उदारवादी छवि और आतंक के शोर में गुम मेहनतकश किरदार
- गुलज़ा र हुसैन पिछले दिनों दंगे में अपने युवा बेटे को खोने वाले इमाम रशीदी ने जब हर हाल में भाईचारा बनाए रखने की अपील की, तो बरबस 'शोले' फिल्म के इमाम रहीम चाचा की याद आ गई। इस फिल्म में इमाम साहब का युवा बेटा अहमद जब डाकू गब्बर सिंह के हाथों मारा जाता है, तो वे कहते हैं कि पूछूंगा खुदा से कि मुझे और बेटे क्यों नहीं दिए गांव पर शहीद होने के लिए। दरअसल वर्ष 1975 में आई रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' का यह संवाद हिंदी फिल्मों में मुस्लिम चेहरे का सबसे लोकप्रिय संवाद माना जा सकता है। हिंदी फिल्मों में मुस्लिम चरित्र की मौजूदगी को समझने के लिए 'शोले' के संवाद 'और बेटे क्यों नहीं दिए गांव पर शहीद होने के लिए' और फिल्म 'माय नेम इज खान' के संवाद 'माय नेम इज खान एंड आई एम नॉट ए टेररिस्ट' तक के विस्तार को देखने की जरूरत है। लोकप्रिय फिल्म शोले का एक दृश्य 'शोले' के इमाम साहब की उदारवादी छवि से निकलकर मुस्लिम पात्र को 'मैं आतंकी नहीं' कहने की अपील करने की स्थिति तक पहुंचने के लिए कितने वर्ष लगे यह देखना महत्वपू