गांधी और आंबेडकर के बीच के संवाद की खुशबू

 

शेषराव चव्हाण की किताब 
By Gulzar Hussain

स्कूल के दिनों से ही इन दोनों दिग्गज नायकों की वैचारिक पृष्ठभूमि मेरे अंदर उथल पुथल मचाती रही है...
हां, भारतीय इतिहास में महात्मा गांधी और बाबासाहेब आंबेडकर के बीच जो एक निरंतर संवाद रहा है, वह मुझे आकर्षित करता है। मेरा मन कहता है कि मुसीबत में फंसे इस देश की अगली राह भी इन्हीं दोनों के वैचारिक मंथन की खुशबू से मिलेगी।

निस्संदेह दोनों के महान कार्यों और आपसी सहमतियों-असहमतियों के मुद्दे झकझोरने वाले रहे हैं, इसलिए हमेशा मुझे इन दोनों के तुलनात्मक अध्ययन या समकालीन कार्यों पर सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर किताब की तलाश रही है। इन दोनों पर कई किताबें पढ़ीं, लेकिन न जाने क्यों अक्सर लगा है कि अभी इन दोनों को लेकर बहुत कुछ लिखा जाना शेष है।
पिछले साल जब शेषराव चव्हाण की यह किताब हाथ लगी, तो अपनी उत्सुकता और बढ़ गई कि लेखक ने दो महान व्यक्तित्त्वों को कैसे एक ही साथ साधा है। इस किताब में लेखक ने दोनों के देश के लिए किये उल्लेखनीय योगदानों को बहुत सटीक ढंग से पेश किया है, लेकिन इन दोनों के चुभते हुए संवाद को लेकर विस्तारित काम यहां भी नहीं मिला।

आंबेडकर जातीय भेद उन्मूलन की जो राह चाहते थे, वह काफी वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए था, जैसा कि उन्होंने 'जातिभेद का उच्छेद' नामक पुस्तक में लिखा भी है। वहीं गांधी का रास्ता थोड़ा अलग था। गांधी जातिवाद को फालतू अंग मानते थे और उन्होंने ‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा था- ‘जातपांत के बारे में मैंने बहुत बार कहा है कि आज के अर्थ में मैं जात-पांत को नहीं मानता। यह समाज का 'फालतू अंग' है और तरक्की के रास्ते में रुकावट जैसा है।’

...तो मेरी सोच इन दोनों के इसी संवाद पर टिक जाती है। इस पर खूब लिखने का मन होता है। क्योंकि यह साफ है कि दोनों के कार्यों को खूब सफलता मिली थी। गांधी के नेतृत्व में छुआछूत के विरोध में हुए आंदोलन का बड़ा प्रभाव उत्तर भारत के लोगों पर था। जगजीवन राम जैसे कई बड़े दलित नेता गांधी के साथ थे। वहीं आंबेडकर की क्रांति मानवतावादी फलक लिए हुए थी। महाराष्ट्र सहित उससे सटे राज्यों के निवासी बड़ी संख्या में उनके साथ खड़े थे और उन्हें अपना मसीहा मानते थे।

मुझे लगता है यही जो इन दोनों का विस्तृत वैचारिक फलक था, वह दक्षिणपंथी नफरती राजनीति को चुभता था। दरअसल, गांधी ज्यों ज्यों आंबेडकर के करीब जाते प्रतीत होते थे, त्यों त्यों नफरती संगठन इस कड़ी को तोड़ने की साजिश रचते थे। आतंकी गोडसे का गांधी पर कई बार किया गया हमला इसी मानवतावादी कड़ी को तोड़ने का सुनियोजित षड्यंत्र था।

दरअसल, गांधी और आंबेडकर के बीच का जारी संवाद कट्टरपंथियों के लिए भारी सिरदर्द था और है। क्योंकि कट्टरपंथी समूह यह कभी नहीं चाहता था कि वंचित जनता के हक उसे मिले।
इसलिए इस मुद्दे पर गम्भीर लेखन की जरूरत है।
इस सकारात्मक संवाद से निकली राह से ही हम भारत को बचा सकते हैं।

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