शमीमा हुसैन की लघुकथा : गुरुवार बाजार
मुंबई के बाजार का फोटो। |
आज गुरुवार है। रहीमा तैयार होकर अपनी सहेली ममता के घर जाती है और कहती है, 'आज तो काजूपाड़ा में गुरुवार बाजार लगा है। चलो चलें।'
ममता फीकी मुस्कान के साथ कहती है, 'सुनो न, रहीमा। मेरे जो पैसा था, वह तो आई को दे दिया। राशन भरना था। अब खाली हाथ बाजार जाने का मन नहीं करता।'
दोनों एक साथ ही सब जगह जाती थी। कभी दोनों का कपड़ा एक ही तरह का होता, तो कभी मेकअप भी एक ही तरह का होता था। अक्सर लोग दोनों को जुड़वा बहनें समझने की भूल कर बैठते।
ममता की बात सुनकर रहीमा कहती है, 'अरे चलो न।'
ममता आईना के सामने बाल संवारने लगी। जब मेकअप पूरा हो गया, तो ममता ने कहा, 'चलो रहीमा चलें।'
रहीमा स्टूल से उठकर खड़ी हो गई और ममता के चेहरे का मेकअप देखने लगी। उसने हैरानी से पूछा, 'अरे, लिपस्टिक दूसरे कलर का क्यों?'
ममता हंसने लगी। उसे देखकर रहीमा भी हंसने लगी। हंसते-खिलखिलाते हुए ही दोनों बाहर निकल गईं। कुछ सालों से दोनों एक साथ ही बाजार जाती हैं। गुरुवार बाजार में खूब रौनक होती है। बाजार की खूबसूरती बढ़ जाती है। यानी गुरुवार को बाजार बसंत ऋतु जैसी खूबसूरत हो जाती है। रोड के दोनों तरफ नए-नए समान का ढेर लगा रहता है। फेरीवाले बड़े प्यार से समान लगाते हैं। रोड के एक साइड नजर डालो तो समान ही समान। फिर दूसरे साइड कहीं बर्तन वाला, तो लाल-पीली सैंडल। कहीं- कहीं लाल-पीली चूड़ियों की लाइन।
रहीमा सभी दुकान वाले के पास रुकती और समान देखती जाती है। उसके इस आदत से ममता को बहुत गुस्सा आता है। पिछले साल इसी बात के लिए उन दोनों में एक बार झगड़ा भी हो गया था। पर ये रहीमा की बच्ची समझती नहीं है। अभी भी ममता को गुस्सा आ रहा है। दोनों सहेली एक लिपिस्टिक वाले के पास रुकती हैं। लिपस्टिक और आई ब्रो खरीद लेती हैं। दोनों खुश होती हैं। उसके बाद ममता एक सैंडिल वाले से सैंडिल खरीदती है। उसके बाद पूरे बाजार का दोनों चक्कर लगाती है।
एक चश्मे की दुकान के बाहर ओटा पर एक बूढ़ा दातून बेच रहा था। रहीमा ने ममता से थोड़ा रुकने को कहा। ममता ने पूछा कि वह क्या खरीदने के लिए रुक रही है। रहीमा ने सामने चश्मा की दुकान की तरफ इशारा किया और ममता की हाथ जोर से पकड़ कर सड़क पार कर गई। वह दोनों चश्मे की दुकान के पास आ गई। दुकान का कांच बंद था। बाहर पतला सा ओटा था। उस पर एक बूढ़ा व्यक्ति बैठा हुआ थ। उसके पूरे बाल सफेद हो गए थे। उसकी कमर झुकी हुई थी। वह नीम के दातून के गट्ठर के नजदीक बैठा था।
रहीमा ने दातून वाले से पूछा, 'अंकल, दातुन कैसे दिए।'
दातून वाले बूढ़े ने आंखें ऊपर करके कहा, 'बिटिया, पांच रुपए में।'
इतने में एक दूसरा ग्राहक वहां आ गया। उसे पतला दातून चाहिए था। उसने पतला दातून खोजना शुरू किया। रहीमा भी उसी गट्ठर में पतला दातून खोजने लगी। जब रहीमा को नीम की पतली छड़ी मिल गई, तब उसने बूढ़े से इसे काटकर देने को कहा। बूढ़े ने सरौता निकाला और दातून काटने लगा।
वह दातून काट ही रहा था, तभी इतने में चश्मे की दुकान का कांच वाला दरवाजा खुला।
उसमें से गोरे रंगा का एक सूट बूट पहने आदमी निकला और वह अचानक उस दातून वाले बूढ़े पर चीखने-चिल्लाने लगा। उसने बूढ़े को मां-बहन की गालियां बकनी शुरू कर दी और उससे सरौता छीन कर सड़क पर फेंक दिया। इसके बाद उसने तेजी से बूढ़े के पास रखा दातून का गट्ठर उठाया है और उसे भी फेंक दिया। वह इतने पर ही नहीं रुका और अब उसने बूढ़े को भी जोर से धक्का दे दिया। बूढ़ा लड़खड़ाते हुए एक ओर गिर गया।
इसके बाद बूढ़े ने उठकर बैठने की कोशिश करते हुए कहा, 'बाबू हम जात हैं।'
यह सुनकर रहीमा और ममता की आंखें भर आईं।
Heart touching
ReplyDeleteवाह बहुत खूब 👍👍
ReplyDeleteबाजारवाद ने छोटे कामगार को एक बहिष्कृत तबका समझा है। उन्हें अपने बड़े बड़े मोल के सामने खड़े होना भी तीर की तरह चुभता है।