By Gulzar Hussain
सबसे पहले सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule, 3 January 1831– 10 March 1897) ने ही भारतीय स्त्रियों की राह में बिखरे अशिक्षा के नुकीले कांटों को हटाया था। वह पहली महिला शिक्षक थीं, लेकिन एक साजिश के तहत उनके उल्लेखनीय योगदानों की जानकारी को लंबे समय तक जनता के बीच नहीं आने दिया गया। उत्तर भारत में तो स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में इनके किए गए महान कार्यों के बारे में छात्रों को भी ठीक से नहीं बताया गया। ऐसा क्यों हुआ, यह एक गंभीर अध्ययन का विषय है।
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सावित्रीबाई फुले |
ताकतवर जातीय समूहों ने किया था विरोध
गौरतलब है कि ब्रिटिश कालीन भारत में ताकतवार जातीय समूहों ने समस्त ज्ञान पर नियंत्रण कर स्त्रियों के सामने अशिक्षा की मजबूत बेड़ियां डाल रखी थी। ऐसे समय में जब लड़कियों के लिए शिक्षा की बात कहना भी अपराध समझा जाता था, तब सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों को शिक्षित करना शुरू किया। ताकतवर जातीय समूहों ने इसका जोरदार विरोध भी किया, लेकिन वह नहीं रुकी। वे स्त्रियों को न केवल शिक्षित कर रही थीं, बल्कि कविताएं लिखकर विधवा विवाह का समर्थन और छुआछूत मिटाने जैसे उल्लेखनीय कार्यों के लिए भी जागरूकता फैला रही थीं।
कीचड़ फेंककर रास्ता रोकते थे
महाराष्ट्र के सातारा में जन्मी सावित्रीबाई फुले को ब्रिटिश काल के दौरान लड़कियों को शिक्षित करने के अपने सपने को पूरा करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। स्त्री शिक्षा का विरोधी ब्राह्मणवाद उनकी राह में रोड़े अटका रहा था। इस सामंती मानसिकता से भरे लोगों ने स्त्री शिक्षा न देने की कसम खाई हुई थी। सावित्रीबाई जब लड़कियों को पढ़ाने के लिए जाती थीं, तो रास्ते में कट्टर लोग उन पर कीचड़, गोबर, पत्थर फेंका करते थे। इसीलिए सावित्रीबाई एक अलग साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंचकर साड़ी बदल लेती थी। उन्हें तरह- तरह के उलाहने दिए जाते थे, लेकिन वे सच की राह पर चलती रहीं, रुकी नहीं। आखिरकार कांटों भरी राह पर चलकर सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक बनी।
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फातिमा शेख के साथ सावित्रीबाई फुले |
फातिमा शेख का सहयोग
सावित्रीबाई फुले ने पुणे में देश का पहला गर्ल्स स्कूल खोला और अपनी सहयोगी महिला फातिमा शेख (पहली मुस्लिम महिला शिक्षक) के साथ मिलकर लड़कियों की राह में बिखरे अशिक्षा के कांटों को दूर फेंककर ज्ञान की राह खोल दी। उन्होंने शिक्षा और सेवा को ही अपनी जिंदगी का लक्ष्य बनाया। उन्होंने कन्या शिशु हत्या को रोकने के लिए भी अभियान चलाया और नवजात लड़कियों की सुरक्षा के लिए आश्रम भी खोला। एक बार महामारी फैली तो, वे खुद रोगियों की सेवा करने में लग गईं थीं। आज नई पीढ़ी को उनके उल्लेखनीय कार्यों को और आगे बढ़ाने का संकल्प लेने की जरूरत है। जहां-जहां लड़कियों की राह में अशिक्षा के कांटें बचे हैं, उन्हें उठाकर दूर फेंकने की प्रेरणा हमें उनके जीवन संघर्ष से लेनी चाहिए।
उनके उल्लेखनीय कार्यों को साजिश के तहत छुपाया
मुझे अब यह महसूस होता है कि उत्तर भारत सहित अन्य क्षेत्रों के स्कूलों, कॉलेजों में सावित्रीबाई फुले के महत्वपूर्ण योगदानों के बारे में ठीक से जानकारी नहीं दी जाती रही, इसलिए बच्चे उनके बारे में नहीं जान पाए। यह सब एक साजिश के तहत हुआ ताकि सावित्रीबाई के उल्लेखनीय काम प्रकाश में नहीं आने पाएं और सामंती मानसिकता के लोग स्त्रियों में अज्ञान फैलाने के बहाने पाखंड को जिंदा रख सकें। सामंती मानसिकता के लोग यह जानते थे कि यदि स्त्री शिक्षित हो गई, तो वे गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकेंगी, जिससे उनके ब्राह्मणवादी पुरुषवाद का सर उठाए रखना मुश्किल हो जाएगा।
योगदान को नजरअंदाज करने का खेल किसका?
यह देखना भी जरूरी है कि शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान देनेवाली सावित्रीबाई फुले को जिन ताकतवर जातीय समूहों ने शुरू से ही हाशिए पर रखा, वे आज किन राजनीतिक पार्टियों में घुसे बैठे हैं? उन्हें हर हाल में पहचानना होगा, जिन्होंने सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख के शिक्षा के आलोक फैलाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा की और सावित्रीबाई के इतने बड़े योगदान को नजरअंदाज कर उन्हें लंबे समय तक इतिहास के पन्नों और पाठ्यक्रमों से दूर रखा। उन ताकतों को पहचानिए, जो चाहते रहें कि सावित्रीबाई को नई पीढ़ी याद नहीं करे। आखिर क्यों वे चाहते रहें कि लोग सावित्रीबाई को नहीं जाने? आखिर क्यों वे डरते हैं सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख के नाम से?
सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख जैसी महिलाओं से ये समाज डरता है । सावित्रीबाई फुले एक ऐसी महिला थी जिन्होंने विधवाओं के बाल कटवाने की परम्परा को चुनौती दी उन्होंने बकायदा उस समय नाईयों का एक संगठन बनाया और सभी को ऐसा करने से मना किया उस समय चालिस दिन की हड़ताल चली और बकायदा इस प्रथा पर रोक लगाई गई।इस के अलावा उन्होंने एक ऐसा आश्रम भी बनाया जिसमें कोई महिला किसी भी पुरुष से प्रेम संबंधों के तहत या फिर किसी के द्वारा जबरदस्ती घटिया कृति के कारण गर्भवति हो जाती तो उस के पास केवल एक ही रास्ता इस समाज ने छोड़ा बहिष्कार का लेकिन सावित्रीबाई फुले ने उन महिलाओं को आश्रम में रखा उन्हें शिक्षित किया और यहां तक कि आत्म निर्भर भी बनाया। ऐसे महान परिवर्तनकारी महिला को उस समय तो क्या आज भी हमारा समाज गले नहीं उतार सकता। सावित्रीबाई फुले और फातिमा दोनों ने उस आश्रम में महिलाओं के लिए समाज सुधार के बहुत से काम किए । दोनो बेहद ही अच्छी मित्र भी थी। हमारे समाज में आज भी महिलाएं उन दोनों से ताकत ले रही हैं अपनी स्थिति को और भी बेहतर बनाने के लिए।
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