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Showing posts from 2021

कैसा बीता 'पथेर पांचाली' के मासूम बच्चे अपू का जीवन?

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अपुर पांचाली  फिल्म का एक पल/ सोशल मीडिया से साभार   क्या आप जानते हैं कि सत्यजीत रे की फिल्म 'पथेर पांचाली' के मासूम बच्चे अपू का जीवन कैसा बीता? नहीं-नहीं, मैं अपू की फिल्मी कहानी के बारे में नहीं कह रहा हूं, वह तो सत्यजीत रे की trilogy देखकर सब जानते ही हैं। मैं यहां बालक अपू की भूमिका निभाने वाले सुबीर बैनर्जी की बात कर रहा हूं। कोलकाता की किन गलियों में सुबीर उर्फ अपू का बचपन खो गया?... कालजयी फिल्म में काम करके भी वे क्यों गुमनाम बने रहे...? क्या अपू की असल जिंदगी भी फिल्मी अपू के किरदार जैसी गुजरी? इन्हीं सब तथ्यों की तलाश में बनी अनोखी फिल्म है अपुर पांचाली। कौशिक गांगुली की यह फिल्म एकदम अलग शैली में कथा कहती है। तीन अलग अलग फ्रेम में कहानी चलती है। एक कहानी सुबीर उर्फ अपू की तलाश की है...दूसरी कहानी अपू की बीती हुई जिंदगी की है और तीसरी है सत्यजीत रे की तीनों कालजयी फिल्मों के अपू पर फिल्माए गए दृश्यों की माला... अद्भत शैली में कहानी आगे बढ़ती है...और दर्शक हैरान होते चलते हैं कि अरे, अपू की असली कहानी तो अपू की फिल्म वाली कहानी की तरह ही दर्दनाक है। सत्यजीत रे की फिल्

Jay Bhim : शोषण का वास्तविक रूप

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Photo courtesy : social media बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी, जिसमें वंचित जनता पर होने वाले अन्याय और शोषण का वास्तविक रूप दिखाई दिया। हां, यह सच है कि 'जय भीम' (Jay Bhim) देखते हुए मैं तनिक भी नहीं चौंका, क्योंकि मैंने बिहार के दलितों और महादलितों का जीवन बहुत नजदीक से देखा है। बिहार में संर्घषशील मुसहर समुदाय के दुख -तकलीफ झेलने वाले लोगों से मिलते जुलते इस फिल्म के पात्रों की दुनिया अनजान या काल्पिनक तो नहीं है, लेकिन फिल्म में इस तरह की कहानी का आना नया और विद्रोह से भरा हुआ है। हिन्दी पट‌्टी की फिल्में तो इस तरह से बनती ही नहीं हैं और बनती भी हैं, तो वे कहानी को बैलेंस करने के चक्कर में मूल मकसद से भटकी हुई लगती हैं। हां, एक हिन्दी फिल्म का नाम याद आ रहा है-'पार'। गौतम घोष की इस फिल्म में नसीर और शबाना आजमी ने बिहार के दलित के संघर्ष को बखूबी निभाया था। इस फिल्म में जुल्म की हद दिखाई गई थी, लेकिन आशा की किरण नहीं थी ...इससे बच निकलने के लिए कहीं कोई मार्ग नहीं था, लेकिन 'जय भीम' फिल्म में अन्याय और दमन से बच निकलने का एक मार्ग भी है। बाबासाहेब आंबेडकर के

दो किताबों की बात

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By Gulzar Hussain मीठी आवाज में गाए गए गाने 'साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' और 'गांधी' फिल्म को बचपन में टीवी पर देखने के बाद गांधी को जानने-समझने में इन दो किताबों की मेरे जीवन में बड़ी भूमिका रही है - 'सत्य के प्रयोग' और 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास'। सत्य के प्रयोग में जो गांधी (Mahatma Gandhi)हैं, वे इतने आत्म सयंमित हैं ...इतने कठोर अनुशासित हैं कि जिन्हें जानकर कोई भी बच्चा मन ही मन कह देगा कि अरे ऐसा कैसे बना जा सकता है भला। यह तो सच है कि गांधी को जानकर भी यह विश्वास करना कठिन हो जाता है कि इस तरह का कोई व्यक्ति गुजरात, मुम्बई और मुज़फ़्फ़रपुर की राहों पर चलता-फिरता रहा है। कौन यकीन करेगा कि शाकाहार को लेकर वे जितने दृढ़ निश्चयी थे, उतने ही वे मांसाहार करने वाले लोगों के खाने पीने के अधिकारों की रक्षा करने में भी मुखर थे। 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' के टालस्टाय फार्म पाठ में वे फूड फ्रीडम के प्रबल पक्षधर नजर आते हैं। टालस्टाय फार्म में जो लोग रहने वाले थे उनमें हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाई सभी थे। सभी का आहार अलग अलग

जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा था...

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जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा था, तो गंगौली गांव का होकर रह गया था... गंगौली के धूल उड़ाते बच्चे ...सुंदर लड़कियों की गपशप ...एक दूसरे से जलते-झगड़ते अधेड़ ...ईर्ष्या और स्नेह से भरी स्त्रियां ...दरअसल, यह था तो एक संपूर्ण गांव, लेकिन वहां रहने वालों की कहानियां अधूरी थी ... फुन्नन, बेदार, बलराम, कजरारी आंखों वाली बच्छन...सैफुनिया ...और ढेर सारे हंसते, बोलते, लड़ते हुए लोग। इस 'आधा गांव' में एक रहस्यमयी इमाम बाड़ा भी था, इसके बारे में मशहूर था कि हर जुम्मे यहां जिन्नात मजलिस करते हैं। यह पढ़ते हुए हॉरर फिल्म का एहसास होता...इस इमाम बाड़े की तरफ से शाम के समय कोई डर के मारे गुजरता नहीं था... लेकिन जब मुहर्रम आता तो इसका मतलब होता था कि इमाम हुसैन भारत में आ गए और इमाम बाड़ा अब जिन्नात के कब्जे से मुक्त होकर गांववाले के कब्जे में आ गया। लेकिन फिर भी नन्हे राही (उपन्यासकार) के मन में डर बना रहता कि अभी तो चांद ही निकला है, क्या पता कोई न कोई भूला भटका जिन्न तो वहां होगा ही...इसलिए वह दद्दा और अम्मा के बीच में ही चलता... खैर, उपन्यास को पढ़ते हुए मैं एक ऐसे गांव में था, जो मेरे गांव से अलग किस्म क

Life is a great adventure : भारत में पहली बार 100 दिन लाइफ सपोर्ट पर रहने के बावजूद ठीक हुआ कोरोना मरीज

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भारत में यह पहली बार हुआ है कि 100 दिन लाइफ सपोर्ट पर रहने के बावजूद चेन्नई का कोरोना मरीज बिना फेफड़े के प्रत्यारोपण के ठीक हो गया है। कुछ लोग इसे भले चमत्कार कहें, लेकिन इस घटना से साबित होता है कि जीने की चाह हो तो जीवन एक adventure (साहसिक कार्य) भी है। दरअसल, अस्पताल ने दावा किया है कि चेन्नई का व्यक्ति मुदिज्जा (Chennai man) ईसीएमओ (ECMO) समर्थन के साथ नौ सप्ताह से अधिक समय बिताने के बाद बिना फेफड़े के प्रत्यारोपण के ठीक हो गया और 60 दिनों से अधिक समय तक कृत्रिम फेफड़े से जुड़े रहने के बाद फेफड़े के प्रत्यारोपण के बिना ठीक होने वाला देश का एकमात्र मरीज है। चेन्नई के एक व्यक्ति मुदिज्जा ने जीवन रक्षक मशीनों पर लगभग चार महीने बिताए, लेकिन फेफड़े के प्रत्यारोपण के बिना ठीक हो गया। जिस अस्पताल ने उसका इलाज किया था, उसने यह दावा किया है। 56 वर्षीय व्यक्ति को गुरुवार को Rela Hospital द्वारा छुट्टी दे दी गई। अस्पताल ने कहा कि उन्होंने एक्स्ट्रा कॉरपोरियल मेम्ब्रेन ऑक्सीजनेशन (ईसीएमओ) पर लगभग 109 दिन बिताए। Rela Hospital ने कहा, 'वह एक जीवित चमत्कार बन गया, क्योंकि ईसीएमओ समर्थन के

ये किसका लहू है कौन मरा?

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By Gulzar Hussain इस तरह सवाल पूछने वाला शायर क्यों न नौजवानों के मन में बस जाएगा? ...इसी तरह स्कूल के दिनों में मेरे मन में भी साहिर लुधियानवी (Sahir Ludhianvi) बस गया था। उसकी नज़्म में उठते सवाल अंतर्मन में तूफान मचाने लगे थे। मुझे अक्सर यह लगा कि 'तल्खियाँ' या इससे इतर छपी उसकी नज़्म और ग़ज़ल सवाल ज्यादा पूछती हैं। ...कभी साहिर पूछता है -'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है? कभी वह सवाल करता है- 'प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं? सवाल शायद उसकी शायरी का फलसफा था... 'तल्खियाँ' जब प्रकाशित हुई थी, तब साहिर कॉलेज का छात्र था और जब मेरे हाथ यह पुस्तक लगी तो मैंने 10वीं की परीक्षा पास की थी। तल्खियाँ के मुझ तक पहुंचने में दशकों के फासले हैं, लेकिन उसमें शामिल नज़्म मुझे अभी-अभी कही गई लगती है। इंसानियत का परचम लहराने वाले शायर साहिर लुधियानवी अक्सर अन्याय के खिलाफ कलम उठाते रहे। वे लिखते हैं— आज से ऐ मज़दूर-किसानों ! मेरे राग तुम्हारे हैं फ़ाकाकश इंसानों ! मेरे जोग बिहाग तुम्हारे हैं जब तक तुम भूके-नंगे हो, ये शोले खामोश

Tokyo Olympics: गुरजीत कौर की स्टीक कमाल कर गई

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टोक्यो ओलम्पिक (Tokyo Olympics) महिला हॉकी में सेमीफाइनल तक पहुंचने के लिए वर्ल्ड की नंबर 2 टीम ऑस्ट्रेलिया को हरा पाना भारतीय महिला हॉकी टीम (Indian women's hockey team) के लिए आसान नहीं था, लेकिन गुरजीत कौर (Gurjit Kaur) ने वह कर दिखाया, जिसकी कल्पना भी मजबूत ऑस्ट्रेलियाई टीम ने नहीं की थी। गुरजीत कौर ने 22वें मिनट में पेनल्टी कार्नर पर महत्वपूर्ण गोल कर दिया...यह एक गोल ही ऑस्ट्रेलिया पर भारी पड़ गया। इस एक गोल में वह जादू था कि आस्ट्रेलिया की पूरी टीम इसका सामना नहीं कर पाई। गुरजीत के अलावा सविता पुनिया ने भी कमाल का खेल दिखाया। वह आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की हर चालाकी को गोल रोककर नाकाम करती गईं।   इस बेहतरीन खेल के लिए गुरजीत कौर, सविता पुनिया सहित पूरी टीम बधाई की हकदार है। 

जिन्होंने कलम चलाने का मकसद बताया

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गुलज़ार हुसैन प्रेमचंद (Premchand) ने 1933 में 'हंस' के कवर पर बाबासाहेब आंबेडकर (Babasaheb Ambedkar) का चित्र छापकर कलम चलाने का मकसद बताया था। दरअसल, उनकी यह बड़ी पहल नई पीढ़ी को लिखने की राह बताने के लिए थी ...वे खेतिहर मजदूर के रूप में खेत में पसीना बहाती वंचित जनता के हक के लिए साहित्य रचने के पक्षधर थे ...यह संकेत था कि लेखन का उद्देश्य वंचित, दलित, पीड़ित जनता की आवाज होनी चाहिए, अन्यथा वह किसी काम का नहीं। गोदान का होरी महतो हो ...सिलिया हो या ईदगाह का हामिद हो ...उन्होंने हर पात्र के माध्यम से यह संकेत दिया कि देश की सबसे बड़ी समस्या से आंखें चुराते हुए साहित्य नहीं लिखा जा सकता। आज यह अकाट्य सत्य है कि भारत में किसानों, खेतिहरों, मजदूरों, छोटे कारीगरों, ठेले वालों, सफाईकर्मियों, मजबूर वेश्याओं या वंचित जातीय समूहों के हक़ की बात किए बिना आपका लेखन 'जीरो' है। प्रेमचंद नई पीढ़ी को सबसे जरूरी राह बता गए। प्रेमचंद के दौर या उससे पहले वंचित जातीय समूहों के बारे में साहित्य लेखन करने वाला कौन था? उस दौर में हिन्दी पट्टी में मुझे तो दूर दूर तक प्रेमचंद के अलावा कोई दूसरा नज

कहानी: चरसेरी

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Photo by Deepak Choudhary on Unsplash short story by Shamima Hussain (शमीमा हुसैन) आज रमेश ठाकुर के यहां बहुत बड़ी पूजा है। पूजा की तैयारी जोर शोर से चली रही है। सभी लोग काम में जुटे हैं। कोई दूध उबाल रहा है, तो कोई चावल-गुड़ संभाल रहा है। कई लोग सफाई करने में और फुलमाला बनाने में जुड़े हुए हैं। पवित्रता पर बारिकी से ध्यान दिया जा रहा है। उनके यहां जो आसामी काम करता है, वह गोबर से घर, दरवाजा और बथान लीपने में लगा हुआ है ...और केला पत्ता को धोने, सुखाने और झाड़ने में लगा हुआ है। वैसे पूजा की तैयारी तो महीनों से चल रही है, पर आज पूजा शुरू होने जा रही है। यह पूजा बैशाख महीने में ही होता है। पूजा शुरू हुई तो पूरा माहौल धूप और अगरबत्ती से महकने लगा। और पवित्रमय हो गया। रमेश ठाकुर के बेटे सुनील की पत्नी आनेवाले मेहमान का स्वागत कर रही है। वह पड़ोसी और मोहल्लेवाली औरतों का पूजा में शामिल होने के लिए अभार भी व्यक्त कर रही है। उधर सुनील की नजर मोहल्ले की एक लड़की कृष्णा पर है। दरअसल, उस पर बहुत दिनों से उसकी नजर थी। कृष्णा का चरित्र बहुत सुदृढ था। वह फालतू किसी के यहां नहीं आती जाती थी और न फालतू कि

In pics: मुंबई में रिमझिम बारिश

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मुंबई में बारिश शुरू हो गई है। रिमझिम फुहारों से सड़कें चमकने लगी हैं। बच्चे छतरी लेकर घरों से बाहर निकलने लगे हैं। आपके लिए इन दृश्यों को मैंने कैमरे में कैद किया है। देखिए- (सभी तस्वीर: गुलज़ार हुसैन)

क्या आपने इस गंभीर चेहरे वाले अभिनेता की फिल्में देखी हैं?

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(द फादर के एक दृश्य में बेंजामिन और सुप्रिया पाठक) by Gulzar Hussain ये बेंजामिन गिलानी (Benjamin Gilani)  है ...उदास सा...मंद-मंद मुस्काने वाला एक गंभीर अभिनेता... बचपन में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के दौर की याद जब भी मन में कौंधती है, इस गंभीर चेहरे वाले अभिनेता का चेहरा सामने आ जाता है। न जाने कितने धारावाहिकों और टेली फिल्मों में इसके जिंदादिल अभिनय ने मन को झंझोड़ा है। मन में एक कसक भी उठती रही है कि इतने अच्छे अभिनय के बावजूद आखिर क्यों बेंजामिन फिल्मी दुनिया में चर्चित नाम नहीं है। खैर, इधर फिर बेंजामिन अभिनीत एक टेली फिल्म देखी। यह मोपांसा की कहानी द फादर पर बनी है। इसमें बेंजामिन ने एक ऐसे लापरवाह प्रेमी की भूमिका की है, जो झकझोरती है ...बेचैन करती है ... फ़िल्म में बेंजामिन एक युवती से बहुत प्यार करता है, लेकिन एक दिन वह अचानक बिना किसी को बताए शहर छोड़ कर भाग जाता है। इधर उसकी प्रेमिका (सुप्रिया पाठक) उसकी याद में बहुत रोती है ...बिलखती है। फिर बहुत दिनों बाद जब बेंजामिन उसी शहर में लौटता है, तो उसे एक बच्चा दिखाई पड़ता है, जो ठीक उसके अपने बचपन की तस्वीर से मिलता जुलता है। जब उसे

लघुकथा : लॉकडाउन का भाड़ा

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Photo: Vijayendra Mohanty on Unsplash - शमीमा हुसैन मकान मालिक- क्‍यों, कब भाड़ा दे रहो हो? किराएदार- सेठ, कोरोना के कारण मेरा काम पूरा चौपट हो गया। रोटी के लाले पड़ गए थे।समय बहुत ही खराब हो गया था। इसके लिए गांव भागा, लेकिन वहां भी कर्ज लेकर पेट भरने का इंतजाम किया।   मकान मालिक- तो मैं क्‍या करूं तुम्‍हीं बताओ। किराएदार- लॉकडाउन मार्च से शुरू हुआ था और मैंने उस समय भाड़ा दे दिया था। अब अप्रैल से लेकर अक्‍टूबर तक का भाड़ा बाकी है। मकान मालिक- तुम्‍हारा डिपॉजिट खत्‍म हो गया है और तुम माइनस में हो। किराएदार- हां, सेठ। जानता हूं। मैं सारा भाड़ा चुका दूंगा ...लेकिन अभी भी मेरा काम ठीक से चल नहीं रहा है। आप तीन महीने का भाड़ा तो माफ कर दीजिए। मकान मालिक- (गुस्‍से में) ऐसा कैसे हो सकता है। माफ कर दूं तो मैं रोड पर आ जाउंगा। किराएदार- सेठ, दो महीने का तो माफ कर दीजिए। मकान मालिक- नहीं ऐसा नहीं हो सकता है। सुनो, 70 हजार भाड़ा बनता है, लाकर दो। नहीं तो घर खाली करो। किराएदार- नहीं सेठ, ये नहीं हो पाएगा। (उदास होकर) थोड़ा-थोड़ा करके भाड़ा चुका दूंगा। मकान मालिक- क्‍या डेरवा पोठिया दोगे। एक बार

In Pics: मुंबई की रफ्तार

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कोरोना की दूसरी लहर मुंबई (Mumbai) को फिर से तंग कर रही है। नाइट कर्फ्यू है, लेकिन मुंबई की रफ्तार कम होने का नाम नहीं ले रही है। मेहनतकश लोग रोजी रोटी के लिए खूब पसीना बहा रहे हैं।  सभी फोटो: गुलज़ार हुसैन

भारत की राजनीति में महुआ मोइत्रा का होना, देश का जिंदा रहना है

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By Gulzar Hussain  टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा का भारत की राजनीति में होना गर्व की बात है। जिस तरह से लोकसभा में उन्होंने मोदी सरकार की गिन- गिन कर पोल खोली है, उसे एक ऐतिहासिक मोमेंट कहा जा सकता है। जिस तरह भारत में सांप्रदायिकता और पूंजीवाद के तले लोगों को को घुटन भरे माहौल में रहने को मजबूर किया जा रहा है, उन सियासी साजिशों का पर्दाफाश जरूरी था। मोइत्रा ने केंद्र सरकार पर कायरता को साहस के रूप में परिभाषित करने का आरोप लगाया है, जो ऐसे समय में एक साहस भरा काम है। ऐसे समय में जब संसद में जन आंदोलनकारियों को परजीवी कहकर मजाक उड़ाया जा रहा हो, तब लोकसभा में महुआ को सुनना ऐतिहासिक लम्हा था।  महुआ ने वर्तमान समय में सत्ता की हर नीति की पोल खोल कर रख दी। मुझे ध्यान नहीं आता कि पिछले एक दशक में इस तरह किसी अन्य महिला नेता ने सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ लोकसभा में खुलेआम इतने गंभीर तरीके से चोट करते हुए जेनुइन मुद्दे पर घेरा है।  मोइत्रा (Mahua Moitra) ने लोकसभा के अंदर कहा कि नागरिकता संशोधन कानून (CAA) लाना, अर्थव्यवस्था की स्थिति और बहुमत के बल पर तीन कृषि कानून (Farm Laws) लाना ही सबसे बड़ा

अभी अधूरा है सफदर का नुक्कड़ नाटक

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By Gulzar Hussain हां, वह जनवरी का ही महीना था, जब सफदर हाशमी उस नुक्कड़ नाटक को पूरा नहीं कर पाया था।  हां, ‘हल्ला बोल’ केवल नुक्कड़ नाटक ही नहीं था, बल्कि वह उसका सपना था। वह सपना अपने देश को और बेहतर बनाने का था। ...वह सपना मिलों-कारखानों में जानवरों की तरह पिसते मजदूरों को अधिकार दिलाने का था ...वह सपना झोंपड़ों में रहने वाले गरीब बच्चों के जीवन स्तर को उठाने का था, लेकिन तब सत्ता और सियासत के दमनचक्र ने उस सपने को कुचलने की कोशिश की। उस नुक्कड़ नाटक के दौरान ही सियासी गुंडों ने उसकी पूरी टीम पर हमला किया।  जब घायल होकर सफदर 2 जनवरी (1989) को दम तोड़ रहा था, तब वह अपना सपना अपने साथियों को सौंप रहा था। उसके और उसके साथियों के सपने घुल-मिलकर तूफानी सपने बन गए। सफदर की मौत के दो दिन बाद ही उसकी पत्नी मल्यश्री हाशमी उसी टीम के साथ दोबारा उसी जगह पर अधूरे नाटक को पूरा करने गई।  बस यही ...हां, यही साहस हर सपने को पूरा करने के लिए जरूरी है। सपने की कड़ी से कड़ी जुड़नी चाहिए। ...उसके बाद हम और हमारे बाद वे...ऐसे ही तेज होनी चाहिए सपनों को पूरा करने की रफ्तार... कौन कहता है कि 2 जनवरी को सफदर मर ग