-गुलजार हुसैन
आपने कभी सोचा है कि नफरत फैलाने की हर गहरी साजिश को हमारे देश के लोग आखिरकार नाकाम कैसे कर देते हैं? किन साहित्यकारों और फिल्मकारों का नाम आप लेना चाहेंगे, जिन्होंने अपनी कला और विचार से देश की एकता रूपी पेड़ की जड़ों को इतना मजबूत बनाए रखा है कि डालियों-पत्तियों को नष्ट किए जाने के बावजूद ये फिर से उगकर हरियाली फैला देते हैं।
मैं शुरू से सोचता हूं तो प्रेमचंद से लेकर राजेंद्र यादव तक कई साहित्यकारों के नाम मन में आ जाते हैं। इनसे पहले जाएं, तो उस एक जुलाहे कबीर का नाम मेरे मन में गूंजता है, जिसने अपने दोहों से भारत के बड़े भू-भाग को एक डोर में पिरोए रखा। उसने हर कट्टरता और धर्मांधता को इतना तुच्छ बना दिया कि यह एक परंपरा बन गई कि जो भी कबीर के दोहों के साथ है, वह मानवता के साथ है। कौन किस धर्म या जाति का है, राजा है या प्रजा है इसका कोई मायने नहीं है। जो इंसान है, वही जीने लायक है। तभी तो उन्होंने लिखा- 'प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए, राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस देही ले जाए।'
इसके अलावा, प्रेमचंद के पात्रों के व्यवहार में एकता-भाइचारे की जो मिठास दिखाई देती है, वह आज भी लोगों में उत्साह का संचार करती है। 'ईदगाह' के हामिद का अपनी दादी की फिक्र हो, या फिर जुम्मन और अलगू चौधरी की दोस्ती, सब में समाज की एकता की झलक दिखाई देती है। 'गोदान' का होरी महतो का चरित्र दरअसल, जातीय कुचक्र को भेदकर मानवता का प्रतीक बनने की प्रक्रिया का ही रूप है।
इसके अलावा टैगोर के 'काबुलीवाला' कहानी ने न केवल बंगाल बल्कि हिन्दी पट्टी के लोगों को भी खूब प्रभावित किया है। इस कहानी को इंसानियत और एकता के मिसाल के तौर पर पेश किया जाता रहा है। 'गोरा' उपन्यास ने तो जातीय कट्टरता की नींव पर ही गहरा प्रभाव किया।
इसके बाद 90 के दशक में राजेंद्र यादव ने हंस के संपादकीय के माध्यम से कट्टरता की राजनीति पर जोरदार प्रहार किया। उन्हें आधुनिक युग का कबीर कहा गया। हिन्दी पट्टी में नई पीढ़ी को एकता का महत्व समझाने में राजेंद्र यादव का बहुत बड़ा योगदान है। इसके अलावा यशपाल की कहानी 'परदा' हो या मोहन राकेश का 'मलबे का मालिक' हो या कमलेश्वर का 'कितने पाकिस्तान', सबमें देश की मिट्टी में छुपी एकता की सु्गंध है, जिसे नकार कर नहीं जिया जा सकता है।
इसके अलावा, राही मासूम रजा का 'आधा गांव' हो या अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास 'झीनी झीनी बीनी चदिरया' हो, सबमें विविधता में एकता का प्रकाश लोगों को आलोकित किए चलता है। ओमप्रकाश बाल्मिकी के 'जूठन' का संदेश भी तो यही है कि नफरत की हर दीवार गिरा दी जाए। और भी बहुत सारे नाम हैं, जो मुझसे छूट रहे हैं।
इसके अलावा लुगदी उपन्यासों और बॉलिवुड फिल्मों के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता है। जब मैं बच्चा था, तो बिहार में गुलशन नंदा जैसे उपन्यासकारों की पहुंच मैंने घर-घर में देखी। गांव के कम पढ़े लिखे लोग भी उन्हें पढ़ते। साथ ही कर्नल रंजीत, रानू सहित और भी कई नाम थे। इनके उपन्यासों का कथानक भले कुछ भी रहा हो, लेकिन एक बात कॉमन थी, वह थी एकता-भाइचारे वाला समाज।
इन सब के लिखे पन्नों में हमारा जिंदादिल देश है, इसे हमें हर हाल में बचाए रखना है।
(Gulzar Hussain : Facebook post)
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बहुत खूब लिखा है साहित्य ने देश की एकता और भाईचारे को बनाए रखने में बहुत बड़ा योगदान दिया है उन्होंने देश की जनता को सोचने पर विवश किया है कि शोषण कहां कहां , किसी किसी रुप में व्याप्त है, ओमप्रकाश वाल्मीकि के जूठन ने तो जातिय व्यवस्था की पूरी पोल पट्टी ही नहीं खोली बल्कि उस भेद भाव का सदियों से शारीरिक और मानसिक किस तरह से एक खास वर्ग कमजोर व पिछड़ता चला जाता है, प्रेम चंद जी ने भी सद्गति जैसी कहानी लिखी और भेद भाव को खत्म करने के लिए संघर्षरत होने को पूरे समाज को विवश किया, ऐसे बहुत से क्रान्तिकारी शायर, गीतकार भी हुए जिन्होंने एकता, भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए गीत , लिखें, हमारे देश में जहां कुछ कट्टर पंथी हैं वहां बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जो प्रेम व शांति के साथ रहना चाहते हैं
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