न्याय पाने की तड़प से भरी हैं निर्मला गर्ग की कविताएं

 

निर्मला गर्ग का कविता संग्रह 'अनिश्चय के गहरे धुएं में'

मैंने उनसे जब भी बात की, उन्हें देश के वंचित जनों की चिंता-फिक्र में पाया ...देश में माइनॉरिटी, दलित, आदिवासी की लगातार पिछड़ती आर्थिक-सामाजिक स्थिति को कैसे ठीक किया जाए, इस पर विचार-विमर्श करते पाया।

...हां, निर्मला गर्ग के व्यक्तित्व को और एक कवयित्री के रूप में उनके चिंतन को उनसे बातें करते हुए मैं जितना समझ पाया, उससे यही लगा कि इस कवयित्री की लिखी हर पंक्ति इस देश को और बेहतर बनाने की एक ठोस पहल है।
इस साल निर्मला गर्ग का काव्य संग्रह 'अनिश्चय के गहरे धुएं में' पढ़ने का मौका मिला। इस संग्रह को पढ़ने के बाद सबसे पहले जो बात मेरे मन में आई, वह यही आई कि इस संग्रह की कविताएं सम्मोहित नहीं करतीं, बल्कि न्याय पाने की तड़प और बेचैनी से भर देती हैं। दरअसल, ये कविताएं जुल्म के प्रतिकार और अस्वीकार की कविताएं हैं। फासिस्टों से लड़ने वालों के लिए समर्पित इस काव्य संग्रह की कविताएं मानवता को बचाए रखने के प्रयासों को शिद्दत से रेखांकित करती चलती हैं।
इस संग्रह में 'ईश्वर : कुछ कविताएं' में उनकी शुरुआती पंक्तियां देखिए-
ईश्वर ने खैरियत पूछी
मैंने कहा : रोटी चाहिए सबको
वह मौन रहा
मैंने कहा: न्याय चाहिए सबको
वह फिर मौन रहा
मैंने कहा : कविता चाहिए सबको
उसके माथे पर बल पड़ गए
इन पंक्तियों से ही इस संग्रह के तेवर का अनुमान आप लगा सकते हैं। नए शिल्प में गढ़ी कविताएं गर्ग के चिंतन को एक नए तरीके से सामने लातीं हैं। वंचित जनता को लेकर जो उनकी जरूरी चिंता रही है, वह चिंता ईश्वर और सत्ता से पुरजोर सवाल करती हैं। इस संग्रह की कविताओं में वर्तमान परिदृश्य को बखूबी पकड़ा गया है। सांप्रदायिकता से जूझ रहे माइनॉरिटी और युद्ध के खतरों से लेकर खेत में पसीना बहाने वाले किसानों तक उनकी गहरी दृष्टि गई है। 'बीसवीं सदी के कैलेंडर में' नामक कविता इतिहास के पन्नों पर दर्ज नरसंहार के धब्बे की याद दिलाती है। वहीं, 'सनकी तानाशाहों का समय' कविता युद्ध के विनाश से सचेत करती है। 'गन्ने मिल और बुग्गियां' समस्याओं में घिरते आज के किसानों की व्यथा को सामने लाती है।
'तबरेज' नामक कविता में वे बदलते समाज में उग आए सांप्रदायिकता के कांटों को चिन्हित करती हुईं करारा व्यंग्य करती हैं-
तबरेज के साथ क्या हुआ
हम क्या जानें?
कुछ न कुछ होता ही रहता है यहां
इस संग्रह का जादू ऐसा है कि कविताएं पढ़नी शुरू करने पर उसे आप पूरा पढ़ने से खुद को रोक नहीं सकते। संग्रह की कविताएं एक के बाद एक जरूरी सवाल उठाती हैं।
'कलावादी का प्रलाप' कविता आत्ममुग्ध कवियों की कलई खोलती है। इसके अलावा 'अरब के लोगों', 'तारे मेरे दोस्त', बोगनबेलिया' और लंबी कविता 'समुद्र गोवा का' सहित अन्य कविताएं मन को छू जाती हैं।
बहरहाल, यह काव्य संग्रह एक ऐसे चुभन का एहसास कराता है, जिससे यह भान होता है कि जुल्म से आंखें फेरकर चल देने का नाम जीवन नहीं है।
जुल्म का प्रतिकार करती इन कविताओं को समय मिलते ही पढ़ डालिए।

-गुलजार हुसैन


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