियाली फैला देते हैं। मैं शुरू से सोचता हूं तो प्रेमचंद से लेकर राजेंद्र यादव तक कई साहित्यकारों के नाम मन में आ जाते हैं। इनसे पहले जाएं, तो उस एक जुलाहे कबीर का नाम मेरे मन में गूंजता है, जिसने अपने दोहों से भारत के बड़े भू-भाग को एक डोर में पिरोए रखा। उसने हर कट्टरता और धर्मांधता को इतना तुच्छ बना दिया कि यह एक परंपरा बन गई कि जो भी कबीर के दोहों के साथ है, वह मानवता के साथ है। कौन किस धर्म या जाति का है, राजा है या प्रजा है इसका कोई मायने नहीं है। जो इंसान है, वही जीने लायक है। तभी तो उन्होंने लिखा- 'प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए, राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस देही ले जाए।' इसके अलावा, प्रेमचंद के पात्रों के व्यव

आखिर क्यों हिटलर मासूम बच्चियों की जान लेने में भी नहीं हिचकता था?

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By Gulzar Hussain हिटलर (Adolf Hitler) की क्रूरता के बारे में जानने से पहले, आइए उस मासूम लड़की के बारे में जानते हैं, जो न केवल घर, बल्कि पूरे मोहल्ले में सबकी दुलारी थी। उस नन्ही परी सी लड़की का नाम मार्गरेटा था। आज ही के दिन 27 जनवरी 1939 को Groningen में एक डच यहूदी परिवार में जन्मी मार्गरेटा बेहद खूबसूरत और घर भर की लाडली थी। मार्गरेटा अपनी छोटी बहन जूडिथ जोसेफिन के साथ दिन भर खूब खेलती और खुश रहती थी। इन दोनों बच्चियों की मां मारिया सारा दोनों को खेलते देख खूब खुश होती थी। मारिया ने अपनी दोनों बेटियों के साथ कई फोटो खिंचवाई थी। यहां दी गई तस्वीर में मार्गरेटा और उसकी बहन जूडिथ अपनी मां के साथ बैठी है। जूडिथ के हाथ में खरगोश खिलौना है। दोनों नन्ही बहनें हैरत भरी आखों के साथ से कैमरे की ओर देख रहीं हैं, लेकिन उनकी मां मुस्कुरा रही है। आखिरकार हिटलर ने अक्टूबर 1942 में मार्गरेटा को उसकी मां मारिया सारा और छोटी बहन जूडिथ जोसेफिन के साथ #Auschwitz में निर्वासित कर दिया था। इसके बाद एक दिन गैस चैंबर में उनकी एक साथ हत्या कर दी गई थी। ऐसे साधारण और खुशहाल परिवार को भी हिटलर नष्ट करने प

कागज के फूल मुबारक

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फिल्म का चर्चित पोस्टर, साभार By Gulzar Hussain यह कहते हुए तो किसी को मुबारकबाद नहीं दी जा सकती, लेकिन गुरुदत्त (Guru Dutt)   ने तो यही कहते हुए सभी को नया साल मुबारक कहा था। हां, वर्ष 1959 में वह 2 जनवरी का दिन था, जब 'कागज के फूल' (Kaagaz Ke Phool) रिलीज हुई थी। मैंने इस फिल्म को फिर से नए साल पर देखा, तो मन भर आया। कैसे कहूं कि यह एक फिल्म भर है, मुझे तो यह एक कविता की तरह लगी ...एक सच्ची प्रेम कविता, जिसमें, प्रेम के स्नेहिल स्पर्श के साथ ही पैर के नीचे की जमीन अचानक लुप्त होने की बात है ...जिसमें झूठे-दिखावटी कार्यों से उपजी बेरुखी की बात है ...जिसमें केवल सफलता पाने के उद्देश्य से बनाई जा रही फिल्मों पर करारा व्यंग्य भी है। यह एक जादूई यथार्थवाद समेटे प्रेम कविता है, अगर यह कहानी होती, तो इसका कोई अंत संभव था, लेकिन इस कविता में तो एक तलाश है ...सिर्फ तलाश। प्रेम की तलाश में भटकता मन कभी बारिश की फुहार से बचने का प्रयास कर सकता है क्या? तब हमने फिल्म में केवल यही क्यों देखा कि गुरुदत्त बारिश से बचने के लिए एक पेड़ के नीचे छुपते हैं, जहां, बारिश में भीगकर ठंड से कंपकंपाती