मुंबई में बारिश शुरू हो गई है। रिमझिम फुहारों से सड़कें चमकने लगी हैं। बच्चे छतरी लेकर घरों से बाहर निकलने लगे हैं। आपके लिए इन दृश्यों को मैंने कैमरे में कैद किया है। देखिए-
Meta AI Image by Shamima Hussain लघुकथा : शमीमा हुसैन आज जुलाई की बारह तारीख है। कल से झमाझम बारिश हो रही है। फिजा कल काम से आई और सीधे बिस्तर पकड़ ली। माँ ने उसे रात को नौ बजे खाने के लिए उठाया। फिजा ने करवट बदलते हुए आंखें खोली और माँ की ओर देखते हुए कहा, ''मैं थोड़ी देर में आती हूं।'' आधा घंटा हो गया, पर फिजा खाने के लिए नहीं आई। माँ फिर आई और कहा, ''चलो फिजा खाना खा लो।'' फिजा ने आंखें मलते हुए कहा, ''हां अम्मी, भूख तो जोरों की लगी है। चलो।'' फिजा दुपट्टा उठा कर चलने लगी। वह मुश्किल से दो कदम ही चली होगी कि उसे चक्कर आया और वह नीचे बैठ गई। ''अरे क्या हुआ तुझे?'' मां ने उसे झुककर उसे संभालते हुए पूछा। फिजा ने उसके चेहरे की ओर देखा। ''सुन, तू कल छुट्टी ले ले और आराम कर ले। थक जाती है।'' मां ने उसे उठाते हुए कहा। फिजा ने खाते हुए सोचा कि चार, पांच दिन पहले से ही उसे पीरियड आने की तकलीफ शुरू हो जाती है। चक्कर आने से पूरे बदन में दर्द और दोनों पिंडलियों में टेटनी होने लगती है। आज भी ऐसा ही हाल था उ...
सेतु प्रकाशन से प्रकाशित पंकज चौधरी का कविता संग्रह गुलज़ार हुसैन बहुत पहले जब मैं पटना में पंकज चौधरी से मिला था, तब मैं कभी उनके टेबल पर अधखुली रखी मोटी सी फैज की किताब की ओर देखता था और कभी उनके चेहरे की ओर देखता था ...उस दिन वे जातिवाद, सांप्रदायिकता और स्त्री विरोधी मर्दवाद की जमकर धज्जियां उड़ा रहे थे। उनके बोलने का अंदाज ऐसा था कि उस दिन मैंने यह समझ लिया था कि यह कवि जब भी कलम उठाएगा, तो दुर्व्यवस्था और नाइंसाफी के खिलाफ मशाल ही जलाएगा। आज जब हाल ही में प्रकाशित उनके दूसरे काव्य संग्रह 'किस-किस से लड़ोगे' को पढ़कर उठा हूं, तो मेरी सोची हर बात सही साबित होती लग रही है। आज यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों के अलावा दूसरे राज्यों में भी चुनाव प्रछन्न रूप से जातिवाद और सांप्रदायिक मुद्दों पर ही हो रहे हैं, लेकिन साथ ही हकीकत यह भी है कि जातिवाद जैसी खतरनाक सियासी हथियारों के खिलाफ साहित्य जगत में एक सन्नाटा सा पसरा है। ऐसे समय में 'किस-किस से लड़ोगे' काव्य संग्रह वर्तमान परिदृश्य में साहित्यिक-क्रांति की शुरूआत की तरह सामने आई है। मैं इस संग्रह को प...
- गुलज़ार हुसैन कहानी और उपन्यास की दुनिया भले ही प्रेमचंद युग से काफी आगे निकल गई है ...बहुत बदल भी गई है, लेकिन प्रेमचंद अब भी प्रासंगिक हैं। गरीब किसानों,मजदूरों और गांवों के दबे-कुचले लोगों के दुख -दर्द को जितनी गहराई से प्रेमचंद ने उठाया,उस तरह उनके समकालीन और उनके बाद के साहित्यकार नहीं उठा सके। सच तो यह भी है कि प्रेमचंद के नक्शे-कदम पर चलने वाले साहित्यकार भी उनकी लेखनी सा प्रभाव और जनप्रिय शैली नहीं पा सके। गरीब किसानों की समस्या को समझने और गांवों में दलितों -पिछड़ों के दैनिक संघर्षों को बेहद संवेदनात्मक तरीके से उजागर करने की अद्भुत कला प्रेमचंद के पास थी। वे खेतिहर मजदूरों के संघर्षों के साथ ह...
वाह बेहद खूबसूरत
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