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Showing posts from 2024

एक साहित्यकार की चिट्ठी

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   कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प का लिखा पत्र बात तब की है, जब 'चंपक', 'नंदन' की जादुई दुनिया से निकलकर मैं 'हंस', 'कथादेश' और 'आजकल' जैसी पत्रिकाएं पढ़ने लगा था। उस समय एक कथाकार का जादू मेरे सर पर चढ़ कर बोलने लगा ...उनकी कहानियों में प्रेम जैसे जाड़े की धूप की तरह पन्नों पर पसरी होती थी...उनकी एक से बढ़कर एक कहानियां पत्रिकाओं में आ रही थीं।  उसी दौरान उनकी एक कहानी 'शापित यश' मैंने 'आजकल' में पढ़ी। उसका इस कदर प्रभाव मुझ पर हुआ कि मैं तुरंत कथाकार को खत लिखने बैठ गया। मैं जब चिट्ठी लेटर बॉक्स में डाल रहा था, तब मुझे लगा था कि उन्हें समय ही कहां मिलेगा जवाब देने का। ...लेकिन एक सप्ताह बाद ही डाकिया एक पोस्टकार्ड दे गया। मेरी खुशी का ठिकाना न था। यह पत्र कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प का था। आज वे हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन मैंने उनका यह खत संभाल कर रखा है। आज (20, Dec ) उनका जन्मदिन है। उनकी स्मृति को नमन! -Gulzar Hussain

लघुकथा : उसकी पीठ की धारियां

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Meta AI Image उसने जिस दिन अपनी पीठ दिखाई थी, उस दिन हम फिर से स्कूल की पीछे छूट गई दुनिया में लौटने लगे. उसकी पीठ पर जेब्रा के शरीर की तरह धारियां थीं. पूरी पीठ धारियों से भरी थी. ये धारियां हल्की थीं, लेकिन स्थायी थीं. ये धारियां उसे स्कूल के किसी भयावह दिन में ले गईं. वह मेरी ओर बिना देखे बोलता रहा और मैं आश्चर्य से उसके चेहरे को पढ़ता रहा. यह उन दिनों की बात थी जब हम दोनों आठवीं कक्षा में थे. किसी दिन उसने अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया था. शायद इतनी सी ही बात थी या इससे भी छोटी कोई वजह. अंग्रेजी का वह शिक्षक उस दिन किसी निर्दयी हमलावर में तब्दील हो गया था. मजबूत छड़ी से शिक्षक ने उसकी पीठ पर वार करना शुरू किया. वह चीख रहा था ...गिड़गिड़ा रहा था, लेकिन उसने एक नहीं सुनी. वह तबतक उसे पीटता रहा जब तक उसकी शर्ट खून से लाल नहीं हो गई. टिफिन की घंटी बजी, तो छड़ी थम गई, लेकिन उसकी सिसकियाँ नहीं थमीं. मैं दूसरे सेक्शन में था इसलिए मुझे कुछ पता नहीं था. 'लेकिन तुमने उसका विरोध क्यों नहीं किया?' मैंने पानी का ग्लास अपने होंठों से लगाते हुए कहा. उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई, 'उस उ...

न्याय पाने की तड़प से भरी हैं निर्मला गर्ग की कविताएं

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  निर्मला गर्ग का कविता संग्रह  'अनिश्चय के गहरे धुएं में' मैंने उनसे जब भी बात की, उन्हें देश के वंचित जनों की चिंता-फिक्र में पाया ...देश में माइनॉरिटी, दलित, आदिवासी की लगातार पिछड़ती आर्थिक-सामाजिक स्थिति को कैसे ठीक किया जाए, इस पर विचार-विमर्श करते पाया। ...हां, निर्मला गर्ग के व्यक्तित्व को और एक कवयित्री के रूप में उनके चिंतन को उनसे बातें करते हुए मैं जितना समझ पाया, उससे यही लगा कि इस कवयित्री की लिखी हर पंक्ति इस देश को और बेहतर बनाने की एक ठोस पहल है। इस साल निर्मला गर्ग का काव्य संग्रह 'अनिश्चय के गहरे धुएं में' पढ़ने का मौका मिला। इस संग्रह को पढ़ने के बाद सबसे पहले जो बात मेरे मन में आई, वह यही आई कि इस संग्रह की कविताएं सम्मोहित नहीं करतीं, बल्कि न्याय पाने की तड़प और बेचैनी से भर देती हैं। दरअसल, ये कविताएं जुल्म के प्रतिकार और अस्वीकार की कविताएं हैं। फासिस्टों से लड़ने वालों के लिए समर्पित इस काव्य संग्रह की कविताएं मानवता को बचाए रखने के प्रयासों को शिद्दत से रेखांकित करती चलती हैं। इस संग्रह में 'ईश्वर : कुछ कविताएं' में उनकी शुरुआती पंक्ति...

सत्य की खोज करती हैं पंकज चौधरी की कविताएं : गुलज़ार हुसैन

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सेतु प्रकाशन से प्रकाशित पंकज चौधरी का कविता संग्रह गुलज़ार हुसैन बहुत पहले जब मैं पटना में पंकज चौधरी से मिला था, तब मैं कभी उनके टेबल पर अधखुली रखी मोटी सी फैज की किताब की ओर देखता था और कभी उनके चेहरे की ओर देखता था ...उस दिन वे जातिवाद, सांप्रदायिकता और स्त्री विरोधी मर्दवाद की जमकर धज्जियां उड़ा रहे थे। उनके बोलने का अंदाज ऐसा था कि उस दिन मैंने यह समझ लिया था कि यह कवि जब भी कलम उठाएगा, तो दुर्व्यवस्था और नाइंसाफी के खिलाफ मशाल ही जलाएगा। आज जब हाल ही में प्रकाशित उनके दूसरे काव्य संग्रह 'किस-किस से लड़ोगे' को पढ़कर उठा हूं, तो मेरी सोची हर बात सही साबित होती लग रही है। आज यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों के अलावा दूसरे राज्यों में भी चुनाव प्रछन्न रूप से जातिवाद और सांप्रदायिक मुद्दों पर ही हो रहे हैं, लेकिन साथ ही हकीकत यह भी है कि जातिवाद जैसी खतरनाक सियासी हथियारों के खिलाफ साहित्य जगत में एक सन्नाटा सा पसरा है। ऐसे समय में 'किस-किस से लड़ोगे' काव्य संग्रह वर्तमान परिदृश्य में साहित्यिक-क्रांति की शुरूआत की तरह सामने आई है। मैं इस संग्रह को प...

गुलज़ार हुसैन की कविताएं आपका चैन छीन सकती हैं : पंकज चौधरी

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न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित गुलजार हुसैन की पुस्तक  पंकज चौधरी   "एक अच्छी कविता वह है जिसे पढ़ते हुए कोई रो दे लेकिन उससे भी अच्छी कविता वह है जिसे पढ़ते हुए मन कुछ बेहतर करने की तड़प से भर जाए।" उपर्युक्त काव्य पंक्तियां प्रखर कवि-पत्रकार गुलजार हुसैन की हैं। गुलजार की कविताएं हमें प्रेरित करती हैं। वे हमें जगाने का काम करती हैं। वे उन योद्धाओं में जज्बा भरने का काम करती हैं जो असफल, हताश और निराश होकर बैठ जाना चाहते हैं। वे कुंवर नारायण के शब्दों में कहना चाहती हैं कि हारा वही जो लड़ा नहीं। ये उनकी कविताएं हैं जो किसी भी बाधा, अड़चन, मुश्किल और चुनौती में रुका नहीं। सवाल यह पैदा होता है कि जो कवि इतनी हिम्मत, बहादुरी, धैर्य और दूर-दृष्टि से लैस होने की बात अपनी कविता में करता है, आखिर उसका राज क्या है? इसका जवाब है कि गुलजार का जन्म एक अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ। मजदूरी करके पढ़ाई-लिखाई की। नौकरी की तलाश में मुंबई जैसे महानगर पहुंचे। वहां भी कुछ दिनों तक मजदूरी की। ट्यूशन पढ़ाया। स्कूलों में नौकरी की। छोटी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की। उनके संपादकीय विभ...

लघुकथा : सोनपुर मेला

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Photo META AI IMAGE  लघुकथा :शमीमा हुसैन   ''मार-पीट कर अब उसे छत्तर मेला (सोनपुर मेला) में बेच दो। शादी के चार-पांच साल हो गए हैं और अब वह मेले में बिकने जाएगी।''   यह बात कहने वाली कौन थी? यह सोनपुर वाली थी। दूर की मेरे सास की चाची। वह बाहर वाली थी, फिर भी घर वाले उसे मानते और उसकी बात का मान रखा जाता। पर वह मुझे रत्ती भर भी नही सुहाती। फिर भी उसके आने पर मैं उन्हें सलाम कर देती थी यहां तक कि मुझे पैर भी दबाना पड़ा। वह जब मजार पर जाती, तो वापस आने पर उसका आंचल सीधा होता और जाते समय आंचल उल्टा होता। मैं यह देखकर मन ही मन मुस्काती। यह दो पल का ईमान है। कुछ देर बाद भर-भर कर बुराई करेगी, तभी इसके पेट के पानी पचेगा। बस यह किस जन्म का बदला ले रही है। यह मैं जानती हूं। यह इसी जन्म की बात है।  जब उसकी शादी हुई थी, तब उसकी सास, ननद, पति, देवर सभी तलवार की तरह उनके सर लटके रहते थे। एक दिन सोनपुर वाली अपनी कहानी सुनाने लगी- ''...मैं चार बजे रोज उठ जाती थी। पर एक दिन मन खराब था। सात बजे उठी। मेरी सास ने किचन में घुसने नही दिया और पति को बोलकर मार खिलवाया।'' चार...

...जब हिटलर के खूंखार सैनिकों से भिड़ गई वह लड़की

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Meta AI Image/  symbolic image स्टीफन स्पीलबर्ग की फिल्म सिंडलर्स लिस्ट का एक दृश्य एक क्रांतिकारी कविता की तरह दर्शकों के दिलो दिमाग पर छा जाता है। दरअसल, यह दृश्य सच कहने वाली साहसी लड़की डायना रिटर (Diana Reiter) से जुड़ी सच्ची घटना पर आधारित है। ...तब जर्मनी में हिटलर ने ऐसी सांप्रदायिक सियासत फैलाई थी कि यहूदियों को बिना किसी वजह के मौत के घाट उतार दिया जा रहा था। उस समय यहूदी पोलिश लड़की डायना, जो इंजीनियर थी, उसे लगा कि कारकोव में जो बैरेक का फाउंडेशन बन रहा है, उसका निर्माण बिल्कुल गलत तरीके से हो रहा है। उसने तब के प्रभारी अधिकारी अमोन गोएथ के सामने ही इसका विरोध जताते हुए कहा कि इसे तुरंत फिर से बनाया जाए, नहीं तो यह बाद में गिर जाएगा और बहुत सारे लोग मारे जाएंगे। गोएथ घोर सांप्रदायिक सरकारी अधिकारी था। उसने घृणा से जवाब दिया कि कोई फर्क नहीं पड़ता है, निर्माण ऐसे ही होगा। तब डायना ने कहा- मैं यहां की इंजीनियर हूं। मेरी जिम्मेदारी है कि यह कहूं। गोएथ- अच्छा, तुम पढ़ी लिखी हो। डायना -हां, ग्रेजुएट हूं। गोएथ ने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा -"पढ़ी लिखी यहूदन, जैसे कार्ल मार्क्स...

बदलता मौसम : लघुकथा

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Meta AI Image by Shamima Hussain  लघुकथा : शमीमा हुसैन आज जुलाई की बारह तारीख है। कल से झमाझम बारिश हो रही है। फिजा कल काम से आई और सीधे बिस्तर पकड़ ली। माँ ने उसे रात को नौ बजे खाने के लिए उठाया।  फिजा ने करवट बदलते हुए आंखें खोली और माँ की ओर देखते हुए कहा, ''मैं थोड़ी देर में आती हूं।'' आधा घंटा हो गया, पर फिजा खाने के लिए नहीं आई।  माँ फिर आई और कहा, ''चलो फिजा खाना खा लो।''  फिजा ने आंखें मलते हुए कहा, ''हां अम्मी, भूख तो जोरों की लगी है। चलो।'' फिजा दुपट्टा उठा कर चलने लगी। वह मुश्किल से दो कदम ही चली होगी कि उसे चक्कर आया और वह नीचे बैठ गई। ''अरे क्या हुआ तुझे?'' मां ने उसे झुककर उसे संभालते हुए पूछा। फिजा ने उसके चेहरे की ओर देखा।  ''सुन, तू कल छुट्टी ले ले और आराम कर ले। थक जाती है।'' मां ने उसे उठाते हुए कहा।     फिजा ने खाते हुए सोचा कि चार, पांच दिन पहले से ही उसे पीरियड आने की तकलीफ शुरू हो जाती है। चक्कर आने से  पूरे बदन में दर्द और दोनों पिंडलियों में टेटनी होने लगती है। आज भी ऐसा ही हाल था उ...

दूधवाला : लघुकथा

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  Photo by Mihail Macri  (download free from unsplash images) लघुकथा : शमीमा हुसैन आज की सुबह बहुत साफ और नर्म है। रीना चाची उठकर बर्तनों को जमा कर रही हैं। मोरी पर रात के जूठे बर्तन धोने के लिए रख रही हैं। सुबह पांच बजे उठ जाती हैं। उनकी लाइफ बड़ी मिनिंगफुल है। रीना चाची हमेशा खुश रहती है। उनके तीन लड़के हैं। बड़े वाले का अभी पिछले साल मास्टरी में बहाली हुई है। माँ-बाप बहुत खुश हैं। माँ की खुशी का रोज ही ठिकाना नहीं रहता है। जब बाबू पैंट, शर्ट पहनकर तैयार होकर निकलता है, तो माँ का कलेजा बहुत चौड़ा हो जाता है। चाची बड़े लड़के को बाबू ही कहती हैं। अभी बाबू का स्कूल मॉर्निंग चल रहा है। बाबू का सब काम वह बहुत ख़ुशी-खुशी करती है। रीना चाची को और जल्दी -जल्दी करना पड़ता है, क्योंकि स्कूल मॉर्निंग है? साढ़े छह बजे दूध वाला सुरेश राय आ जाता है। दूध लेती है फट से चूल्हा पर चढ़ा देती है। चूल्हा पहले से गर्म रहता है।  दूध तुरंत गर्म हो जाता है। बाबू का दूध-रोटी गुड़ खाने का नियम है। मौसम कैसा भी हो, रोटी दूध ही खाना है।  रोटी मकई की हो या गेहूं की, वह दोनों ही बड़े प्यार से खाता है।...

लघुकथा : दूसरी डिलीवरी

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लघुकथा: शमीमा हुसैन आज शनिवार का दिन है। आज के दिन शहीदा बड़ी ख़ुशी से छोला-पूरी बनाती थी। पर आज घर में चाय, ब्रेड का नाश्ता बना है। शहीदा जब से शादी से होकर आई है, तब से पूरे घर की देखभाल करती है। वह सत्रह साल की थी जब उसकी शादी हो गई थी। तब उसे काम करने का मन नहीं भी होता, तब उसे करना पड़ता। पूरे घर की जिम्मेदारी शहीदा को सास ने यह कहकर सौंप दिया कि बहू यह घर तुम्हारा है इसे अब संभालो। यह बात उसे अच्छी लगी पर, अब समझ में आया कि कंधे पर बोझ आ पड़ा है। शहीदा हिम्मत करके जिम्मेदरी उठाने लगी। दो साल बाद सकीना का जन्म हुआ था। वह उसकी पहली डिलीवरी थी। तब वह मां के यहां चली गई थी, लेकिन अभी दूसरी है। वह अस्पताल में पड़ी है। चार दिन बाद नाम कटेगा।  शहीदा को अस्पताल से घर आए एक सप्ताह हो गया था।  एक रोज शहीदा की सास ने सुना दिया, "मैंने तो चार दिन में ही घर का काम चालू कर दिया था। तुमने ने तो एक  सप्ताह आराम भी कर लिया। अब घर संभालो।"  शहीदा सब समझ गई। लेकिन उसे कमजोरी भी बहुत थी। दर्द भी बहुत था। फिर भी वह जान पर खेलकर काम करने लगी।  एक दिन वह परात में आटा निकाल रही थी और ...

पेठिया का मिठुअवा सेव और बड़ी मां

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मुजफ्फरपुर के मनियारी में रविवार को लगने वाला हाट बहुत दिनों बाद मुजफ्फरपुर का मनियारी पेठिया (हाट) जाने का मौका मिला। रविवार की शाम थी। पेठिया गुलजार था, लेकिन सबसे पहले तो मेरा मन यह जानने को बेचैन हुआ कि मिठुअवा सेव क्या अब भी मिलता है इस पेठिया में ...वही मिठुअवा सेव जिसे बचपन में मेरे बड़े बाबा लेकर आते थे हाट से और बड़ी मां बड़े प्यार से मुझे देती थी ...ओह, क्या स्वाद होता था उस अनमोल पेठिया वाली मिठाई का... हां, तो मैं मिठुअवा सेव की तलाश में पेठिया में घुस गया। बेल, ककड़ी, तरबूज सब बेचे जा रहे थे। तरह-तरह की सब्जियां और फल। लोगों की भीड़ थी ...धूल उड़ रही थी ... लेकिन एक जो बात यहां थी, वह बड़े शहरों और मॉल वाले महानगरों में बिल्कुल भी नहीं होती। जाने वह क्या बात थी कि यहां की धूल की परवाह भी किसी को नहीं थी। आखिरकार एक जगह मुझे दिखाई दे गया मिठुअवा सेव। ताजा ही बना था। एक महिला बैठी कई तरह की स्वादिष्ट चीजें बना रही थी ...कुछ लोग वड़ी, तो कुछ लोग चिनिया बादाम खरीद रहे थे। मैंने अपने छोटे भाई आशु से कहा, मिठुअवा सेव ले लो, खाने का बहुत मन है। मिठुअवा सेव का स्वाद जैसे ही मुझे म...

ओ भगत सिंह, अचानक तो नहीं बदलने लगी है दुनिया : कविता

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ओ भगत सिंह, अचानक तो नहीं बदलने लगी है दुनिया यह अचानक तो नहीं हुआ कि बदल गया इतना सब कुछ बदल गया रंग धरती और आकाश का पहाड़ों की चोटियों पर जमी बर्फ पिघल कर बहने लगी नदी-तालाबों का पानी बगुले सा चमकने लगा यह अचानक तो नहीं हुआ कि तेज हवा का झोंका आया और उड़ गए सड़े-गले पत्ते दूर चली गई दीवारों के कोनों में जमी धूल और राख गायब हो गई अलगनी पर पसरीं मैली चादरें यह अचानक तो नहीं हुआ कि तेज बारिश से भर गए बड़े-बड़े गड्ढे टूटने लगे तटबंध ढहने लगे आडंबरों के पवित्र महल गिरने लगीं साम्राज्य की अट्टालिकाएं कीचड़ में सनने लगा तिजोरियों में भरा धन नालों में बहने लगा त्वचा का गोरा रंग और घनी मूंछों का अभिमान सच, यह सब अचानक नहीं हुआ भगत सिंह जब तुमने लिखना और बोलना शुरू किया तब बदलने लगी दुनिया तुम्हें जानने के बाद तेज होने लगी इंकलाबी तलवार की धार भारी भरकम बूटों के तले रौंदी जाती गरदन की नसों में दौड़ने लगा गर्म लहू निस्तेज आँखों में भर गए सपने भींच गई खुली हुई मुट्ठियाँ खुल गए सिले हुए होंठ और मुख से निकल पड़ा: इन्कलाब जिंदाबाद! --- गुलज़ार हुसैन

भगत सिंह का सपना

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नई पीढ़ी के लिए आज़ाद देश का जो सपना भगत सिंह (Bhagat Singh) और उनके सहयोगी क्रांतिकारियों ने देखा था, वो अभी पूरा होना बाक़ी है। आज भी देश के किसी कोने में जब साम्प्रदायिक या जातीय दंगे भड़क उठते हैं या प्रांतवाद के नाम पर गरीब मजदूरों को धक्के मार कर भगाया जाता है ...या किसी गावों-कस्बों में शादी -ब्याह के भोज में दलितों की पंक्ति अलग रखी जाती है ...या दहेज के लिए किसी की बहन-बेटी जलाई जाती है, तब हमें भगत सिंह की जरूरत महसूस होती है ...भगत सिंह के विचार अब भी प्रासंगिक हैं।  आज शहीद दिवस के दिन हमारा महानगर अखबार के मेरे कॉलम 'प्रतिध्वनि' में छपा एक आलेख आपके सामने प्रस्तुत है।  

शमीमा हुसैन की लघुकथा : बड़े घर का सपना

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ऐसा भी होगा, यह कभी रुकैया ने सोचा नहीं था।  Photo by Marina Vitale on Unsplash रुकैया अपने चाल की भारी बाई थी। उसका पूरे चॉल में हुक्म चलता था। उसकी मां ने शादी के समय उसे एक खोली और पांच तोले सोने दिए थे। इससे उसकी जिंदगी बड़े शान से चल रही थीं। उसके पास अपनी खोली थी। पानी के लिए दो-दो नल थे। वहां की दूसरी औरतें भी उसके नल से पानी भरती थी। उसके बच्चे म्युनिस्पिलीटी के स्कूल में पढ़ते थे। उसकी जिंदगी सुकून से कट रही थी। लेकिन छह, सात महीने से रुकैया के दिमाग में एक बात घूम रही थी। हर बात में वह कहती, ''मेरी खोली छोटी है।''  वह कुछ दिनों  से बार-बार यही बोल रही थी।  एक दिन वह सिल्वर फिश खरीद रही थी। उसी समय एक खनक वाली आवाज ने उसे चौंका दिया।  ''मच्छी कैसे?''  रुकैया ने पलट कर देखा। वह नाहिदा थी। ''अरे, नाहिदा तुम। कैसी हो? कहां हो आजकल?''  ''अरे बाबा सांस तो ले ले, फिर बता रही हूं। मैं खैरियत से हूं। तुमने क्या सोचा, कोरोना से मैं मर गई?''  मुस्कुराते हुए नाहिदा ने रुकैया से कहा।  ''अरे नहीं नाहिदा।'' रुकैय...

शमीमा हुसैन की लघुकथा : ओ रेसलर

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Photo by fariba gh on Unsplash बीना बहुत देर से मूर्ति की तरह बैठी थी। उसकी आंखों के सामने मानो सिनेमा की तरह दृश्य आ-जा रहे थे। उसे यह यादों का सिनेमा बहुत ही अच्छा लग रहा था। उसे इस सिनेमा में एक छोटी लड़की दिखाई देती है। वह लड़की लाल लहंगा पहने हुए, लाल बिंदी लगाकर और लाल सैंडल पहनकर खूब खुश है। सिनेमा में एक लंबी छरहरी महिला भी आती है। उसके बोलने की अदा से बीना समझ जाती है। वह मां है। मां आती हैं और बोलती है, ''हर पार्टी- त्योहार, फंक्शन, शादी सब दिन सभी कार्यक्रम में यही लाल लहंगा और यही लाल बिंदी पहनती हो।''  मां गुस्से में है, ''तुम्हारे पास पीला और ब्लू लहंगा भी है, वह क्यों नहीं पहनती हो।''  मां अपने बाल में जोर-जोर से कंघी करने लगती है। इस दृश्य में पापा भी हैं। वह चिल्लाकर बोलते हैं, ''जल्दी चलो। चलना है कि नहीं। देर करोगी तो शादी समारोह खत्म हो जाएगा।'  मां तुरंत जवाब देती है, ''हां आती हूं। इस लड़की को समझाकर हार गई हूं।''  बीना को सजना-संवरना बहुत पसंद था। बिना जब तीसरी क्लास में गई, तो वह अचानक बदल गई। उसने सजन...

लघुकथा : उसकी पीठ की धारियां

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Photo by  Aaron Burden  on  Unsplash उसने जिस दिन अपनी पीठ दिखाई थी, उस दिन हम फिर से स्कूल की पीछे छूट गई दुनिया में लौटने लगे. उसकी पीठ पर जेब्रा के शरीर की तरह धारियां थीं. पूरी पीठ धारियों से भरी थी. ये धारियां हल्की थीं, लेकिन स्थायी थीं. ये धारियां उसे स्कूल के किसी भयावह दिन में ले गईं. वह मेरी ओर बिना देखे बोलता रहा और मैं आश्चर्य से उसके चेहरे को पढ़ता रहा. यह उन दिनों की बात थी जब हम दोनों आठवीं कक्षा में थे. किसी दिन उसने अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया था. शायद इतनी सी ही बात थी या इससे भी छोटी कोई वजह. अंग्रेजी का वह शिक्षक उस दिन किसी निर्दयी हमलावर में तब्दील हो गया था. मजबूत छड़ी से शिक्षक ने उसकी पीठ पर वार करना शुरू किया. वह चीख रहा था ...गिड़गिड़ा रहा था, लेकिन उसने एक नहीं सुनी. वह तबतक उसे पीटता रहा जब तक उसकी शर्ट खून से लाल नहीं हो गई. टिफिन की घंटी बजी, तो छड़ी थम गई, लेकिन उसकी सिसकियाँ नहीं थमीं. मैं दूसरे सेक्शन में था इसलिए मुझे कुछ पता नहीं था.  'लेकिन तुमने उसका विरोध क्यों नहीं किया?' मैंने पानी का गिलास अपने होंठों से लगाते हुए कहा.  ...