बदलते समय में बिखरे पंखों को समेटने का सपना
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Photo by Anagha Varrier on Unsplash |
सिलीगुड़ी में रहने वाली मनीषा गुप्ता अपूर्वा की कविताएं बदलते समय की पुकार हैं। इनमें बिखरे पंखों को समेटने का सपना है, तो सत्ता से चुभता सा सवाल भी है। अपूर्वा बेहद सरल तरीके से बदलती दुनिया में बची रह गई कठाेेरता का परिचय कराती हैं।
मानवता पर प्रहार
जिस्म
को
रौंदकर
जो
चला
जाता
है...
है...
इसी समाज का उभरता चेहरा
जिसे कभी तुम गली, चौराहों पर,
अलग-अलग चेहरे में देखती रही होगी
जब, वह तुम्हारे देह को भोग्या समझ कुतर रहा होगा
तब मरती है तुम्हारी आत्मा...
मानवता जब निर्वस्त्र होती है,
तब हर दरिंदों का चेहरा एक-सा झलकता है
एकबारगी
जिस्म के चोट को सह सकती हूँ,
बारम्बार
तुम्हारी मानवता का प्रहार,
अंतःकरण को चीरती हुई,
आत्मा को भी चीरती चली गई...
पहले बलात्कार फिर हत्या
अब बना दी गई हूं....एक लाश।
मैं जानती हूं...
मेरे बलात्कारी देह से आ रही है बू
लेकिन ये लाश ....
अपनी देह पर खरोंचे निशान को रगड़कर,
इंसाफ की गुहार पर,
चीख़ कर,
मुर्दे को झकझोरना चाह रही
कमजोर न्यायप्रणाली से प्रश्न कर....
अपनी आत्मदाह को जीवित करना चाह रही।
हज़ारों चीखें सालों साल भटकती है;
कतार में...
एक मृत आत्मा की तरह
और फंस जाती है अदालतों की सुनवाई पर
क्योंकि तुमने शह दिया है...
इन मंसूबों को।
है...
इसी समाज का उभरता चेहरा
जिसे कभी तुम गली, चौराहों पर,
अलग-अलग चेहरे में देखती रही होगी
जब, वह तुम्हारे देह को भोग्या समझ कुतर रहा होगा
तब मरती है तुम्हारी आत्मा...
मानवता जब निर्वस्त्र होती है,
तब हर दरिंदों का चेहरा एक-सा झलकता है
एकबारगी
जिस्म के चोट को सह सकती हूँ,
बारम्बार
तुम्हारी मानवता का प्रहार,
अंतःकरण को चीरती हुई,
आत्मा को भी चीरती चली गई...
पहले बलात्कार फिर हत्या
अब बना दी गई हूं....एक लाश।
मैं जानती हूं...
मेरे बलात्कारी देह से आ रही है बू
लेकिन ये लाश ....
अपनी देह पर खरोंचे निशान को रगड़कर,
इंसाफ की गुहार पर,
चीख़ कर,
मुर्दे को झकझोरना चाह रही
कमजोर न्यायप्रणाली से प्रश्न कर....
अपनी आत्मदाह को जीवित करना चाह रही।
हज़ारों चीखें सालों साल भटकती है;
कतार में...
एक मृत आत्मा की तरह
और फंस जाती है अदालतों की सुनवाई पर
क्योंकि तुमने शह दिया है...
इन मंसूबों को।
समय की शक्ति को पहचानो
बेहतर वक्त का पहियाघुमाने के लिए....
केवल तुम्हारे ही पास है, वह दृढ़-शक्ति।
जिसके बल पर...
तुम बदल सकते हो,
देश का आईना....
उगा सकते हो रंग-बिरंगे फूल,
एक स्वच्छ वातावरण के लिए।
जहां खुली हवाएं
विषैली न हो
इसलिए
इस समय की शक्ति को पहचानो
कलंकित मत करो
अपनी दृढ़-शक्ति...
केवल अधिकार बनो
यूं ही उंगलियां मत उठाया करो
मानवाधिकारों का सम्मान करो
निद्रा से जागी हुई लड़की
अलसायी आंखों को मीचती हुई लड़कियांदो तरह की होती हैं ;
एक,
जो शीघ्र ही हाथों को काम पर लगा देती हैं
बाहर के नहीं,
घर में करने लगती हैं काम
पतंगबाज की तरह
आकाश को बना लेती है,
प्रतिस्पर्धा का मैदान।
दूसरी,
जो आंखों में नींद को नशा बनाती
उठती है,
देर- सवेर
अपने स्वप्नों को उगता हुआ देखने के लिए
वह सूरज को देखने में चूक जाती हैं
फिर वह भी करने लगती हैं काम
बाहर के नहीं
घर में करने लगती हैं काम
बाज़ार में भी
लड़कियां दो तरह की होती हैं ;
एक
जिसकी जेब में,
प्लास्टिक बीनते हुए बच्चों की तरह
इर्द-गिर्द मेहनतकश श्रमिकों ने चुन -चुनकर
जैसे बोरी में ठूंस दिया हो,
उसके लिए खिलौना....
इसीलिए उसकी नजरें ढूंढती हैं सिर्फ एक बाजार
दूसरी,
जिसकी जेब में
हैं ...कुछ पुख्ता दिनों की रसीदें
नोटिस में है,
एक कैलेंडर
उसकी नजरें टकराती हैं
स्पर्श मात्र से बाजार को खरीदती लड़कियों पर,
पीछे मुड़ते ही...
एक रिक्शाचालक पिट रहा होता
उन बेरहम पूंजीपतियों से
उसकी नजरें ढूंढती है
एक ब्रह्मदूत...
निद्रा से जागी हुई लड़की....
नहीं करेगी इंतजार,
किसी ब्रह्मदूत के आगमन-अवसान पर
नहीं बहा आएगी
अश्रु-धारा,
वह दौड़ेगी....
निद्रा से जागी हुई लड़की
दौड़ेगी....
डुबते हुए सूरज को उगता हुआ देखने के लिए।
निद्रा से जागी हुई लड़की
दौड़ेगी....
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यदि देश हथेलियों पर होता
हमने देखा है....हथेलियों पर देश को आजमाते हुए
देश.....
अब नहीं रह गया
सौम्यता का प्रतीक
यदि देश हथेलियों पर होता...
तो तुम्हे समझ लिया जाता,
सिर्फ...
एक बगीचे का फूल।
--
बिल्कुल सटीक प्रहार आज के राजनैतिक माहौल में।
ReplyDeleteशुक्रिया। सही कहा आपने।अपूर्वा की कविताएं झकझोरने वाली हैं।
Deleteसमाज और राजनीति दोनों पर बेहद ही बेबाक लिखा है।
ReplyDeleteबेहद ही बेबाक लिखा है, समाजिक और राजनीतिक दोनों पर अच्छा प्रहार।
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