जिस मंदिर- मस्जिद की राजनीति ने सैकड़ों देशवासियों का खून पीया, फिर उसी के सहारे BJP क्‍यों है?

भाजपा जिस तरह से नोटबंदी और जीएसटी के फैसले को चुनावी मुद्दा बनाने से कतरा रही है और सारी आक्रामकता मंदिर- मस्जिद की राजनीति में झोंक रही है, उससे यह लगता है कि भाजपा के फैसले जनता के बीच पूरी तरह असफल रहे हैं। 
BY  Gulzar Hussain

भारत में शायद ही ऐसा कोई व्‍यक्ति होगा, जो यह कहे कि मंदिर- मस्जिद की राजनीति (Mandir Masjid politics) ने सैकड़ों देशवासियों की जानें नहीं ली हैं। दरअसल, 90 के दशक में भाजपा ने जो मंदिर- मस्जिद की राजनीति शुरू की उससे न केवल देशवासियों की जानें गईं, बल्कि लोगों के बीच नफरत की अदृश्‍य दीवार भी खड़ी कर दी गई, जिसके कारण लोगों में एक नई किस्‍म की सांप्रदायिक दहशत पनपने लगी।
(Symbolic Photo) Photo by Dmitry Ratushny on Unsplash
सवाल पूछा जाए, तो खुद आरएसएस और भाजपा के नेता भी इससे इनकार नहीं कर पाएंगे कि उनकी इस सबसे हिट राजनीतिक बिसात ने देशवासियों के सामने जीने का संकट खड़ा कर दिया था। 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की घटना ने न केवल भारत में, बल्कि कई पड़ोसी देशों में भी सांप्रदायिकता के बीज बो दिए।


खैर, फिलहाल मेरे चिंतन का विषय बाबरी मस्जिद विध्‍वंस की घटना नहीं, बल्कि भाजपा के फिर से मंदिर- मस्जिद की राजनीति शुरू किए जाने से संबंधित है। आखिर ऐसा क्‍या हुआ कि 'सबका साथ सबका विकास' का नारा देकर सत्‍ता में पहुंचने वाली भाजपा को फिर से मंदिर-मस्जिद की राजनीति का सहारा लेना पड़ा? भाजपा ने पिछले चार वर्षों में सत्‍ता में रहने के दौरान नोटबंदी और जीएसटी जैसे कथित दूरगामी प्रभाव वाले बड़े और कड़े फैसले किए, तो उसके लिए ये सब चुनावी मुद्दे क्‍यों नहीं बन पाए?
भाजपा ने नोटबंदी की दूसरी सालगिरह पर न कोई जश्‍न मनाया और न ही इसकी महिमा गान करते हुए चुनाव में वोट देने की अपील की। 

भाजपा जिस तरह से नोटबंदी और जीएसटी के फैसले को चुनावी मुद्दा बनाने से कतरा रही है और सारी आक्रामकता मंदिर- मस्जिद की राजनीति में झोंक रही है, उससे यह लगता है कि भाजपा के फैसले जनता के बीच पूरी तरह असफल रहे हैं। पिछले दिनों नोटबंदी के फैसले के दो साल पूरे होने पर, जिस तरह देश भर में इसका विरोध में आवाज उठी, उससे साफ जाहिर है कि नोटबंदी का दंश जनता भूली नहीं है। दूसरी तरफ भाजपा ने नोटबंदी की दूसरी सालगिरह पर न कोई जश्‍न मनाया और न ही इसकी महिमा गान करते हुए चुनाव में वोट देने की अपील की। कहीं न कहीं भाजपा ने भी यह संकेत दे दिया है कि उसे अपनी नोटबंदी जैसी बड़ी भूल का एहसास है।


कायदे से भाजपा ने जिस कारण नोटबंदी की थी, उसके अनुसार तो भाजपा को अब ऐसी होर्डिंग्‍स लगानी चाहिए, जिनमें 'नोटबंदी से जनता का हुआ कल्‍याण' या 'नोटबंदी से आया काला धन' जैसे स्‍लोगन होंं। लेकिन अपने इस बड़े कार्य का श्रेय लेते खुद भाजपा ही हिचक रही है, जिससे संकेत जाता है कि भाजपा इससे मुंह छुपा के भाग रही है। मध्‍य प्रदेश और राजस्‍थान में होने वाले चुनाव प्रचार में भी भाजपा नोटबंदी और जीएसटी के नाम पर वोट नहीं मांग रही है। यह सब क्‍या है? क्‍या इससे पता नहीं चलता कि भाजपा अपनी असफलता पर पर्दा डालने के लिए ही मंदिर- मस्जिद की राजनीति को फिर से कंधे में ढोने को मजबूर हो गई है।
इधर, भाजपा ने अपने सारे नेताओं- कार्यकर्ताओं और टीवी पर बोलने वाले प्रवक्‍ताओं को यह निर्देश दे दिए हैं कि उन्‍हें सारा खेल मंदिर- मस्जिद पर ही खेलना है। कई राजनीतिक विश्‍लेषक यह मानकर चल रहे हैं कि भाजपा अब अपने असली रूप में है।
पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी ने कहा है कि ज़रूरत पड़ी तो वे 1992 की तरह आंदोलन करने सड़कों पर उतर जाएंगे। इससे साफ है कि इस मंदिर- मंस्जिद की राजनीति (Ramjanmabhoomi-Babri Masjid  dispute) की फिर से हुई शुरुआत अनायास नहीं हैं, बल्कि यह संघ- भाजपा की सोची समझी राजनीति है। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट में 29 अक्टूबर को मंदिर मामले पर सुनवाई थी, लेकिन कोर्ट ने सुनवाई जनवरी, 2019 तक टाल दी है। इधर, भाजपा ने अपने सारे नेताओं- कार्यकर्ताओं और टीवी पर बोलने वाले प्रवक्‍ताओं को यह निर्देश दे दिए हैं कि उन्‍हें सारा खेल मंदिर- मस्जिद पर ही खेलना है। कई राजनीतिक विश्‍लेषक यह मानकर चल रहे हैं कि भाजपा अब अपने असली रूप में है। यह सबसे खतरनाक है।
चाहे वह रोहित वेमुला की सांस्‍थानिक हत्‍या की घटना रही हो, संघ- भाजपा के नेताओं की ओर से संविधान का अपमान करने की घटना रही हो, भीमा कोरेगांव का मुद्दा रहा हो या ऊना में हमले की घटना रही हो, इन सबसे वंचित जातियों में भाजपा को लेकर एक गंभीर अविश्‍वास पनपा ही है।

यह भी साफ है कि भाजपा की नीतियों से किसान और वंचित जातियां बेहद नाराज रही हैं। चाहे वह रोहित वेमुला की सांस्‍थानिक हत्‍या की घटना रही हो, संघ- भाजपा के नेताओं की ओर से संविधान का अपमान करने की घटना रही हो, भीमा कोरेगांव का मुद्दा रहा हो या ऊना में हमले की घटना रही हो, इन सबसे वंचित जातियों में भाजपा को लेकर एक गंभीर अविश्‍वास पनपा ही है। ज्ञात हो कि भाजपा के एक मंत्री हेगड़े ने खुले तौर पर कहा था कि हम संविधान बदलने आए हैं, लेकिन इसके बावजूद भाजपा से उन्‍हें निकाला नहीं गया।


इन सबके अलावा हाल ही में राफेल, सीबीआई में घमासान और आरबीआई से टकराहट के मुद्दे को लेकर भाजपा की भरपूर फजीहत हुई है, जिससे 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक उसका उबरना आसान नहीं लगता है। दरअसल भाजपा अपने ही बनाए जाल में उलझकर इस कदर लड़खड़ा रही है कि उसके पास मंदिर- मस्जिद (Politics) के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। 



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