जिन्होंने कलम चलाने का मकसद बताया




गुलज़ार हुसैन

प्रेमचंद (Premchand) ने 1933 में 'हंस' के कवर पर बाबासाहेब आंबेडकर (Babasaheb Ambedkar) का चित्र छापकर कलम चलाने का मकसद बताया था।

दरअसल, उनकी यह बड़ी पहल नई पीढ़ी को लिखने की राह बताने के लिए थी ...वे खेतिहर मजदूर के रूप में खेत में पसीना बहाती वंचित जनता के हक के लिए साहित्य रचने के पक्षधर थे ...यह संकेत था कि लेखन का उद्देश्य वंचित, दलित, पीड़ित जनता की आवाज होनी चाहिए, अन्यथा वह किसी काम का नहीं।

गोदान का होरी महतो हो ...सिलिया हो या ईदगाह का हामिद हो ...उन्होंने हर पात्र के माध्यम से यह संकेत दिया कि देश की सबसे बड़ी समस्या से आंखें चुराते हुए साहित्य नहीं लिखा जा सकता।

आज यह अकाट्य सत्य है कि भारत में किसानों, खेतिहरों, मजदूरों, छोटे कारीगरों, ठेले वालों, सफाईकर्मियों, मजबूर वेश्याओं या वंचित जातीय समूहों के हक़ की बात किए बिना आपका लेखन 'जीरो' है।

प्रेमचंद नई पीढ़ी को सबसे जरूरी राह बता गए।


प्रेमचंद के दौर या उससे पहले वंचित जातीय समूहों के बारे में साहित्य लेखन करने वाला कौन था?

उस दौर में हिन्दी पट्टी में मुझे तो दूर दूर तक प्रेमचंद के अलावा कोई दूसरा नजर नहीं आता है। सबसे पहले प्रेमचंद ने ही वंचित जातीय समूहों से नायक चुनें और 'फूल-नदी' और प्रेम रस में डूबे कथा साहित्य की दिशा बदल दी।

यह तो सच है कि उनका लेखन सहानुभूति पर ही आधारित था, लेकिन वह विश्व स्तरीय लेखन था ...वह दिल की गहराइयों से किया गया लेखन था... क्योंकि वंचित जनता के दुख-तकलीफ को उन्होंने करीब से देखा...उसे महसूस किया और लिखते हुए उसे जिया भी। वे अपने उपन्यासों, लेखों और कहानियों के माध्यम से वंचित जनता की आवाज को प्रभावशाली तरीके से घर-घर तक पहुंचा रहे थे।

'गोदान' का मुख्य पात्र होरी महतो का भीषण कष्टमय जीवन हो या गोबर का गांव की सवर्णवादी संस्कृति से विद्रोह हो, यह सब मामूली साहित्य नहीं है। यह उस दौर से लेकर इस दौर तक की सबसे बड़ी समस्या को रेखांकित करता है।

उस दौर में जब हिन्दी लिटरेचर में होरी, धनिया, हामिद, सिलिया, जुम्मन की बात कोई नहीं रख रहा था, प्रेमचंद रख रहे थे।

ऐसा जीवंत साहित्य ही उन्हें विशिष्ट, सामयिक और महान साहित्यकार बनाता है।

(गुलज़ार हुसैन की फेसबुक पोस्ट से )




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