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Showing posts from 2020

संकट के समय जीने का हौसला देती किताब

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संकट के समय कुछ किताबें आपको जीने का हौसला देती हैं। हेलन केलर की आत्मकथा भी ऐसी ही रोशनी मुझे दे रही है।  यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसमें देखने, सुनने और बोलने क्षमता नहीं है, लेकिन वह लोगों के दुख, तकलीफ और अन्याय को देख पाती है ...वह वंचित जनता के हकों के लिए आंदोलनों में भाग लेती है ... वह मजदूरों, खेतिहर किसानों के हक के लिए झकझोरने वाले लेख लिखती है।  एकबार एक कट्टर व्यक्ति ने उसके बारे में कहा कि शारीरिक रूप से कमजोर हेलन को आंदोलनों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए, तो हेलन ने जवाब दिया- "आंखें होते हुए भी न देख पाना दृष्टिहीन होने से कहीं ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।" मैं ज्यों-ज्यों इस पुस्तक में खोता जा रहा हूं, त्यों-त्यों समंदर सा मजबूत साहस मेरे अंदर हिलोरें लेता हुआ महसूस हो रहा है। इस पुस्तक की हर पंक्ति कहती है मुझसे ...उठो, आगे बढ़ो। -गुलज़ार हुसैन

उनका अभिनय भुलाया नहीं जा सकता

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पश्चिम बंगाल में गुजरे बचपन ने मुझे बांग्ला फिल्मों और बांग्ला साहित्य का बेहतरीन तोहफा दिया है। इनमें से एक तोहफा सौमित्र चटर्जी की फिल्में रही हैं।  रविवार को वे हम सबसे सदा के लिए दूर हो गए, लेकिन उनका रुला देने वाला अभिनय मैं कभी नहीं भूल सकता। अपुर संसार में जब वे अपने नन्हे बेटे से पहली बार मिलते हैं, तो उनका बेटा उन्हें नहीं पहचानता। ...उस गम में डूबे पिता का अभिनय कितनी गहराई लिए हुए था, उसे मैं शब्दों में नहीं बयान कर सकता। जब मैं छोटा था, तब न्यू जलपाईगुड़ी में अपने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर उनकी कई फिल्में देखने का मौका मिला था। इनमें अपुर संसार सहित कई उल्लेखनीय फिल्में शामिल हैं। सत्यजीत रे की नजरों में वे बेहतरीन अभिनेता थे, लेकिन मुझे उनके गहरे अभिनय के बारे में काकी मां से पता चला। काकी मां मेरे पड़ोस में रहती थीं और सौमित्र साहब की बड़ी फैन थी। एक बार टीवी पर उनकी एक क्लासिक फिल्म आ रही थी, तो काकी मां ने मुझे बुला लिया- "गुलज़ार, तारातारी एसो...देखो एई फिल्म टा देखो..." "आमी देखबो काकी मां...." मैं यह कहते हुए उनके पास चला गया। फिर उन्होंने सौमित्र साहब

हिन्दी के पहले कवि को क्यों भुला दिया जाता है?

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By Gulzar Hussain हां, यह सच है कि हिन्दी में सबसे पहले कविता लिखकर अमीर खुसरो ने हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में अतुल्य योगदान दिया। आज हम जिस खड़ी बोली वाली हिन्दी का प्रयोग आम बोलचाल से लेकर साहित्य-फिल्म तक में करते हैं, उस भाषा में पहली बार खुसरो ही कलम चला रहे थे। दरअसल, विक्रमी 14वीं शताब्दी में सर्वप्रथम खुसरो ने खड़ी बोली (हिन्दी) का इस्तेमाल शुरू किया। उस दौरान वे जो कविताएं लिख रहे थे, वे बेहद सरल और पठनीय होने के कारण लोगों की जुबान पर चढ़ गई थी। वे सूफियाना कवि थे, इसलिए उनकी इंसानियत से भरी पंक्तियां लोगों के मन को छू जाती थी।  उनकी एक बानगी देखिए- खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि 'काहे को दीनो विदेस, सुन बाबुल मोरे' जैसे आज भी लोकप्रिय रहे गीत को उन्होंने ही कलमबद्व किया था। जब खुसरो की कविताएं हर ओर छा गई, तब गद्य में भी अन्य साहित्यकारों ने खड़ी बोली वाली हिन्दी को हाथों हाथ लिया। ...और फिर यह हिन्दी भाषा तो मुस्लिम-हिंदू सबकी बोलचाल की भाषा हो गई। हिन्दी को एक बड़े मकाम तक पहुंचाने में उनका बड़ा योगदा

भाईचारा और न्‍याय चाहने वाले नौजवान थे भगत सिंह

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By Gulzar Hussain नई पीढ़ी में भगत सिंह (Bhagat Singh) का लगातार लोकप्रिय होते चला जाना आज के 'ताकतवर नफरतवादी संगठन' के लिए निस्संदेह ईर्ष्या का विषय होगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले ऐसे क्रांतिकारी नौजवान थे, जिसने अपनी कलम से भी भाईचारे और न्यायप्रियता की जरूरत को रेखांकित किया। 'साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज' और अछूत समस्या' जैसे उनके लिखे लेख आज भी बेहद प्रासंगिक हो गए हैं। भगत सिंह ने दलितों और माइनॉरिटी की सलामती की चिंता करते हुए क्रांति का बिगुल फूंका था। यह एक बड़ी बात थी। आज भी देश में पहले पहल ऐसी ही चिंतन की जरूरत है। आज जब माइनॉरिटी अपना अस्तित्व बचाने के लिए चिंतित है ...निजीकरण से दलितों के आरक्षण को मिटाया जा रहा है ...सेक्युलर और न्यायप्रिय संविधान पर खतरा मंडरा रहा है, तब निस्संदेह भगत सिंह की जरूरत वतन को है। भगत सिंह की राह मतलब इंसानियत की राह ...एकता भाईचारे की राह। और यह राह 'नफरती गैंग' नहीं चाहता, यह जग जाहिर है।  यह मानिए कि दंगाइयों, देश और संविधान को तोड़ने की साजिश रचने वालों और तिरंगे पर बुरी नजर रखने वाल

मंगल ग्रह पर फंसे युवक की कहानी

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By Gulzar Hussain इस फिल्म में भले मंगल ग्रह पर फंसे युवक की कहानी है, लेकिन उसके जीवित रहने का संघर्ष हमें देश में फैले कोरोना संकट से उबरने की प्रेरणा दे सकता है। एंडी वेयर के उपन्यास 'द मार्शियन' पर इसी नाम से बनी फिल्म जिजीविषा की अद्भुत दास्तान है। रिडले स्कॉट (Ridley Scott) के निर्देशन में बनी इस साइंस फिक्शन फिल्म में मंगल ग्रह पर गई अंतरिक्ष यात्रियों की एक टीम से अकेले छूट गए एक युवक की कहानी है, जो मौत को आंखों के सामने देखकर भी हिम्मत नहीं हारता। मंगल ग्रह पर ऑक्सीजन नहीं है...खाने के लिए कुछ नहीं है, फिर भी वह अंतरिक्ष यात्री युवक (astronaut's, Matt Damon) जिंदा रहने के लिए हरसंभव कोशिश करता है। ठीक वैसे ही जैसे आज कोरोना संकट में लोगों के पास न बैंक बैलेंस है न खाने।को रोटी... उस अंतरीक्ष यात्री को चिंता है कि उसके पास थोड़े बचे खाने, ऑक्सीजन और पानी के खत्म हो जाने के बाद वह कैसे बचेगा। ...तो फिर वह मंगल ग्रह के फर्श से मिट्टी लाकर एक जगह जमा करता है और अपने मल के सहारे आलू के पौधे उगाता है ...वैज्ञानिक प्रयोग से वह पानी बनाता है ....यह सब वह कैसे करता है, यह द

अंधेरी रात से उजाला पाने वाला शायर मजाज़

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By Gulzar Hussain "शहर की रात और मैं नाशादो- नाकारा फिरूं" ऐसी दिल छू लेने वाली पंक्तियां लिखने वाले मजाज़ का यह संकलन भले पुराना हो गया हो, लेकिन इसमें जो तूफान भरा है, वह मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता। लोग उनकी शायरी की तरह-तरह से तुलना करते रहे हैं। कोई उन्हें कीट्स कहता रहा है, तो कोई शराबी, लेकिन मैं तो उन्हें पढ़कर जीने की अदम्य इच्छा से भर जाता हूं। अपनी एक नज़्म में वे अंधेरी रात का जिक्र ऐसे करते हैं, जैसे कोई जुल्मी पीठ पर ख़ंजर भोंक रहा हो, लेकिन वे निडर सीना तानकर चलेंगे। वे लिखते हैं- फ़ज़ा में मौत के तारीक साए थरथराते हैं हवा के सर्द झोंके कल्ब पर ख़ंजर चलाते हैं गुजिश्ता इशरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं रात उनके लिए जुल्म का प्रतीक बनकर आता है, लेकिन रात में वे ऐसे आगे बढ़ते हैं, जैसे कोई प्रेमिका से मिलने के लिए बढ़ा जा रहा हो... आज की रात और बाकी है कल तो जाना ही है सफर पे मुझे...

राजनीतिक पक्षधरता क्या होती है?

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By Gulzar Hussain राजनीतिक पक्षधरता क्या होती है, आइये इस 13 साल की लड़की से जानते हैं। मेरे हाथ में जो किताब है, उसे 13 साल की उम्र में एन फ्रैंक ने लिखी थी। एन की तो क्रूर हिटलर ने हत्या करवा दी, लेकिन वह उसके विचार को नहीं मिटा सका। यह किताब दरअसल एन की डायरी है। इसमें 3 अगस्त, 1943 को वह लिखती है -  "डियर किट्टी, एक जबरदस्त राजनीतिक खबर है। इटली में फासिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया है। कई जगहों पर लोग फासिस्ट के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।" यह चंद पंक्तियां एन की राजनीतिक पक्षधरता को दर्शाती है।  मैं यह कहना चाहता हूं कि जब देश भीषण संकट में हो ...संविधान, लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म सब पर गिद्ध दृष्टि साफ साफ नजर आए, तो राजनीतिक पक्षधरता एक जरूरी विषय होता है। दरअसल, कोई जब कहता है कि मैं तो निष्पक्ष हूं, तो वो झूठ बोलता है या उसके अंदर एक डर होता है। सच तो यह है कि खुद को निष्पक्ष कहकर वह सत्ता की हर नीति को स्वीकार करने का संदेश देता है। संकट के समय भी अगर कोई अपने पॉलिटिकल विचारों से क्रूरतम पार्टी का विरोध और सबल वैकल्पिक पार्टी का समर्थन नहीं कर पाए, तो उसके मन में च

SOCIAL MEDIA: लोगों की नजर में बिहार चुनाव के जरूरी मुद्दे

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बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार जनता बदलाव लाने के मूड में दिखाई दे रही है। बेरोजगारी और आर्थिक बदहाली के दौर से गुजर रहे बिहार के अधिकतर युवा आज भाजपा-जदयू सरकार से काफी नाराज दिखाई दे रहे हैं। हमने फेसबुक पर लोगों से राय जाननी चाही कि आखिर बिहार में कौन-कौन से ऐसे मुद्दे हैं, जिसपर वोटिंग होगी। आइए देखते हैं कि लोगों ने फेसबुक पर कमेंट में कौन-कौन से मुद्दे गिनाए हैं। हमने सबकी राय को ठीक उसी क्रम में रखा है, जिस क्रम में वे कमेंट के रूप में आए। Mohammad Sharfe Alam  बिहार की स्थिति पर व्‍यंग्‍य करते हुए  कहते हैं- रोज़गार नहीं दे पाए, शिक्षा व्यवस्था नहीं सुधार पाए, भ्रष्टाचार बढ़ गया, कानून व्यवस्था बदतर हो गई। Pinki Gupta  कहती हैं- कोरोनाकाल में अस्पतालों की स्थिति बद्तर हैं और सबसे बड़ी बात वर्तमान स्थिति में युवाओं के पास रोज़गार नहीं है, उचित शिक्षा कि व्यवस्था नहीं हैं, किसानों की स्थिति ख़राब हैं। ज़ाहिर सी बात है, जनता इन तमाम समस्याओं से उबरना चाहती है। Brajesh Chandra  कहते हैं-देशहित के लिए बिहार में NDA की हार जरूरी है। Susanskriti Parihar  वोट करने की जरूरत बताते हुए क

In Pics: कोरोना काल में पटरी पर लौटती मुंबई

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By Gulzar Hussain मुंबई की जो रफ्तार कोरोना (Coronavirus ) ने रोक दी थी, अब वह धीरे -धीरे लौटने लगी है। लोग मॉल में जाकर खरीदारी कर रहे हैं। बसों की सवारी कर रहे हैं। यह सच है लोगों में कोरोना का डर कम हुआ है, लेकिन काेरोना कम नहीं हुआ है।  सभी तस्‍वीर: गुलजार हुसैन मुंबई में लोग बसों से आने जाने लगे हैं एक मॉल  लोग मास्‍क लगाए सड़कों पर निकल रहे हैं     

वे देश को बगीचा बनाना चाहते थे

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  Photo by Pratik Chauhan on Unsplash By Gulzar Hussain वे भारत को एकता -भाईचारे की खुशबू से गुलज़ार बगीचा बनाना चाहते थे.... हां, महात्मा गांधी देश को ऐसा बगीचा बनाना चाहते थे, जहां सभी तरह के फूल खिलें और लहलहाएं। वे भारत को प्यार के फूलों से ऐसे संवारना चाहते थे कि दुनिया का हर देश ऐसा ही बनना चाहे। देश के वंचितों और माइनॉरिटीज को खुशहाल देखने की यही उनकी जिद्दी दृष्टि उन्हें अन्य समकालीन नेताओं के बीच प्रभावशाली व्यक्ति बनाती है। रूसी लेखक अ. गोरेव और जिम्यानीन की पुस्तक 'नेहरू' में गांधी के इस मानवतावादी सोच का जिक्र है। इस पुस्तक में लिखा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1948) जब देश में साम्प्रदायिक दंगे फैल गए, तो गांधी ने बेहद गुस्से में नेहरू, आज़ाद और पटेल को बुलाया। फिर गांधी ने पटेल से पूछा कि रक्तपात बंद करवाने के लिए आप क्या कर रहे हैं? तब पटेल ने कह दिया कि दंगों की खबरें अतिरंजित हैं और ये बेबुनियाद शिकायतें हैं। यह सुनकर गांधी स्तब्ध रह गए और बोले- "मैं कहीं चीन में नहीं, यहां दिल्ली में ही रहता हूं और मेरे आंख कान अभी दुरुस्त हैं। आप चाहते हैं कि मैं अ

गांधी और आंबेडकर के बीच के संवाद की खुशबू

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  शेषराव चव्हाण की किताब  By Gulzar Hussain स्कूल के दिनों से ही इन दोनों दिग्गज नायकों की वैचारिक पृष्ठभूमि मेरे अंदर उथल पुथल मचाती रही है... हां, भारतीय इतिहास में महात्मा गांधी और बाबासाहेब आंबेडकर के बीच जो एक निरंतर संवाद रहा है, वह मुझे आकर्षित करता है। मेरा मन कहता है कि मुसीबत में फंसे इस देश की अगली राह भी इन्हीं दोनों के वैचारिक मंथन की खुशबू से मिलेगी। निस्संदेह दोनों के महान कार्यों और आपसी सहमतियों-असहमतियों के मुद्दे झकझोरने वाले रहे हैं, इसलिए हमेशा मुझे इन दोनों के तुलनात्मक अध्ययन या समकालीन कार्यों पर सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर किताब की तलाश रही है। इन दोनों पर कई किताबें पढ़ीं, लेकिन न जाने क्यों अक्सर लगा है कि अभी इन दोनों को लेकर बहुत कुछ लिखा जाना शेष है। पिछले साल जब शेषराव चव्हाण की यह किताब हाथ लगी, तो अपनी उत्सुकता और बढ़ गई कि लेखक ने दो महान व्यक्तित्त्वों को कैसे एक ही साथ साधा है। इस किताब में लेखक ने दोनों के देश के लिए किये उल्लेखनीय योगदानों को बहुत सटीक ढंग से पेश किया है, लेकिन इन दोनों के चुभते हुए संवाद को लेकर विस्तारित काम यहां भी नहीं मिला। आंबेड

कुसुम, जो एक वर्ष तक 'लॉकडाउन' में रही

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Drawing: Gulzar Hussain By  Gulzar Hussain कोरोना आपदा के दौरान लॉकडाउन का दुख झेल रहे हम लोगों को क्या प्रेमचंद की कहानी 'कुसुम' याद है? कुसुम भी एक वर्ष तक लॉकडाउन जैसी त्रासदी झेलती रही थी। वह माता-पिता की इकलौती संतान थी ...लाड़-प्यार में पली... पिता ने कभी उसे फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ था, लेकिन जब उसकी शादी हुई, तो उसके पति ने उसे ऐसी तकलीफ में डाल दिया, जिसका कोई उपाय किसी के पास न था। शादी के पहले दिन से ही उसका पति उससे बात करना तो दूर उसके पास फटकता भी नहीं था। पति के प्रेम भरे शब्द या सुहागरात का अनमोल पल  उसके लिए कल्पना ही रहा। भीषण उपेक्षा की शिकार होकर कुसुम मायके आ गई। कुसुम ने लगातार अपने पति को कई खत लिखे, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। उसने पूछा कि सेवा करने का एक मौका दीजिए ...आखिर क्या भूल हुई, कुछ तो बताइए?...क्या कोई दूसरी आपकी जिंदगी में आ गई? लेकिन पति की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। कुसुम घर में बंद घुटती रही और रो-रोकर टीबी मरीज की तरह सूख कर कांटा हो गई। ...न जाने किस अपराधबोध में वह मौत की तरफ कदम बढ़ाने लगती है। लेकिन

तार- तार न होने पाए यह 'च‍दरिया'

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By Gulzar Hussain हां, यही तो मर्म है इस उपन्‍यास का ...झीनी झीनी चदरिया जैसी बनारसी साड़ी बीनने वालों के दिल में झांकते इस उपन्‍यास में हंसता-खिलखिलाता बनारस है ...दुख में सिमटकर जीने को मजबूर बनारस है ... जन अधिकार के लिए आवाज बुलंद करता बनारस है। बुनकर जुलाहों के अंतहीन संघर्ष और दिलेरी को पन्‍ने पर उकेरता अब्‍दुल बिस्‍मिल्‍लाह का उपन्‍यास 'झीनी झीनी बीनी च‍दरिया' बनारस की ऐसी तस्‍वीर खींचता है, जिसमें पूरा भारत दिखाई देता है। मेहनती बुनकर मतीन और अलीमुन का एक बेटा है इकबाल। वह उनकी आंखों का तारा है। उसे मतीन पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का सपना देखता है, लेकिन एक मामूली बुनकर आखिर कितना उड़ सकता है, जब पंख कतरने वाले अमीरुल्‍ला जैसे सामंत फन काढ़े बैठे हों। अमीर मालिकों के शोषण के खिलाफ मतीन समाज के कई युवकों को एकजुट करता है, लेकिन अंतत: पैसेवालों के छल-कपट का शिकार हो जाता है। मतीन इस धोखे से इतना टूटता है कि बनारस की गलियां छोड़कर दूर चला जाता है। टीबी की शिकार हुई अलीमुन उसकी राह तकते-तकते पीली पड़ जाती है। ऐसे कष्‍टप्रद माहौल में पलते-बढ़ते इकबाल के मन में क्रांति की चि

Coronavirus: एक नर्स, जिसकी मौत का राज छुपाया गया!

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वह नरज़िस ख़ानालिज़ादेह (Narges Khanalizadeh) थी। ईरान की एक नर्स, जिसने कोरोना वायरस के मरीजों की सेवा अपनी जान की बाजी लगाकर की। वह लोगों को बचाने के लिए हर पल तत्‍पर रही...लेकिन एक दिन वह बेहोश होकर फर्श पर गिर गई। उसके साथियों ने उसे बेड पर लिटाया। उसकी जांच की गई, तो वह कोरोना से संक्रमित पाई गई और एक दिन अचानक उसने (Feb, 2020में) दम तोड़ दिया, लेकिन ईरान सरकार ने उसकी मौत का राज छुपा लिया। ईरान सरकार ने यह माना ही नहीं कि उसकी मौत कोविड-19 से हुई थी। लेकिन क्‍या आप यह जानना नहीं चाहेंगे कि उसकी साहसी लड़की की मौत का राज सरकार ने क्‍यों छुपा लिया? इसकी तह में चौंकाने वाले तथ्‍य हैं। दरअसल ईरान की सरकार पर यह आरोप लग रहे हैं कि वह लगातार कोरोना संकट को कम करके पेश कर रही है। इसके लिए ईरान सरकार अपने सरकारी नियंत्रण वाले टीवी न्‍यूल चैनलों पर मेडिकल स्टाफ़ की छवि को कुछ ऐसे पेश करवा रही है जैसे उनके देश के मेडिकल स्‍टाफ सारी आधुनिक सुविधाओं से लैस होकर मोर्चे पर डटे हैं। ईरान सरकार अपने मेडिकल स्‍टाफ को भयभीत न होने वाले बहादुर की छवि में ढाल कर अपनी स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं क

Coronavirus: 'कोरोना आपदा' से धीमी हुई मुंबई की रफ्तार

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Photo: Gulzar Hussain By Gulzar Hussain कहते हैं, मुंबई (Mumbai) की रफ्तार कभी कम नहीं होती, लेकिन 'कोरोना आपदा' (   # COVID2019india )  ने इसे धीमा जरूर कर दिया है। जिन्हें अत्यंत जरूरी काम नहीं है, वे घर से नहीं निकल रहे हैं। ऐसे में ट्रेनों, बसों और टैक्सियों में कम लोग हैं। मैंने दिन में चर्चगेट और देर रात को सीएसएमटी के प्लेटफार्म पर अपेक्षाकृत कम भीड़ देखी। लेकिन मेहनत-मजदूरी करके पेट पालने वाले और अन्य जरूरी काम करने वाले लोगों को घर से निकलकर काम करना पड़ ही रहा है। रोज कुआं खोद कर पानी पीने वालों के लिए तो घर में रहना भी आपदा से कम नहीं .. .खैर, लोगों में कोरोना वायरस के खतरे को देखते हुए हल्का डर तो है, लेकिन इसके बावजूद लोग सतर्क हैं। सावधान हैं। लोग जानते हैं कि ऐसे खतरे से आखिरकार उन्हें खुद ही लड़ना है। यह जीने और स्वस्थ रहने की इच्छाशक्ति की परीक्षा भी हैं। तो घबराइए नहीं... सफाई का ख्याल रखें, सतर्क रहें ...जरूरी न हो, तो घर से नहीं निकलें ...जल्द सब ठीक होगा, ऐसी कामना है। 'ये दुनिया है इंसानों की कुछ और नहीं इंसान हैं हम'  ...

मैला आँचल: बिन जाति वाले 'डागदर बाबू' की अमर कहानी

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'मैला आंचल' मैंने अपने मित्र राजीव से मांग कर पढ़ा था और उसने मुझसे 'गोदान' पढ़ने के लिए लिया था। तब शायद हमारी मैट्रिकुलेशन की परीक्षाएं समाप्‍त हुईं थी। उन दिनों हमारी दोस्‍ती उफान पर थी। हम रोज मिलते थे और किताबों- पत्रिकाओं पर जमकर चर्चा करते थे। 'मैला आंचल' ( Maila Anchal/  Phanishwar Nath  ' Renu '  )हाथ में आते ही मैंने सारे दूसरे काम ठप कर दिए। सच कहूं तो 'मैला आंचल' मुझे कभी उपन्‍यास की तरह नहीं लगा, बल्कि एक बेलौस दोस्‍त के सुनाए किस्‍से की तरह लगा। बिहार की मिट्टी की सुगंध समेटे हर पन्‍ना जैसे एक नया जादू लेकर सामने आता  था। डॉक्‍टर प्रशांत ...कमली ...बालदेव ... सब कोई जैसे अपने गांव-मोहल्‍ले के ही थे। जातियों में बंटे टोले और हर टोले की एक अलग ही कहानी... ...लेकिन बिहार के इस जातीय तानेबाने में उलझे डागदर बाबू प्रशांत की तो बात ही निराली थी। हर कोई उनसे नाम पूछता और फिर उसके बाद तुरंत जाति पूछ देता। अब डागदर बाबू की कोई जात पांत हो तो बताएं न...वे कहते हमारी जाति डॉक्‍टर है, लेकिन ऐसे कैसे बिहारियों के बीच अपनी जाति बचाए बि

आग बुझाने नहीं, राख देखने आते हैं नेता

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By Gulzar Hussain दंगे-फसाद के दौरान मोहल्‍लों के घरों में लगाई गई आग कोई नेता बुझाने नहीं आता है। नेता तब नजर आते हैं, जब घर-दुकान जलकर राख हो चुकी होती है। यह सच्‍चाई तो जलती हुई दिल्‍ली (Delhi violence) को देखकर सभी जान ही गए होंगे। और दूसरी ओर इस सच्‍चाई को भी लोग जान गए होंगे कि दंगे भड़काने में नेताओं की ही साजिश होती ही है। खैर, मैं यह हरगिज नहीं बताना चाहता कि नेता दंगे के दौरान क्‍यों नहीं कवच बनकर लोगों की रक्षा कर पाते हैं, बल्कि यह बताना चाहता हूं जनता की रक्षा करता कौन है। दरअसल, जनता की रक्षक जनता ही होती है। दिल्‍ली में कई ऐसी घटनाएं हैं, जो इंसानियत की जिंदा मिसाल हैं। धू-धू कर जल रहे मुस्लिम पड़ोसी के घर में प्रेमकांत बघेल घुस गए। उन्‍होंने जान पर खेलकर अपने मुस्लिम साथी को बचाया, लेकिन खुद बुरी तरह झुलस गए। इसके अलावा रवीश कुमार ने अपने प्राइम टाइम में बताया कि कैसे एक सिख सिद्धु ने दंगाइयों के हाथ से एक मुस्लिम युवक को बचाया और घर ले आए। उन्‍होंने अपनी पगड़ी उतारकर उस युवक के सिर पर बांधा। इसके अलावा कई ऐसी घटनाएं हैं जहां मुस्लिमों ने अपने पड़ोसियों की जा

Delhi violence: अब दोबारा न लगे कहीं ऐसी आग

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अब दोबारा कहीं ऐसी आग न लगे इसके लिए पूरी तरह सतर्क रहने की जरूरत है। बिहार में चुनाव होने हैं, इसलिए वहां भड़काऊ राजनीति की शुरुआत होने की प्रबल आशंका है। By Gulzar Hussain दिल्‍ली (Delhi) में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध में हो रहे शांतिपूर्ण आंदोलनों के बीच न जाने कहां से एक ऐसी चिनगारी निकली, जिससे हिंसा की आग फैल गई। और यह आग इस तरह फैली कि देखते ही देखते दिल्‍ली में कई जगहों पर नरसंहार में बदल गई। मॉब लिंचिंग से लेकर घरों में घुसकर हमले किए जाने लगे। दिल्‍ली में आगजनी के भयानक दृश्‍यों को देख पूरा देश कांप उठा है। यह सब इतना भयावह है कि सभी शांतिप्रिय लोगों के मुंह से एक ही वाक्‍य निकल रहा है कि अब फिर कहीं भी ऐसी आग न लगे। दिल्‍ली जलने के पीछे की स्थिति को समझने की जरूरत है। यह समझना इसलिए जरूरी है ताकि दूसरे राज्‍य अपने चुनाव के समय सतर्क हो जाएं। यह बहुत चर्चित वाक्‍य है कि दंगे होते नहीं, कराए जाते हैं। लेकिन इसके साथ यह भी सत्‍य है कि नरसंहार कोई आम जनता का जनता पर जुल्‍म नहीं है, बल्कि वह सत्‍ता प्रेरित हिंसक खेल है। इसे आप सियासी हिंसा भी कह सकते हैं।

...तो क्या गोडसे ने इसलिए की थी गांधी की हत्या?

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-गुलज़ार हुसैन जातिवाद की समस्या को लेकर बाबासाहेब आंबेडकर का महात्मा गांधी से जो संवाद था वह बेहद जरूरी और तार्किक था। तमाम असहमतियों के बावजूद यह डिस्कशन ऐसा था, जो निरंतर था।  दरअसल, गांधी छुआछूत और जातिप्रथा की कुरीतियों के खिलाफ जोरदार आंदोलन चला रहे थे, लेकिन आंबेडकर का जातिवाद के खिलाफ आंदोलन वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए था। आंबेडकर तो जातिभेद का समूल रूप स े खात्मा चाहते थे, लेकिन गांधी का तरीका कुछ और था। गांधी भी जात-पांत और छुआछूत के पूरी तरह खिलाफ थे, लेकिन वे ह्रदय परिवर्तन की बात कहते थे। गांधी जातिवाद को फालतू अंग मानते थे। उन्होंने ‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा था, ‘जातपांत के बारे में मैंने बहुत बार कहा है कि आज के अर्थ में मैं जात-पांत को नहीं मानता। यह समाज का 'फालतू अंग' है और तरक्‍की के रास्‍ते में रुकावट जैसा है।’ हालांकि वर्ण व्यवस्था पर उनका तर्क बहुत फिलॉस्फिकल था और इसको लेकर उनकी आलोचना भी होती थी, लेकिन इसके बावजूद वे वर्णवाद को व्यर्थ समझते हुए इससे दूर जा रहे थे। वे वर्णवाद की एकदम अलग व्याख्या करते हुए अंतत: इसे महत्वहीन मानते थे। हमें यह मा