एक नौजवान, जिसने अपनी सारी जिंदगी बच्चों को शिक्षित करने में लगा दी

BY  GULZAR HUSSAIN

यह कहानी उस नौजवान की है, जिसने अपनी सारी जिंदगी बच्चों को शिक्षित करने में लगा दी। हां, द्यूशिन नाम था उसका। रूस के एक गांव में (जहां कोई पढ़ा-लिखा नहीं था) जब उसने बच्चों को पढ़ाने की बात कही, तो लोगों ने उसे खूब परेशान किया।

एक व्यक्ति उसे ताने मारते हुए कहने लगा- '' तू जो सारे गांव में चिल्ला चिल्लाकर कह रहा है स्कू्ल खोलूंगा, स्कूल खोलूंगा। तेरी अपनी हैसियत क्या है ...कोट तेरे तन पर नहीं, घोड़ा तेरे पास नहीं, चप्पा भर अपनी जमीन नहीं जिस पर हल चला सके...''

फिर भी द्यूशिन ने हार नहीं मानी। वह अकेले ही गांव के पास के एक पुराने अस्तबल को स्कूल बनाने में जुट गया। उसके इस मिशन में उसकी सहायक बनी एक छोटी अनाथ बच्ची आल्तीनाई।
आल्तीनाई अपनी चाची की क्रूरता भूलकर द्यूशिन को अपने चुने हुए उपले पहुंचाने लगी, ताकि उस भयानक ठंड से वह बच सके।


पुस्तक के कवर की तस्वीर 
एक बार द्यूशिन उससे कहता है- ''तो फिर आल्तीनाई, तुम और लड़कों-लड़कियों को स्कूल में लाना, लाओगी न...''
''हां बड़े भाई।''
'' मुझे मास्टर जी कहकर बुलाओ...''
इसके बाद आल्तीनाई की चाची उसे एक अधेड़ के हाथों बेच देती है, जहां से द्यूशिन उसे बचाता है।

सचमुच, रूसी साहित्यकार चंगोज आइत्मातोव के उपन्यास 'पहला अध्यापक' को पढ़ना एक इंसान को जिंदा रहने के मकसद को नजदीक से देखने जैसा है। भीष्म साहनी ने अनुवाद इस तरह किया है कि आप जब तक इसे पूरा पढ़ न लें, कोई दूसरा काम नहीं हो सकता।
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