वे कांचा इलैया और रामचंद्र गुहा से डरते हैं या इसी बहाने लोगों को डराते हैं?

Gulzar Hussain

हाल ही में लेखक कांचा इलैया और इतिहासकार रामचंद्र गुहा को जिस तरह हाशिए पर करने की कोशिश हुई है, उससे कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। 

पिछले दिनों इलैया की पुस्‍तकों को दिल्‍ली यूनिविर्सिटी से हटाने के प्रस्‍ताव और एबीवीपी के दबाव के बाद रामचंद्र गुहा के अहमदाबाद यूनिवर्सिटी से हटने के मुद्दे पर हर तरफ चर्चा हो रही है। दरअसल लेखकों से इस तरह का व्‍यवहार यह दर्शाता है कि या तो इन लेखकों से सत्‍ताधारी ताकतें डर रही हैं, या फिर वे इसी बहाने लोगों को डराना चाहती हैं।

कांचा इलैया/ फोटो- फेसबुक से साभार


इलैया की जिन पुस्‍तकों को किसी धर्म विशेष के खिलाफ मानकर उन पर निशाना कसा जा रहा है, वे तो देश की प्रमुख समस्‍याओं को दूर करने के उद्देश्‍य से लिखी गईं हैं। इन उद्देश्‍यों में जातिवाद से मुक्ति की राह भी शामिल है। 'व्हाय आई एम नॉट अ हिंदू', गॉड एज पॉलिटिकल फिलॉसफर' और 'पोस्ट-हिंदू इंडिया' को हटाने का फैसला किया गया है, लेकिन इन्‍हें हटाने के पीछे जो तर्क दिया जा रहा है, वह बेहद कमजोर है।


यह साफ है कि किसी कट्टर राजनीतिक विचारधारा की राह में ये किताबें रोड़ा बन रही हैं। इलैया ने एक साक्षात्‍कार में कहा है कि 'गॉड एज़ पॉलिटिकल फिलॉसफर' उनकी पीएचडी थीसिस है जो छठी शताब्दी ईसापूर्व में गौतम बुद्ध के विचारों के राजनीतिक पहलुओं की पड़ताल करती हैं। इलैया पूछते हैं कि बुद्ध के राजनीतिक विचार किस तरह किसी धर्म के लिए अपमानजनक हैं? उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक 'व्हाय आई एम नॉट अ हिंदू' के बारे में कहा है कि यह पुस्‍तक दलित बहुजन संस्कृति की विस्‍तार से चर्चा करते हुए यह बताती है कि कैसे यह ब्राह्मण बनिया संस्कृति से अलग है।


वे पुस्‍तकों में अलग- अलग संस्‍कृति के खानपान, उत्पादन संस्कृति और श्रम के बारे में सोच को विस्‍तार से बताते हैं, तो यह गलत कैसे है। इसी तरह व 'पोस्ट हिंदू इंडिया' के बारे में कहते हैं कि यह पुस्‍तक आदिवासी, दलित, ओबीसी शूद्र को अपने सहज ज्ञान को लेकर उनकी सोच के बारे में जानकारी देती है। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि बुद्ध के विचार और देश में जातीय स्थिति के हालात का अवलोकन किसी खास विचारधारा को क्‍यों भयभीत कर रही है।

रामचंद्र गुहा/ फाेटो- फेसबुक से साभार
दूसरी तरफ इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने ट्वीट कर कहा है कि वे अब अहमदाबाद विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाएंगे। इसे एबीवीपी की पहल कहा जा रहा है। सोशल मीडिया पर चर्चा है कि एबीवीपी की धमकी के बाद गुहा यह कदम उठाने पर मजबूर हुए हैं। एबीवीपी गुहा के बारे में ठीक वैसी ही बातें कह रहा है, जैसी इलैया को लेकर कही गईं हैं। एबीवीपी ने भी यह कहा है कि रामचंद्र गुहा की पुस्‍तकें भारत की हिंदू संस्कृति की आलोचना करती हैं। इसके अलावा एबीवीपी ने वाइस चांसलर को पत्र लिखकर और सड़कों पर उतर कर भी विरोध जताया है।

सवाल यह उठता है कि किसी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर कैसा होगा और कौन होगा, यह एबीवीपी कैसे तय कर सकता है? धार्मिक कहे जाने वाले गांधी पर पुस्‍तकें लिखकर दुनिया भर में चर्चा पाने वाले गुहा किसी धर्म विशेष के विरोधी कैसे हैं, यह समझ में नहीं आता। यह बात तो शीशे की तरह साफ है कि आरएसएस, भाजपा और एबीवीपी जिस विचारधारा को चलाते रहे हैं, उस विचारधारा के चलते रहने की राह में इन दोनों लेखकों की पुस्‍तकें रोड़ा साबित हो रही हैं।

दोनों लेखक कट्टरता से पूर्ण रूप से मुक्त समाज का सपना देखते हुए मानवता को सबसे ऊपर मानते हैं। इलैया ताकतवर जातीय वर्चस्‍व के बहाने समाज पर हो रहे जुल्‍म को रेखांकित करते रहे हैं, इसलिए जो ताकतें वर्चस्‍वादियों के सहारे सत्‍ता पर काबिज रहना चाहती हैं, उन्‍हें इससे बेहद डर लग रहा है। दरअसल इन डरी हुई ताकतों ने लेखकों को हाशिए पर करने के बहाने जनता को एक संदेश देना चाहा है कि डरो और मुंह बंद रखो।



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