कौन बनेगा बिहार की रंग बदलती राजनीति का सफल खिलाड़ी ?


                                                                                                   - गुलज़ार हुसैन

बिहार की राजनीति में पिछले दिनों हुए बड़े उलट-फेर ने कई राजनीतिक विश्लेषकों को चक्कर में डाल दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा से अलग हो जाने के बाद अब यहां की सियासी लड़ाई का रुख भी पूरी तरह बदल गया है। बिहार की राजनीति के दिग्गज खिलाड़ियों के खेल के मायने भी बदले -बदले से लग रहे हैं। लालू यादव, रामविलास पासवान सहित कई छोटे -बड़े नेता अब वैसा  नहीं सोच रहे हैं,जैसा वे पहले सोचा करते थे। विशेष रूप से लालू यादव को अब अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उस तरह से नहीं दीख रहा है,जैसा कुछ महीने पहले दिखाई दे रहा था। नीतीश कुमार के बदले तेवर ने निस्संदेह लालू के सियासी दांव पर ही वार कर दिया है, इसलिए अब उनके बोल भी बदलते जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि लालू अब अपने सबसे बड़े सियासी दुश्मन को उस तरह हाइलाइट करके नहीं कोस सकते हैं,जैसा वे पहले करते रहे हैं। नीतीश के पीठ पर अब भाजपा का हाथ नहीं है और वे पूरी तरह भाजपाई राजनीति के खिलाफ बोलने के लिए स्वतंत्र हैं । वे ऐसा कर भी रहे हैं । अभी हाल ही में उन्होंने फिर से गुजरात के मुख्यमंत्री पर निशाना साधा है। इस बार उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से उत्तराखंड त्रासदी के मसले को लेकर व्यंग्य किया है। खैर , मेरे कहने का मतलब यह है कि अब जब नीतीश खुलकर भाजपा की नीतियों का विरोध करने उतरेंगे,तब आखिर लालू यादव क्या करेंगे? क्या लालू यादव भाजपा को हमेशा की तरह सांप्रदायिक और फासीवादी पार्टी बताकर अल्पसंख्यकों को प्रभावित कर पाएंगे। दरअसल यहीं पर बिहार की राजनीति की गाड़ी आकर फंस गई है। लालू यादव अपनी मूल राजनीति को छोड़ नहीं सकते इसलिए नियम से उन्हें पहले वाले मूड को बरकरार रखना होगा। इधर ज्यों -ज्यों लोकसभा चुनाव के दिन नजदीक आएंगे नीतीश के तेवर भी भाजपा के प्रति गरम होते जाएंगे।
मतलब साफ है कि नीतीश और लालू यादव के मुख्य निशाने पर भाजपा होगी और दोनों एक ही भाषा बोलेंगे। लेकिन सवाल यहां यह उठता है कि इससे लालू यादव आखिर नीतीश को कहां पर घेर पाएंगे? यह तो स्पष्ट है कि लालू ने जिस हथियार से नीतीश को घेरने की योजना बनाई थी, उस हथियार को नीतीश ने छीन लिया है। अब बच जाती है कांगे्रस पार्टी। तो यह भी साफ है कि लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों के लिए ही कांग्रेस सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह है। आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए दोनों ही कांग्रेस के निकट जाने का प्रयास करेंगे। ऐसा दिखाई भी दे ही रहा है। कांग्रेस ने तब नीतीश को झट से लपक लेने का प्रदर्शन करना चाहा था,जब उन्होंने मोदी को मुद्दा बनाकर भाजपा से दामन छुड़ा लिया था। ऐसी स्थिति में संभावना तो यही है कि लालू और नीतीश एक ही पटरी पर चलेंगे। लेकिन समस्या तो मुख्य प्रतिद्वंद्वी को तैयार करने की भी है। लालू यादव को भाजपा और कांग्रेस से उतना खतरा नहीं है जितना कि नीतीश बाबू से है। अब ऐसे में नीतीश को घेरना भी आसान नहीं रह गया है। लालू यादव यदि पिछड़ों,दलितों और अल्पसंख्यकों को साथ में लेकर चलेंगे तो नीतीश तो इसी तरह की राजनीति करने के संकेत दे ही चुके हैं। तो सवाल यह उठता है कि क्या दोनों के राजनीतिक मुद्दे एक समान हो गए हैं। ऐसी स्थिति में ये दोनों पहले की तरह एक दूसरे पर निशाना साधने की स्थिति में नहीं रहे हैं। लेकिन सच्चाई तो यही है कि बिहार की राजनीति में लालू और नीतीश के बीच ही मुख्य टक्कर होनी है। अब जबकि दोनों की नीतियों में कोई खास फर्क नहीं रह गया है, तब भी कुछ ऐसे मसले हैं जिसपर राजनीति की धुरी टिकी रहेगी। लालू यादव अगर बिहार के मुसलमानों की बात कर रहे हैं तो नीतीश ने अब पसमांदा मुसलमानों के मुद्दे को सामने रख दिया है। निश्चित रूप से लालू यादव को अगर इस सियासी धार में आगे तक बहना है तो उन्हें इसके आगे या इस तथ्य तक तो सोचना ही होगा। अब निस्संदेह पसमांदा मुस्लिमों के अधिकारों की बात भी बिहार की राजनीति को बहुत अधिक प्रभावित कर सकती है। तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि लालू वर्षों से जिस राजनीति के सहारे अपने पैर मजबूत किए हुए हैं ,उस राजनीति को पीछे छोड़कर नीतीश आगे निकलने की तैयारी में है। दूसरी ओर भाजपा भी नीतीश को ही सबसे अधिक कोसेगी ,इसलिए लालू यादव तो इस पॉलिटिकल वार से थोड़ा कट भी जाएगी। अब स्थिति यह हो सकती है कि नीतीश कुमार के साथ-साथ कांग्रेस भी भाजपा के खिलाफ ही ज्यादा आग उगलेगी। ऐसे में लालू यादव का रंग थोड़ा फीका जरूर पड़ सकता है, क्योंकि वे आखिर भाजपा के खिलाफ नहीं बोलेंगे,तो किसके खिलाफ बोलेंगे। यदि वे नीतीश का खुलकर विरोध करेंगे तो यह भी संदेश लोगों में जा सकता है कि वे अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की ही भाषा बोल रहे हैं। उधर कांग्रेस तो जैसे इसी तरह के किसी ध्रुवीकरण की तलाश में घात लगाए बैठी रहेगी कि कब मौका मिले और धर्मनिरपेक्षता की बात कहते हुए किसी आगे बढ़ने वाले नेता से चिपक जाएं।
बहरहाल, बिहार में राजनीतिक स्थिति एकदम से चक्कर में डाल देने वाली स्थिति पैदा करने वाली है। क्योंकि अब जो सियासी मुद्दे हैं उसके आधार पर नीतीश,लालू यादव और रामविलास एक ही राह से चल रहे हैं। हां, इन सब के बीच भाजपा और कांगे्रस का रुख ही सबसे अधिक दिलचस्पी पैदा करने वाला होगा,क्योंकि इन दोनों पार्टियों के विरोध करने और समर्थन करने से ही नए हालात पैदा हो सकते हैं।     

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