वह भूखा था, प्यासा था, मगर चोर नहीं था...

जागते रहो'फिल्म का एक दृश्य : सोशल मीडिया से साभार

By Gulzar Hussain

आप भी सोचेंगे कि नेटफ्लिक्स पर चमकती-दमकती फिल्मों के दौर में मैं यह पुरानी ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म के बारे में क्या कहने बैठ गया। लेकिन होती है कोई कसक ...कोई हूक जो किसी फिल्म को देखकर या याद कर अचानक उठती है और ऐसी उठती है कि चुप रहा नहीं जाता, लेकिन 1956 में बनी फिल्म जागते रहो के बारे में कुछ कहने से पहले मैं चलती ट्रेन की खिड़की पर लटके एक चोर के बारे में कुछ कहना चाहता हूं।

दरअसल, कुछ दिनों पहले एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें कुछ लोग ट्रेन की खिड़की पर एक चोर पंकज कुमार को पकड़े हुए दिखे और वह जान बचाने की गुहार लगाता दिखाई दिया। उस वीडियो पर सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया देखकर मैं दंग था। कोई लिख रहा था-हाथ क्यों न छोड़ दिया, मर जाता, कोई लिख रहा था-ठीक हाल किया, ऐसे लोगों की यही सजा है। दरअसल, यह सब वैसा ही मॉबलिंचिंग जैसा दृश्य था, जिसमें मोबाइल चोर, पॉकेटमार या झपटमार के आरोपी को पकड़कर भीड़ बेरहमी से पीटती है और वहां कोई भी बीच-बचाव करने नहीं आता।

अगर चोर ने खिड़की से मोबाइल चोरी का प्रयास किया भी था, तो भी उसकी जान लेने के लिए चलती ट्रेन में लटका देना कहां, तक मानवीय है। अगर उसे पकड़ भी लिया गया था, तो ट्रेन की चेन खींचकर उसे बोगी के अंदर लेकर पुलिस के हवाले किया जा सकता था। इस पर ऐसा अमानवीय वीडियो बनाकर उस जानलेवा पल का मजाक उड़ाना कैसे उचित था?

जरा सोचिए, कोई अगर चोर है, तो कौन है जो चोर नहीं है? हो सकता है वह चोर न भी हो और उसे चोर समझ कर पकड़ लिया गया हो। बस ऐसी ही ख्वाजा अहमद अब्बास की एक कहानी पर अमित और शंभू मित्र के निर्देशन में बनी फिल्म है जागते रहो। इस फिल्म में राजकपूर ने गांव से शहर कमाने आए एक ऐसे युवक का किरदार निभाया है जो रात में पानी पीने के लिए एक इमारत के करीब पहुंच जाता है। ...बस इतनी सी बात उसके लिए मुसीबत बन जाती है ...सब चोर समझकर उसके पीछे पड़ जाते हैं और वह बचने के क्रम में जिसके-जिसके घर में घुसता है, वहां हर घरवाले चोर ही निकलते हैं ...कोई अपनी बीवी के कंगन चुराता है, कोई अवैध रूप से दवा बनाता है, तो कोई शराब। कोई नकली नोट छापता है। सब के सब एक से बढ़कर एक क्रिमिनल हैं, लेकिन सोसाइटी में सभ्य नागरिक बने हुए हैं। इन सभ्य लोगों का एक ही मकसद है- बिल्डिंग में घुसे एक चोर को हर हाल में मार देना है, जो चोर है ही नहीं।
इस फिल्म में संकेत में बहुत बड़ी बात कह दी गई है कि कुछ लोग किस कदर किसी इंसान के खून के प्यासे हो जाते हैं, बिना सच्चाई जानें। सामने फटेहाल खड़ा युवक भूखा हो सकता है, लेकिन उसे बच्चा चोर कहकर लोग मार दे रहे हैं। कभी खानपान, कभी पहनावे, कभी प्रेम संबंध को लेकर, तो कभी दूसरे जाति-धर्म से नफरत को लेकर ऑनर किलिंग-मॉब लिंचिंग किस कदर बढ़ता जा रहा है।

बहरहाल, इस फिल्म का चरम दृश्य वह है, जहां नकली नोट बाहर भेजने के लिए एक सेठ राजकपूर को जान से ही मार देना चाहता है, ताकि उसकी लाश के साथ पैसे बाहर भेजे जा सकें। लेकिन फिर उसकी जेब में नोट भरकर रस्सी के सहारे बिल्डिंग से उसे नीचे उतरने को कहता है। उस रस्सी में नीचे से कोई व्यक्ति आग लगा देता है और ऊपर से सेठ रस्सी काट देता है। किसी तरह राज कपूर पाइप से अटका है। लाठी-पत्थर लिए लोगों की भीड़ उसे मार देने को आतुर है। एक पत्थर राज के सिर पर लगता है और एक खिड़की टूट जाती है, जहां ईसा की मूर्ति दिखाई देती है। मूर्ति के दिखते ही, मन कह उठता है कि इसी तरह तो सलीब पर ईसा मसीह चढ़ा दिए गए थे। ओह....हर ओर उसकी खून के प्यासे लोग, जो खुद पानी का प्यासा है।
इसके बाद जब राज की जेब से नोट गिरने लगते हैं, तो लोग नोट पर पागलों की तरह टूट पड़ते हैं। सब नोट के भूखे हैं। सबको नोट चाहिए, चाहे जैसे मिल जाए।

मानवता की अलख जगाती यह फिल्म मन में उतर जाती है।

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