लघुकथा : लॉकडाउन का भाड़ा
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Photo: Vijayendra Mohanty on Unsplash |
-शमीमा हुसैन
मकान मालिक- क्यों, कब भाड़ा दे रहो हो?
किराएदार- सेठ, कोरोना के कारण मेरा काम पूरा चौपट हो गया। रोटी के लाले पड़ गए थे।समय बहुत ही खराब हो गया था। इसके लिए गांव भागा, लेकिन वहां भी कर्ज लेकर पेट भरने का इंतजाम किया।
मकान मालिक- तो मैं क्या करूं तुम्हीं बताओ।
किराएदार- लॉकडाउन मार्च से शुरू हुआ था और मैंने उस समय भाड़ा दे दिया था। अब अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक का भाड़ा बाकी है।
मकान मालिक- तुम्हारा डिपॉजिट खत्म हो गया है और तुम माइनस में हो।
किराएदार- हां, सेठ। जानता हूं। मैं सारा भाड़ा चुका दूंगा ...लेकिन अभी भी मेरा काम ठीक से चल नहीं रहा है। आप तीन महीने का भाड़ा तो माफ कर दीजिए।
मकान मालिक- (गुस्से में) ऐसा कैसे हो सकता है। माफ कर दूं तो मैं रोड पर आ जाउंगा।
किराएदार- सेठ, दो महीने का तो माफ कर दीजिए।
मकान मालिक- नहीं ऐसा नहीं हो सकता है। सुनो, 70 हजार भाड़ा बनता है, लाकर दो। नहीं तो घर खाली करो।
किराएदार- नहीं सेठ, ये नहीं हो पाएगा। (उदास होकर) थोड़ा-थोड़ा करके भाड़ा चुका दूंगा।
मकान मालिक- क्या डेरवा पोठिया दोगे। एक बार में दो। समझे।
बेहद ही संवेदनशील और यथार्थवादी कहानी है एक छोटी सी कहानी के द्वारा मजदूर वर्ग की सारी हकीकत बयां करती हुई और इस संकट के समय में न जाने कितने मजदूर बेघर हुए।
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