गुलज़ार हुसैन की कविताएं आपका चैन छीन सकती हैं : पंकज चौधरी
![]() |
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित गुलजार हुसैन की पुस्तक |
पंकज चौधरी
"एक अच्छी कविता वह है
जिसे पढ़ते हुए कोई रो दे
लेकिन उससे भी अच्छी कविता वह है
जिसे पढ़ते हुए
मन कुछ बेहतर करने की तड़प से भर जाए।"
उपर्युक्त काव्य पंक्तियां प्रखर कवि-पत्रकार गुलजार हुसैन की हैं। गुलजार की कविताएं हमें प्रेरित करती हैं। वे हमें जगाने का काम करती हैं। वे उन योद्धाओं में जज्बा भरने का काम करती हैं जो असफल, हताश और निराश होकर बैठ जाना चाहते हैं। वे कुंवर नारायण के शब्दों में कहना चाहती हैं कि हारा वही जो लड़ा नहीं। ये उनकी कविताएं हैं जो किसी भी बाधा, अड़चन, मुश्किल और चुनौती में रुका नहीं।
सवाल यह पैदा होता है कि जो कवि इतनी हिम्मत, बहादुरी, धैर्य और दूर-दृष्टि से लैस होने की बात अपनी कविता में करता है, आखिर उसका राज क्या है? इसका जवाब है कि गुलजार का जन्म एक अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ। मजदूरी करके पढ़ाई-लिखाई की। नौकरी की तलाश में मुंबई जैसे महानगर पहुंचे। वहां भी कुछ दिनों तक मजदूरी की। ट्यूशन पढ़ाया। स्कूलों में नौकरी की। छोटी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की। उनके संपादकीय विभागों में वर्षों तक काम किया। अंत में यानी पिछले कुछ वर्षों से नवभारत टाइम्स में वरिष्ठ संपादकीयकर्मी के रूप में काम कर रहे हैं। इस दौरान उन्हें कितनी जलालत, अपमान, उपेक्षा, अन्याय, शोषण, भूखमरी झेलनी पड़ी, उसकी एक लंबी-चौड़ी कहानी है। अपने दुर्धर्ष संघर्ष पर गुलजार उपन्यास भी लिख रहे हैं। इतना कुछ होने के बावजूद गुलजार ने हार नहीं मानी और कमजोर होने की बजाय वे और फौलाद होते गए। गालिब ने कहा है- "मुश्किलें पड़ीं इतनी कि सब कुछ आसां हो गया।" गुलजार का परिवेश और उसके जीवन संघर्ष ने उसे ऐसा फौलादी बना दिया कि उसके हाथ जीने का सूत्र लग गया और वह जीने की राह बतलाने लगा। प्रकृति प्रतिकूल और विषम माहौल के लिए उसी को चुनती है जिसमें उससे लड़ने का माद्या हो और वह समाज के लिए एक नजीर बनकर पैदा हो सके।
संघर्षशील लोग गुलजार की कविताओं में यह संदेश देते प्रतीत होते हैं कि उन्हें संघर्ष करने की ऊर्जा और प्रेरणा उनके पुरखों से मिली है। उनके खून में सैकड़ों-हजारों वर्षों का जो संघर्ष है। उन्हें विरासत में संघर्ष मिला है और उन्हें जो कुछ भी हासिल होगा लड़कर हासिल होगा-
‘‘वे तालाबों के निकट भी ठंडे पानी की तलाश में भटकते हैं
जिनके पानी का रंग लाल हो गया है
उनके अपनों के खून से
वे फिर से आशियाना बनाने के लिए
उन्हीं पेड़ों पर मंडराते हैं
तिनके ले-लेकर जिन पेड़ों की शाखाओं पर
उन्हें पकड़ने के लिए जाले लगा दिए गए हैं।"
गुलजार की कविताएं सदैव उनके साथ हैं जिनका संघर्ष अंतहीन है और वे अपना जमीर नहीं बेचते। गुलजार के पास उनकी प्रतिभा और काबिलियत को पहचानने और उसे सराहने की सलाहियत भी है। वह मुंबई के एक ऐसे बूढ़े चित्रकार पर कविता लिखता है जिसकी दाढ़ी एमएफ हुसैन से भी घनी है। लेकिन उसकी आंखें इस इंतजार में पथरा गईं कि उसके चित्रों की एकल प्रदर्शनी कभी नहीं लगी। गुलजार ऐसे असाधारण चित्रकार को पहचानते हुए कहते हैं-
"उसकी एक कृति मुझे अभी भी याद है
जिसमें कसाई के चाकू उठाने से पहले ही
एक बकरा अपना गला सौंप चुका है
आंखें बंद किए हुए।"
इस देश में सबसे ज्यादा पीड़ित दलित हैं। दलितों से भी ज्यादा पीड़ित महिलाएं हैं और महिलाओं से भी ज्यादा पीड़ित अल्पसंख्यक हैं। इसका सबूत अल्पसंख्यकों के प्रति दिन-प्रतिदिन बढ़ती घटनाएं हैं। इसके बावजूद उसकी सुरक्षा और संरक्षा को लेकर अघोषित रूप से पाबंदी और प्रतिबंध है। ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है कि हरेक अल्पसंख्यक पाकिस्तानी है और हिंदुस्तान का दुश्मन है। आश्चर्य तो यह है कि 15-20 प्रतिशत की आबादी को 80-85 प्रतिशत की आबादी के लिए खतरा बताया जा रहा है। कवि गुलज़ार की संचित पीड़ा, वेदना और आंसू छलक पड़ते हैं-
"वह चीख-चीखकर पूछना चाहता था अपना अपराध
लेकिन गूंजते शोर में किसी दम तोड़ते पंछी की तरह
वह केवल हिचकी ले पा रहा था
भीड़ लाठियां बरसाती हुई अट्टहास कर रही थी
मारो-मारो इस पशु तस्कर को
और वह कहना चाह रहा था कि इस गाछी के पार उसका घर है
कि उसकी अम्मा उसका इंतजार कर रही है
काली चाय चूल्हे पर चढ़ाकर कि अकबर आएगा
तो साथ में पिऊंगी चाय
कि घरों के आगे खेल रहे बच्चे देख रहे हैं राह
अपने अब्बा का जो लेकर आएंगे उनके लिए चॉकलेट
कि वह कहना चाहता था कि
अपने गांव का आदमी तस्कर कैसे हो सकता है
लेकिन सूखकर पपड़ाए उसके होंठों का हिलना बंद हो रहा था
और आंखें मूंदने से पहले
उसने देखा था खाकी वर्दी वाले की आंखों में
जहां रत्तीभर भी नमी नहीं थी उसके लिए।"
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशंस से प्रकाशित इस काव्य संग्रह में न तो कोई ब्लर्ब लिखा मिलता है और न ही कोई भूमिका। जबकि गुलजार इस संग्रह को लाने की तैयारी और चर्चा वर्षों से करते आ रहे थे। क्या मैं यह मानकर चलूं कि संग्रह की कविताओं के ताप, तेवर और तासीर को महसूस करने और देखने के बाद कोई भी तथाकथित स्वनामधन्य कवि, आलोचक इसका ब्लर्ब या भूमिका लिखने की जहमत नहीं उठा सका? या लिखने के लिए तैयार भी हुआ होगा, तो उसे आज-कल पर टालता चला गया होगा?
संग्रह में मणिपुर, लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार, सीवर में उतरे नौजवान, हाथरस की बेटी, झूलतो पुल, कोरोना और चांदनी रात का जख्म जैसी मार्मिक तथा दिल और दिमाग को सुन्न कर देने वाली कविताएं भी हैं। इन कविताओं की अंतर्वस्तु और व्याप्ति बहुत दूर-दूर और देर तलक पसरती रहती हैं। ये कविताएं आपका चैन और नींद छीन सकती हैं। मुंबई में रहनेवाले कवि गुलज़ार हुसैन मुंबई के भी कई जीवंत चित्र खींचते हैं। गुलज़ार के कवि की संपूर्णता, विविधता और सौंदर्यबोध उनकी प्रेम कविताओं में भी देखा जा सकता है-
"तुम्हारी एक पासपोर्ट साइज तस्वीर है मेरे पास
जिसमें तुम्हारी आंखें मंडराते बादलों को देख रही हैं
तुम्हारे कुछ खत हैं जिनमें से किसी एक में
एक साथ ताजमहल देखने जाने का वादा है
और इन सबसे बढ़कर तुम्हारी वो हंसी है
जो इस बाग में
गुलमोहर के हिलते फूलों संग
यहां से वहां तक फैल रही है
अब मैं यह कैसे कह सकता हूं
कि तुम यहां नहीं हो।"
अभी हिंदी में एक साथ कई मुस्लिम युवा कवि सक्रिय हैं जो अपनी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं का परिचय दे रहे हैं। लेकिन वह कौन-सी साजिश है कि उनमें से किसी एक को टोकन के तौर पर उठा लिया जाता है और उसी को बार-बार रेखांकित किया जाता रहता है। साथ ही यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि हिंदी में मुस्लिम कवियों का प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है। क्या यहां सब कुछ गोलमाल है?
गुलज़ार भाई को एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कविता संग्रह के लिए बहुत प्यार। शुभकामनाएं बारंबार कि उनकी कविताएं इसी तरह 'लोहे की पीठ' बनती रहे।
अंत में पाब्लो नेरुदा को याद करना चाहूंगा-
"तुम सारे फूलों को कुचल सकते हो
लेकिन वसंत का आना नहीं रोक सकते।"
Comments
Post a Comment