कब कटेगी चौरासी: ज़ख़्म का समंदर समेटे पन्नों से गुजरना


Book cover/ File photo
By Gulzar Hussain

1984 में सिखों के खिलाफ हुए नरसंहार (1984 Sikh Genocide) का सच जानने के लिए पत्रकार जरनैल सिंह की पुस्तक 'कब कटेगी चौरासी : सिख क़त्लेआम का सच' पढ़ना जरूरी है। किसी देश में अचानक अल्पसंख्यकों के खिलाफ इतनी नफरत और हिंसा कैसे भर जाती है, इसका हृदयविदारक चित्रण इस पुस्तक में है। दंगे के दौरान दिल्ली की सड़कों पर अपमानित, प्रताड़ित और निष्प्राण होते जाते सिखों की व्यथा को जरनैल ने बहुत गहराई से रखा है। दरअसल अल्पसंख्यकों के खिलाफ ऐसे नफरत भरे खूनी खेल को देखते हुए बड़े होने वाले हर जनरैल की किताब ठीक ऐसी ही होती। जरनैल ने देखा कि एक भीड़ द्वारा कैसे किसी की पगड़ी उछाल कर अपमानित करते हुए जान ली जा रही है...उसने देखा कि कैसे बच्चों और महिलाओं को भी धर्मान्धों की भीड़ नहीं बख्श रही है।


 मैं शहर जब भी जाता तो ऐसी बस्तियों से गुजरता।  बाद में मुझे इस बात पर आश्चर्य होता कि उन खून से रंगे घरों और दुकानों में लोग अब शान्ति से कैसे रह लेते हैं? क्या उन लोगों को कभी यह तड़प नहीं होती कि इन्हीं घरों से कभी किसी को मारपीट कर भगा दिया गया है। 


दरअसल,  मेरे अन्दर भी एक जरनैल बैठा हुआ था।  मैं तब (84 में) मुजफ्फरपुर में था और छोटा था। जैसे जैसे बड़ा हुआ, वहां शहर में 1984 में सिखों पर हुए अत्याचार की घटनाएं मुझे पता चलती गईं।  मुज़फ्फरपुर से सिखों को दंगाइयों ने मारपीट कर भगा दिया था और उनकी दुकानों - मकानों पर कब्ज़ा कर लिया था।  मैं शहर जब भी जाता तो ऐसी बस्तियों से गुजरता।  बाद में मुझे इस बात पर आश्चर्य होता कि उन खून से रंगे घरों और दुकानों में लोग अब शान्ति से कैसे रह लेते हैं? क्या उन लोगों को कभी यह तड़प नहीं होती कि इन्हीं घरों से कभी किसी को मारपीट कर भगा दिया गया है। इसके बाद भी कोई गिल्ट नहीं...अफ़सोस नहीं ...दुःख नहीं...सच, अल्पसंख्यकों का जीना कितना कष्टकर होता है। अपनों को खोकर फिर से मुस्कुराते हुए जीना कोई आसान काम है क्या ?
Documentary film/ File photo/साभार 


 

जिन लोगों ने 84 के नरसंहार पर पत्रकार जरनैल सिंह की पुस्तक 'कब कटेगी चौरासी' पढ़ी है और गुजरात नरसंहार को लेकर बनी राकेश शर्मा की फ़िल्म 'फाइनल सॉल्युशन' (Final Solution) देखी है, उन्हें यह पता होगा कि किस तरह ताकतवर समूहों ने सियासत का इस्तेमाल कर वंचित समुदायों के रहन-सहन और उनसे जुड़े प्रतीकों का अपमान करते हुए कत्लेआम किया। जरनैल ने लिखा है कि कैसे दंगाइयों के झुंड आकर सिख पुरुषों की पगड़ियों और स्त्रियों के विशेष पहनावे का मजाक उड़ाते थे। ठीक इसी प्रकार गुजरात में वंचित माइनॉरिटी के गरीब लोगों की दाढ़ी, टोपी और औरतों के पहनावे को लेकर मजाक उड़ाए गए। 
कई बार यह मजाक उड़ाने का शोर किसी विमर्श का चोला पहन कर भी सामने आता है और गरीब लोगों को मुंह झुका कर चलने को मजबूर करता है। हिटलर ने भी तो यहूदियों के साथ यही सब किया था। उसने यहूदियों के रहन-सहन का इतना मजाक उड़ाया था कि वे लोग गालियां और पथराव झेलकर भी सर झुकाए 'डेथ कैम्प' की ओर बढ़ गए थे।


दरअसल, इस देश में सबसे भयानक नरसंहारों को देख चुकी वंचित जनता से जुड़े प्रतीकों का जब मजाक उड़ाया जाता है, तो मजाक उड़ाने वाला व्यक्ति भी किसी हिंसक गुंडे में तब्दील होकर अट्टहास करता प्रतीत होता है। कई बार यह मजाक उड़ाने का शोर किसी विमर्श का चोला पहन कर भी सामने आता है और गरीब लोगों को मुंह झुका कर चलने को मजबूर करता है। हिटलर ने भी तो यहूदियों के साथ यही सब किया था। उसने यहूदियों के रहन-सहन का इतना मजाक उड़ाया था कि वे लोग गालियां और पथराव झेलकर भी सर झुकाए 'डेथ कैम्प' की ओर बढ़ गए थे।

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