मोहम्मद रफी, रेडियो और कविता
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जब मैं बच्चा था, तब मेरे घर में एक मर्फी का रेडियो था। बाबा बड़ी तन्मयता से उस पर आने वाले समाचार और संगीत प्रोग्राम सुनते। उन दिनों संगीत कार्यक्रमों में जो एक गायक राज करता था, उसका नाम था मोहम्मद रफी।
उनके गाने जब शुरू होते, तो मैं भी रेडियो से चिपक जाता। परिणाम यह हुआ कि पाठ्यक्रम में शामिल कविताओं के साथ साथ ये गाने भी मुझे कंठस्थ हो गए...
मीठी आवाज़ वाले इस गायक के गले से जैसे जीवनदायिनी शीतल हवा के फैलने का एहसास होता...
"...जाने वालों जरा, मुड़ के देखो मुझे, एक इंसान हूं, मैं तुम्हारी तरह"
"ये जिंदगी के मेले ...दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे..."
"चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना.."
"परदेसियों से न अंखियां मिलाना..."
ऐसे न जाने कितने गाने ...जो मेरे जीवन में घुलमिल गए...न जाने कितनी कविताओं की प्रेरणा बने...
सच...वे इंसानियत, प्रेम और भाईचारे की आवाज़ थे...
उनके जन्मदिन ( 24 Dec) पर उनकी स्मृति को सलाम!
-गुलजार हुसैन
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