...जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो
मलयज ने अपनी डायरी में लिखा था कि कविता का विचार आता है और उसे गद्य का भाव काट देता है . मलयज के इस कथन का प्रभाव मेरे काव्य लेखन में भी आप महसूस कर सकते हैं . बहुत कुछ विस्तार से कहने की तमन्ना मुझे पद्य से गद्य की और खींचती है . मैं कभी -कभी कविता को किसी कहानी या आलेख का पहला पड़ाव समझ लेता हूँ ,क्योंकि मुझे लगता है कि इस 'मोड़ ' से आगे भी बढ़ा जा सकता है ...लेकिन इन सबके बावजूद मैं यह भी महसूस करता हूँ कि मेरे गद्य लेखन में कविता अधिक भरी हुई है और मूल रूप में छुपी बैठी है ....या यह भी हो सकता है कि मैं इन स्थितियों को ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ . स्त्री जीवन के संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को लेकर कविता लिखना मेरे लिए सबसे कठिन मगर प्रिय विषय रहा है .इस बार दो कवितायें प्रस्तुत हैं ..आलोचना और सुझाव का इंतज़ार है ..... - गुलज़ार हुसैन . ..जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो बूढ़े बरगदों ,पीपलों की घनी छाया से बहुत दूर उस जामुन के पेड़ की शाखाएं काटता है कुल्हाड़ी से कोई सुनसान सांझ में सबसे छुप कर करता है प्रहा