घास : लघुकथा

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शमीमा हुसैन


बारिश खूब तेज है। मई का आखरी दिन है। आम, लीची पककर बाजार में आ गए हैं।
 
फरमान साहब की दो गाये हैं। दोनों बच्चावाली हैं। बेचारा बूढ़ा फरमान आसमान की तरफ देख रहा है कि कब बारिश रुके। वह बार-बार सर को खुजा रहा है। गाय के नाद में देखता और फिर कुट्टी को देखता है। उसकी  बेचैनी खटिया पर बैठी बुढ़िया देख रही थी। उसे रहा नहीं गया। गुस्से से भरकर बोली, ''आराम से बैठ ...बारिश है तूफानी ...जो घास-भूसा है उहे रहने दे।''

बूढ़ा तुनककर बोला, ''हफीज के माई, तुमको कुछ दिखाई नहीं देता है। दोनों अल्माती गाय है। इसे घास मिलना जरूरी है। बहू भी गुस्सा जतई, हम ई बारिश में ही घास काटे चल जबई।''

दो गाये हैं। दूध बेच कर जो भी पैसा होता है उसकी बहू के हाथ में जाता है। 

मेरी शादी के पांच साल हो गए। आज तक चाची को कुछ खरीदते हुए नहीं देखा? जबकि मुहल्ले में रोज बेचने वाला आता है। लाई, मिठाई वाला, आम, अंगूर, केला, सभी फल वाला आता है। पर उनके मुंह पर एक पीड़ा दिखती है। पर मैं क्या करूं पड़ोस की बहू हूं।

फरमान साहब जूट मील में नौकरी करते थे। अब रिटायर हैं। पेंशन भी बेटा-बहू ही उठा कर ले आते हैं। बेटा का दिन बीत जाता मुहल्ले की लड़कियों और औरतों को ताड़ते हुए। बूढ़ा बेचारा गाय पाल कर भी दे रहा है और अपना पेंशन भी। उसके घर में जो भी होता सब दिखाई पड़ता है सुनाई पड़ता है।

अभी कल ही की बात है। घास लेकर ग्यारह बजे आए चाचा। खाने के लिए बैठे। रोटी-दाल दिया उसकी बहू ने। चाची भी थी। चाची ने टोकते हुए कहा, ''तरकारी दहिन।''

बूढ़ा खाना की तरफ देख कर बोला, ''दूध है क्या?''

बहू हाथ नचाते हुए किचन से आई। बोली, ''तरकारी ख़त्म हो गई है। दूध भी नहीं है।''

चाचा कुछ देर रुक कर बोले, ''बहू, तनी मिट्ठा (गुड़) हौ त दे द। मिट्ठा रोटी खा लेबई''

बहू ने मिट्ठा का एक ढेला प्लेट में लाकर रख दिया।

यह देख मेरा मन कुछ बैचेन हो गया। इंसान अपने ही औलाद के हाथों कितना दुख पाता है।

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