अब किसी कहर से न उजड़े बस्तियां
~ गुलज़ार हुसैन
भारत जैसे देश में प्रकृति को लेकर संवेदनशील होना बहुत जरूरी है,क्योंकि यहां विकास के नाम पर सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहे हैं। जल,जंगल और पहाड़ों को विकास के नाम पर नष्ट करने का काम तीव्र गति से किया जा रहा है। यह सब बहुत ही खतरनाक है,क्योंकि प्रकृति के साथ खिलवाड़ किए जाने का परिणाम भी बहुत भयानक हो सकता है।
उत्तराखंड में हुई भीषण तबाही ने पूरी दुनिया के सामने एक नया सवाल खड़ा कर दिया है। वह सवाल यह है कि क्या वर्तमान समय में प्राकृतिक आपदाओं पर काबू पाना संभव नहीं रह गया है? क्या ऐसे कहर के लिए आधुनिक होते इंसान का प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ही जिम्मेदार है या फिर कोई और ही वैज्ञानिक कारण है, जिससे ऐसी विपत्तियां आती हैं। यह सवाल निश्चित रूप से परेशान करनेवाला है,क्योंकि तेजी से बढ़ती आबादी ने आवासीय इलाकों ,फैक्ट्रियों,कंपनियों और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए जल,जंगल और पहाड़ से बहुत अधिक छेड़छाड़ की है। पहाड़ों को काट कर सड़कें,होटल और नगर बसाए गए हैं। जंगलों को उजाड़ कर कालोनियां बसाई गईं हैं और नदियों की धाराएं मोड़कर फैक्ट्रियों को स्थापित किया गया है। लोगों का कहना है कि मानवीय सभ्यता का विकास ऐसे ही हुआ है और आगे भी होता रहेगा। लेकिन यही तो सबसे चिंतित करने वाला मुद्दा है कि अगर ऐसी आपदाएं या कहर पर्यावरण की अनदेखी से लगातार हो रहा है ,तो भला हम विकास किस तरह कर रहे हैं?
उत्तराखंड में आए कहर से सैंकड़ों लोगों की जानें चली गईं हैं और हजारों लोग लापता बताए जा रहे हैं। यह बहुत भयानक त्रासदी है। इससे कई बस्तियां उजड़ गईं । बादल फटने से शहरों-कस्बों को सैलाब -मलबे ने निगल लिया। गांव और देहात वीरान हो गए। सैंकड़ों दुकानें,रेस्तरां और घर मिट्टी में मिल गए। भारत भर में इस आपदा का प्रभाव पड़ा। उत्तराखंड में तीर्थ यात्रा पर कई राज्यों से लोग आए थे और वे भी इस प्राकृतिक कहर का शिकार हुए।अब सबसे महत्वपूर्ण तो यही मुद्दा है कि कुछ ऐसा उपाय हो जिससे फिर कभी ऐसी विपत्ति नहीं आए। बच्चों की किलकारियों से गूंजती बस्तियां अब फिर न उजड़े। दरअसल ऐसी प्राकृतिक विपत्तियों को रोकने के लिए हमारे पास एक ही उपाय है। और वह है प्रकृति के महत्व को समझना। निस्संदेह पर्यावरण असंतुलन ही ऐसी महाविपत्तियों के लिए जिम्मेदार है। भारत जैसे देश में प्रकृति को लेकर संवेदनशील होना बहुत जरूरी है,क्योंकि यहां विकास के नाम पर सबसे अधिक खिलवाड़ हो रहे हैं। जल,जंगल और पहाड़ों को विकास के नाम पर नष्ट करने का काम तीव्र गति से किया जा रहा है। यह सब बहुत ही खतरनाक है,क्योंकि प्रकृति के साथ खिलवाड़ किए जाने का परिणाम भी बहुत भयानक हो सकता है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई,नदियों में फैक्ट्रियों का केमिकलयुक्त पदार्थ छोड़ा जाना और पहाड़ियों को काटकर नगरों को बसाना देश के कई हिस्सों में लगातार जारी है। मुंबई ,दिल्ली और कोलकाता जैसे कई नगरों -महानगरों में तेजी से बढ़ती आबादी को संभालने के नाम पर पर्यावरण को भयानक ढंग से नुकसान पहुंचाने का कार्य चल रहा है। शहरों का विस्तार जिस रूप से हो रहा है,उससे पता चलता है कि हम प्रकृति को अपने हिसाब से कैसे और किस रूप में ढाल रहे हैं। देश में कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि ...कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा जैसे हालात लगातार उपस्थित होते रहते हैं। और हर वर्ष ऐसी विपत्तियों की भयावहता लगातार बढ़ती ही चली जाती है।
मुख्य रूप से पेड़ों,पहाड़ों और नदियों को नुकसान पहुंचाया जाना ऐसे प्राकृतिक विपदाओं के लिए जिम्मेदार हैं,लेकिन इन सबको रोकने को लेकर कोई विशेष उत्सुकता कहीं नहीं दिखती। इतिहास गवाह है कि देश की कई राजनीतिक पार्टियों ने ऐसी विपत्ति के समय राजनीतिक चालें चलने में भी कोताही नहीं बरती हैं। इस बार उत्तराखंड में आई भीषण त्रासदी भी इससे अछूती नहीं रही। कई राजनेताओं ने इसका अपने स्तर पर हर संभव लाभ उठाने का प्रयास किया है। किसी नेता ने अपने राज्य के लोगों को बचा लेने का दावा किया,तो किसी ने आम आदमी बनकर लोगों की राहत कार्य का जायजा लेने को एक मुद्दा बन जाने दिया। आश्चर्य तो इस बात का है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी प्रकृति की उजड़ती दशा को संभालने के उपाय को मुख्य मुद्दा नहीं बनाना चाहती। बिल्डरों,पूंजीपतियों और कंपनियों के हाथों जंगलों और हरे भरे इलाकों का सौदा करने वाली पार्टियां भला अपना नुकसान क्यों कराना चाहेंगी। देश में पिछले कुछ दशकों में पूंजीपतियों और नेताओं का गठजोड़ कई नए विनाशकारी समीकरण रच रहा है। यह गठजोड़ खुलेआम लोगों को विकास और रोजगार का झांसा देता है और पहाड़ों ,जंगलों को कटवा देता है। देशी -विदेशी कंपनियों को विकास के नाम पर जंगलों में आसानी से घुसने दे दिया जाता है और पर्यावरण के नुकसान का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। पिछले दिनों महाराष्ट्र भयानक सूखे की चपेट में था, लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने इसके मूल कारणों को जानने को लेकर कोई समीक्षा करना उचित नहीं समझा। किसी भी आपदा में राहत कार्य करने के बाद सबसे अधिक जरूरी यह होता है कि ऐसा कभी फिर न हो उसके लिए ठोस कदम उठाए जाएं। लेकिन ऐसा कोई करता नहीं दीखता। अगर एक चौराहे के निकट किसी मॉल का निर्माण हुआ है,तो दूसरा मॉल उस पहले मॉल से कितनी दूरी पर बनाया जाना चाहिए,इसको लेकर कोई स्पष्ट नियमावली नहीं दिखाई देती। मुंबई में एक मॉल से दस-बीस कदम की दूरी पर आपको दूसरा मॉल दिखाई दे सकता है और उससे कुछ दूरी पर ही तीसरे मॉल की खुदाई का कार्य होता दीख सकता है। तो इन सबको लेकर कोई ठोस नियम नहीं बने, तो कब तक लोगों को विकास के नाम पर ठगा जा सकता है। महाराष्ट्र या अन्य राज्यों के ग्रामीण और पहाड़ी इलाकों में बसी कंपनियों या भविष्य में बनाई जाने वाली फैक्ट्रियों को लेकर भी कोई प्रकृति हित में उठाया गया कदम आपको कहां दिखाई देता है? किसी कारखाने से निकले धुएं,कचरे और व्यर्थ केमिकल को कहां फेंका जा रहा है? एक इलाके के जंगल या पहाड़ी क्षेत्र में कितने कारखाने बनने चाहिए? कोई होटल,मॉल और पॉश कॉलोनियां बसाने की निश्चित दूरी-संख्या और आवश्यकता होने -नहीं होने के तथ्यों पर विचार क्यों और कैसे किया जाता है? हम अच्छी तरह जानते हैं कि इन सब मुख्य सवालों को लेकर कई राज्य सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का रवैया बेहद लापरवाही से भरा रहा है। आप ही कहिए कि अगर हम अब नहीं संभले तो कब संभलेंगे? हमें प्रकृति की इज्जत करनी होगी,तभी प्रकृति भी हमारी इज्जत करेगी। आइए,हम ऐसा कुछ करें,जिससे अब कोई प्राकृतिक कहर हमारी बस्तियों को वीरान नहीं करे।
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