Posts

Showing posts from 2019

कहानी: डिटेंशन कैंप सेवा

Image
Photo by  Shail Sharma  on  Unsplash कहानी: गुलजार हुसैन  (S hort story by Gulzar Hussin ) लोगों ने उसके गले में देखा कि एक पट्टी लटक रही है। उस पर बहिष्कृत नंबर119 लिखा है। साथ ही और कई तरह के संदेश उस पट्टी में छोटे- छोटे अक्षरों में लिखे थे। लोग जब आश्वस्‍त हो गए कि वह बहिष्‍कृत है, तो सब ठठाकर उसपर हंसने लगे। भीड़ में से एक व्‍यक्ति ने उसकी तरफ थूक भी दिया।  वह उतरने के समय ट्रेन से गिर गया था। लोगों ने समझा था कि वह उतरते समय ट्रेन से प्‍लेटफार्म पर इसलिए गिर गया था, क्‍योंकि वह गेट पर लटकने वाला लापरवाह आदमी था। लेकिन यह बात सही नहीं थी। ऐसा लगता था कि ट्रेन से उतरते समय पीछे से भीड़ का धक्‍का लगने से वह गिर गया होगा। लोगों ने यह तो साफ- साफ देखा ही था कि चढ़ने वालों की भीड़ से उसके हाथ और पैर कुचल गए थे। उस भीड़ में से किसी ने उसे उठाया नहीं था। दरअसल कोई उसे उठा भी नहीं सकता था। लोकल ट्रेन पल भर में खुल जाती है, इसलिए पीक आवर में चढ़ने- उतरने वाली भीड़ की बड़ी तेज गति होती है। इस तेज गति में कोई अनजान आदमी खुद को संभाल नहीं सकता। अगर उस पल कोई गिर जाए तो कोई उसे उ

मैं भी 'काफ्काएस्क'

Image
  Franz Kafka By Gulzar Hussain कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर क्‍यों काफ्का ( Franz Kafka,  3 July 1883 – 3 June 1924)  ने अपने दोस्‍त मैक्स ब्रोड को अपनी सारी पांडुलिपियां देकर आग के हवाले कर देने को कहा होगा? ...आखिर क्‍यों उसके अंदर इतनी निराशा भर गई होगी? क्यों उसे लगा होगा कि उसका लिखा सब कुछ व्‍यर्थ है? हिटलर काल की प्रारंभिक यातनाओं- युद्ध के खतरों को नजदीक से देखने वाले एक भावुक कथाकार के अंदर कौन सी परिस्थितियां कील की तरह चुभ रही हैं, वह हर कोई जान भी तो नहीं सकता था। क्‍या काफ्का का दोस्‍त मैक्स ब्रोड और काफ्का की प्रेमिका डोरा भी उसे ठीक से समझ पाई होगी? ..जिस डोरा की बांहों में काफ्का ने दम तोड़ा था, क्‍या उसने काफ्का की आंखों में झांकते वक्‍त उसकी बेचैनी को समझा होगा?... खैर, डोरा से ही सवाल क्‍यों हो, वह तो उसे महज 11 महीने पहले ही उससे मिली थी... आजीवन बुखार में थरथराते रहे काफ्का को समझना आसान नहीं था, यह उसकी कहानियों से साफ हो जाता है, फिर भी वह जिस पीड़ा को सीने में जब्‍त कर कलम चला रहा था, उसे देखना जटिल होने के बावजूद

जो दोस्त की तरह जिंदगी में शामिल हो गए

Image
Shaheed Bhagat Singh का दुर्लभ चित्र By Gulzar Hussain बड़ी सीधी बात है कि जो बचपन में दोस्त की तरह आपसे घुलमिल जाए, उसे दिल से एक पल के लिए भी भुलाना आसान नहीं है। हां मैं भगत सिंह की ही बात कर रहा हूं। दरअसल, यह जीवन का वह दौर था, जब भगत सिंह के साथ ही बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी के विचार मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ रहे थे। ...लेकिन भगत सिंह मेरे बचपन को वैचारिक रूप से झकझोरने वाले पहले नायक थे। स्कूल के दिनों में ही भगत सिंह एक विराट ह्रदय वाले नायक की तरह मेरे दिल ओ दिमाग पर छा गए थे। उनकी छवि मेरे अंदर ऐसे ही नहीं निखरी थी ...तब मुझे बाल पत्रिकाओं का नशा चढ़ा रहता था, इसलिए उनकी कुछ छवि बाल पत्रिकाओं में उनके बारे में कभी-कभार छपे लेखों से बनी थी, तो कुछ मेरे बड़े भाई साहब की लाई पुस्तकों और चर्चाओं से आकार ले रही थी। ...हां इसके अलावा एक मनोज कुमार अभिनीत फिल्म ‘शहीद’ भी थी, जो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर आती रहती थी ... इन सबसे जो भगत सिंह बना था बचपन में मेरे अंदर वह फिल्मों के उदात्त नायकों पर भारी पड़ता जा रहा था ...टीवी पर आने वाली अमिताभ की पुरानी फिल्मों का

मुंबई की सलामती के लिए आरे जंगल को बचाइए

Image
                   Calligraphy poster:     Dhananjay Kokate आरे के हजारों हरे-भरे पेड़ों और पंछियों को उजाड़ने का सीधा प्रभाव मुंबई में रहने वालों पर पड़ेेेेगा। नतीजा यह होगा कि मुंबई किसी सुनामी जैसी आपदा में डूब सकती है या रेगिस्‍तान की तरह सूख सकती है। पूरी मुंबई एक सुर से आरे बचाने के पक्ष में खड़ी है, लेकिन इस आवाज से जंगल उजाड़ने वालों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।  By  Gulzar Hussain कुछ लोग आरे जंगल को मुंबई का दिल कहते हैं, तो कुछ लोग इसे मुंबई का फेफड़ा (लंग) कहते हैं। चाहे कुछ भी कहिए आप इस छोटे से जंगल को, लेकिन पथरीले महलों से भरे इस मुंबई महानगर की सांसें यदि चल रही हैं, तो केवल आरे जंगल के कारण चल रही हैं। लेकिन अब इस जंगल को उजाड़ने की पूरी तैयारी कर ली गई है। पर्यावरण विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि महाराष्ट्र सरकार के यहां मेट्रो कार शेड बनाने के निर्णय से जंगल के साथ यहां के पशु-पक्षियों और यहां रहने वाले वार्ली समुदाय के लोगों का अस्तित्‍व भी खतरे में पड़ सकता है। मुंबई में आरे जंगल को बचाने के लिए आम जनता सड़कों पर है, लेकिन दूसरी तरफ हरियाली में

बारुदगंध पसरण्यापूर्वी : हिन्दी से अनूदित कविता

Image
Photo by  Girish Dalvi  on  Unsplash  पहली बार मेरी किसी कविता का अन्य भारतीय भाषा में अनुवाद हुआ है, इसलिए इसे अपने ब्लॉग पर रखने की इच्छा को रोक नहीं सका। मेरी कविता ‘बारूद की गंध फैलने से पहले’ का अनुवाद लेखक और अनुवादक भरत यादव ने इतनी खूबसूरती से किया है कि यह मराठी भाषा में ही लिखी गई कविता लगती है। उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद।                                                                                                                                                            बारुदगंध पसरण्यापूर्वी / (बारूद की गंध फैलने से पहले)                           -मूल कविता-  Gulzar Hussain                            -मराठी अनुवाद- Bharat Yadav या या समुद्रकिनारी या या हवेमध्ये बारुदाचा तिखट गंध भरुन जाण्यापूर्वी इथली जीवनदायिनी हवा फुफ्फुसात भरुन घ्या या पहा समुद्राच्या लाटांवर ऐटीत मिरवणारे ऊन ज्याचे तेज हातात घेऊन आपल्या डोळ्यात लपवणारी प्रेयसी बघत आहे प्रियकराकडे एकटक या अनुभवा हवेत पसरलेले मानव-चुंबनाचे ऊर्जादायी तरंग जे शतकांपासून माणसामध्ये निर्माण

रविदास मंदिर का हो पुनर्निर्माण, भाजपा के मौन पर उठे सवाल

Image
दिल्‍ली का रामलीला मैदान / तस्‍वीर:दिलीप मंडल के FB पोस्‍ट से साभार  शहरी विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले डीडीए ने की थी तोडू कार्रवाई   सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) द्वारा पिछले दिनों दिल्ली  के तुग़लकाबाद में गुरु रविदास मंदिर ( Ravidas temple)  के ढहाए जाने का जोरदार विरोध शुरू हो गया है।  दिल्‍ली  (Delhi) में मंदिर के पुनर्निर्माण की मांग को लेकर बड़ी संख्‍या में लोग सड़कों पर उतर गए। लोग भाजपा सरकार के मौन पर सवाल उठा रहे हैं। लोगों का कहना है कि जिस डीडीए ने संत रविदास के मंदिर को तोड़ा है, वह भाजपा सरकार के शहरी विकास मंत्रालय के अधीन आता है, तो फिर भाजपा सरकार ने मंदिर को बचाने के बदले उसे तोड़ने में अपनी ताकत क्‍यों लगा दी?   वरिष्‍ठ पत्रकार दिलीप मंडल ( Dilip C Mandal  ) ने फेसबुक पर लिखा है- 'दिल्ली के जिस रविदास गुरुघर या मंदिर के लिए इब्राहिम लोदी ने ज़मीन दी। पूरे लोदी वंश और मुग़ल वंश के समय जो मंदिर सुरक्षित रहा। जिस मंदिर को अंग्रेज़ों ने भी नहीं छेड़ा, विभिन्न पार्टियों की सरकारों के समय जो मंदिर शान से खड़ा रहा, उसे

महाराष्‍ट्र के भगत सिंह थे कुर्बान हुसैन

Image
शहीद कुर्बान हुसैन / फोटो : टीवी न्‍यूज से साभार ...वे भगत सिंह की तरह ही नौजवानों को जागरूक करने वाले लेख लिखा करते थे ...वे भी भगत सिंह की तरह ही न्‍यायप्रिय पत्रकार थे, लेकिन  महाराष्‍ट्र के बड़े- बड़े नेता स्‍वतंत्रता दिवस पर झंडारोहण करते हुए शहीद कुर्बान हुसैन का एक बार नाम लेना तक भी भूल जाते हैं।   By Gulzar Hussain भगत सिंह की तरह ही कम उम्र में वतन के लिए फांसी के फंदे को चूमने वाले कुर्बान हुसैन को आज महाराष्‍ट्र के लोग ही भुला बैठे हैं। आज स्‍वतंत्रता दिवस पर मैं यदि यह कहना चाहता हूं कि हुसैन महाराष्‍ट्र के भगत सिंह थे, तो इसके पीछे केवल यह तर्क ही नहीं है कि वे भगत सिंह की तरह ही कम उम्र में वतन के लिए जान देने वाले क्रांतिका री थे, बल्कि मैं यह कहना चाहता हूं कि वे भी भगत सिंह की तरह ही नौजवानों को जागरूक करने वाले लेख लिखा करते थे। वे भी भगत सिंह की तरह ही न्‍यायप्रिय पत्रकार थे। 1910 में सोलापुर में जन्‍में कुर्बान हुसैन महाराष्‍ट्र के भगत सिंह थे, लेकिन आप गौर कीजिएगा, तो पाइएगा कि महाराष्‍ट्र के बड़े- बड़े नेता स्‍वतंत्रता दिवस पर झंडारोहण करते हुए शहीद

रुकाे-रुको, प्रेमचंद के उपन्यास को मत जलाओ

Image
फोटो : 'तमस' फिल्म का दृश्य "...रुको! रुको! यह प्रेमचंद का उपन्यास है। इसे मत जलाओ!" ...क्या आपको याद है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य...भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' पर बनी गोविंद निहलानी की फिल्म का वह दृश्य?  ...दंगाईयों की भीड़ लाठी -भाला लिए हुए एक प्रोफेसर के घर में घुस आती है ...भीड़ सबसे पहले प्रोफेसर की किताबों पर हमला करती है ...उन्मादी भीड़ किताबों से भरे रैक को गिरा देती है।  भीड़ जब प्रोफेसर को एक ओर पटक देती है तो प्रोफेसर बोल उठता है- "...आप सब जानते हैं मुझे ...मैं प्रोफेसर हारून ...साहित्य पढ़ाता हूं..." उन्मादी भीड़ उनका कुछ नहीं सुनती ...भीड़ किताबों पर पेट्रोल छिड़कने लगती है... तब प्रोफेसर चीख पड़ता है- "...यह मेरे जीवन भर की पूंजी है...इन्हें मत जलाओ..." प्रोफेसर एक पुस्तक उठाता है और दंगाइयों को दिखाते हुए कहता है- " यह देखो ...प्रेमचंद का उपन्यास ...इसे मत जलाओ..." प्रोफेसर कुछ और किताब उठाते हुए भीड़ को साहित्यकारों के नाम याद दिलाता है, लेकिन भीड़ आखिरकार सारी पुस्तकें फूंक देती है।

'गोरा' के माध्‍यम से टैगोर ने कहा था- मानवता सबसे ऊपर

Image
Rabindranath Tagore By Gulzar Hussain गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को याद करते ही मेरे मन में उनके कालजयी उपन्यास 'गोरा' की कहानी घूमने लगती है। इस उपन्यास में फर्जी राष्ट्रवाद की नींव पर खड़े उच्च जातीय घमंड की पोल खोलते हुए टैगोर मानवता को सर्वोपरि रखते हैं। इस कहानी का खलनायक गोरा (गौरमोहन) शुद्ध रक्त के गर्व में चूर होकर अन्य कमजोर जातीय समूहों, पंथों और समुदायों से घृणा करता है। लेकिन उपन्यास के अंत में जब गौरमोहन को सच पता चलता है तो उसके पैरों तले धरती खिसक जाती है। दरअसल उसे पता चलता है कि जिन वंचित जातीय समूहों से वह घृणा कर रहा था, वह उन्हीं जातीय समूहों से आने वाले माता-पिता की खोई हुई संतान है। पल भर में गोरा के अंदर दशकों से अर्जित उच्च जातीय घमंड चकनाचूर हो जाता है। आज फर्जी राष्ट्रवाद की खाल ओढ़कर अपने ही देश के लोगों से नफरत करने वाले ढोंगियों के खिलाफ यह उपन्यास एक जरूरी दस्तावेज है। पुस्‍तक का कवर/ साभार आजकल राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की राजनीति का जो 'भूत' लोगों को डरा रहा है, दरअसल उसका अस्तित्व एक विशालकाय गुब्बारे जैसा ही है। सच क

उस दिन बादल ऐसा फटा कि...

Image
July 26, 2005, Mumbai/ सोशल मीडिया से साभाार कोई जरूरी नहीं कि जो तैरना जानते हैं वे नहीं डूबेंगे। मैं तैरना नहीं जानता था फिर भी बच गया। लोगों का कहना है कि जो तैरना जानते थे वे भी डूबे ….हां वह भयावह दिन था 26 जुलाई, 2005 ( July 26, 2005, Mumbai)  का    ...मुंबई में वह कयामत का दिन था,जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता ...उस दिन मुंबई की भयानक बाढ़ में मैं भी फंसा था …गले तक पानी में कभी आगे-कभी पीछे  ...रात भर पानी में इधर -उधर जान बचाने के लिए फिर रहा था ...बसों, कारों और डूबी हुई इमारतों के आसपास ….हर चौराहे पर फूली हुई लाशों के बीच से गुजरता मैं हर पल मौत से लड़ रहा था …मैं जीना चाहता था, शायद इसलिए जीवित रहा …मेरा यह संस्मरण सितंबर, 2005 में 'वर्तमान साहित्य' में प्रकाशित हुआ था। By  Gulzar  Hussain शाम को चार बजे जब मैं वसुंधरा कार्यालय से बाहर आया, तो देखा कि सड़क पर घुटनों से ऊपर पानी बह रहा है। इक्का-दुक्‍का वाहनों की रफ्तार चींटियों सरीखी है। हर तरफ ऑफिस से लौट रहे लोगों की भीड़ है। बारिश लगातार जारी है और छतरियां ताने रहने के बावजूद सभी गीले हो चुके हैं। लड़किय

वह तो खुशबू है...फ़ीरोज़ अशरफ़ का यूं चले जाना

Image
Firoz Ashraf  /Image: उनकी पुस्तक कवर से  By Gulzar Hussain वह तो खुशबू है, हवाओं में बिखर जाएगा... हां, ...खुशबू को तो बिखरना ही है...कौन रोक सकता है इसे ...लेकिन कौन जानता था कि परवीन शाकिर के बारे में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पाकिस्तान: समाज और संस्कृति' में 'खुशबू बिखर गई' शीर्षक से स्मृति-लेख लिखने वाले फ़ीरोज़ अशरफ़ भी परवीन की तरह ही सड़क दुर्घटना का शिकार होकर हमसे दूर हो जाएंगे।  हां। कल (7 जून) एक वाहन की चपेट में आकर फ़ीरोज़ साहब चल बसे। मुंबई सहित देश की पत्रकारिता जगत को इन्होंने अपनी लेखनी से बहुत समृद्ध किया। मुंबई से निकलने वाले अखबार 'नभाटा' से लेकर 'हमारा महानगर' तक में छपने वाले इनके कॉलम की खूब चर्चा हुई। 'हमारा महानगर' में तो वे हाल तक लिख रहे थे।  मेरे लिए खुशकिस्मती की बात थी कि जिन दिनों मुझे 'हमारा महानगर' में कॉलम 'प्रतिध्वनि' लिखने का मौका मिला था, तब फ़ीरोज़ साहब भी उसमें कॉलम लिख रहे थे। इससे उनको लगातार पढ़ने का मौका मिलता रहा और उनको जानने-समझने का भी मौका मिलता रहा।  वे जितना अधिक स