जो दोस्त की तरह जिंदगी में शामिल हो गए

Shaheed Bhagat Singh का दुर्लभ चित्र

By Gulzar Hussain
बड़ी सीधी बात है कि जो बचपन में दोस्त की तरह आपसे घुलमिल जाए, उसे दिल से एक पल के लिए भी भुलाना आसान नहीं है। हां मैं भगत सिंह की ही बात कर रहा हूं। दरअसल, यह जीवन का वह दौर था, जब भगत सिंह के साथ ही बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी के विचार मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ रहे थे। ...लेकिन भगत सिंह मेरे बचपन को वैचारिक रूप से झकझोरने वाले पहले नायक थे।

स्कूल के दिनों में ही भगत सिंह एक विराट ह्रदय वाले नायक की तरह मेरे दिल ओ दिमाग पर छा गए थे। उनकी छवि मेरे अंदर ऐसे ही नहीं निखरी थी ...तब मुझे बाल पत्रिकाओं का नशा चढ़ा रहता था, इसलिए उनकी कुछ छवि बाल पत्रिकाओं में उनके बारे में कभी-कभार छपे लेखों से बनी थी, तो कुछ मेरे बड़े भाई साहब की लाई पुस्तकों और चर्चाओं से आकार ले रही थी।

...हां इसके अलावा एक मनोज कुमार अभिनीत फिल्म ‘शहीद’ भी थी, जो ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर आती रहती थी ... इन सबसे जो भगत सिंह बना था बचपन में मेरे अंदर वह फिल्मों के उदात्त नायकों पर भारी पड़ता जा रहा था ...टीवी पर आने वाली अमिताभ की पुरानी फिल्मों का मैं दीवाना था, लेकिन जो बातें भगत सिंह में थी, उन चीजों की अमिताभ नकल करते दिखाई पड़ते थे। दीवार में अमिताभ का नास्तिक किरदार मुझे अक्सर भगत सिंह की पुस्तक ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से प्रभावित लगता था।

दसवीं तक आते-आते भगत सिंह मेरे मानव प्रेम के जुनून को एक ठोस अस्तित्व देने वाले नायक बन चुके थे, जिसने धर्म और जाति की दीवार को अपने बूट की ठोकरों से धराशाई कर दिया था।

बाद में जब मैंने मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘मां’ पढ़ा, तो उसके किरदार पावेल को लेकर जो मेरे मन में छवि उभरी, वह भगत सिंह की थी। पावेल मुझे भगत सिंह की तरह का क्रांतिकारी नौजवान लगता था।

उसके बाद जब मैं सहित्यकार राजेंद्र यादव के हंस में छपे संपादकीय को पढ़ा, तो उनमें भी मुझे भगत सिंह की छवि ही दिखाई देने लगी। राजेंद्र जब भी सांप्रदायिकता की राजनीति की धज्जियां उड़ाते और नरसंहारक को भेड़िया कह कर कोसते तो लगता, अरे यह तो भगत सिंह बोल रहे हैं।


बाद में राजेंद्र ने एक बार संपादकीय में उन पर बन रही फिल्मों के बारे में बेजोड़ संपादकीय लिखा था। हां, उन्होंने एक बार और कहीं लिखा था कि उन्होंने जब ‘शहीद’ फिल्म देखी थी, तो उन्हें लगा था कि मनोज कुमार हूबहू भगत सिंह की तरह दीखता है।

भगत सिंह इतनी कम उम्र में ही वंचित जनता के हकों के पक्ष में लिखते थे, यह छात्रों के लिए सबसे अधिक प्रेरणादायी बात थी। ‘अछूत समस्या’, ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ सहित उनके कई लेख पढ़ते ही मुझ जैसे कलम चलाने वालों की रगों में बिजली सी कौंध जाती थी। तब लगता था सिर्फ ऐसे ही सोचा जा सकता था ...ऐसे ही सोचा जा सकता है।

मैं बचपन में कभी-कभी सोचता था कि यदि मैं उनके जीवन काल में पैदा हुआ होता और उनसे मिलने चला जाता, तो वे दौड़कर मुझे सीने से लगा लेते।

ऐसे होते हैं सच्चे नायक, जिन्हें आप दोस्त समझ सकें... और लगे कि आप बचपन में उनके साथ कबड्डी खेल चुके हैं ....

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