अनाज उपजाने वाले किसान परेशान, लेकिन मॉल में अनाज बेचने वाले पूंजीपति मालामाल क्यों?
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Photo by Nandhu Kumar on Unsplash |
उन्हें आशा है कि एक दिन ऐसा सूरज उगेगा कि उसकी रोशनी में खेतों में काम करते हुए उनके मन में निराशा का भाव पैदा नहीं होगा।Analysis by Gulzar Hussain
दिल्ली की सड़कों पर आक्रोशित किसानों (Kisan Mukti March) की आंखों में छलकती पीड़ा और बेबसी देखिए, जिन्हें वे अपने जोशीले नारों से छुपाना चाह रहे हैं। वे उत्साह से कदम बढ़ाकर आगे बढ़ रहे हैं कि उनकी मांगें सुनी जाएंगी ...उन्हें आशा है कि एक दिन ऐसा सूरज उगेगा कि उसकी रोशनी में खेतों में काम करते हुए उनके मन में निराशा का भाव पैदा नहीं होगा। लेकिन इन सबके बावजूद उनके मन में एक टीस सी तो उठती ही है कि आखिर उनके मन की पीड़ा और तकलीफ को समझने वाला कहां कोई है।
यह बहुत बड़ी मांग तो नहीं है, उस देश की सत्ता के लिए, जहां अरबों की रकम खर्च कर एक से बढ़कर एक विशाल मूर्तियां स्थापित करने की होड़ लगी हैं।एक बार फिर देश के कोने- कोने से हजारों किसान दिल्ली की सड़कों पर पहुंचे हैं अपनी छोटी- छोटी मांगों के साथ, लेकिन इन मांगों को पूरा किया जाएगा ऐसा नहीं लगता। किसान चाहते हैं कि उनके कर्ज पूरी तरह माफ किए जाएं और उन्हें फसलों की लागत का डेढ़ गुना मुआवजा मिले। यह बहुत बड़ी मांग तो नहीं है, उस देश की सत्ता के लिए, जहां अरबों की रकम खर्च कर एक से बढ़कर एक विशाल मूर्तियां स्थापित करने की होड़ लगी हैं। लेकिन इतनी छोटी मांगों के के बावजूद किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है।
भीषण ठंड, मूसलाधार बरसात और तेज धूप में खेतों में आनाज उपजाने वाले किसान परेशान हैं, लेकिन उनके उपजाए अनाज को मॉल में बेचने वाले पूंजीपति मालामाल हैं। यह स्थिति पूंजीवादी सियासत का सबसे बड़ा छल है, लेकिन इस स्थिति पर ठीक से चर्चा करने की जरूरत भी नहीं समझा जा रहा है। परंपरावादी देवताओं की जाति, गोत्र और मंदिर- मस्जिद की राजनीति में लोगों को इस कदर उलझा दिया गया है कि लोग जन विरोधी साजिशों के कारण का पता लगाना भी नहीं चाहते।
किसान के उपजाए अनाज को पूंजीपति मॉल में ही नहीं बेचते, बल्कि फाइव स्टार होटलों और महानगरों के चमकते रेस्टोरेंटों में पिज्जा, बर्गर सहित अन्य खाने के सामान ऊंची कीमतों पर बेचकर वे भारी मुनाफा भी कमाते हैं।अभी हाल ही में महाराष्ट्र के किसानों ने ठीक लागत मूल्य नहीं मिलने से घबराकर और नाराज होकर अपने प्याज और अन्य फसलों को सड़कों पर फेंक दिया। यह सबसे जटिल साजिश की स्थिति है, जिससे किसानों को मुक्त किया जाना जरूरी है। किसान के उपजाए अनाज को पूंजीपति मॉल में ही नहीं बेचते, बल्कि फाइव स्टार होटलों और महानगरों के चमकते रेस्टोरेंटों में पिज्जा, बर्गर सहित अन्य खाने के सामान ऊंची कीमतों पर बेचकर वे भारी मुनाफा भी कमाते हैं।
जरा सोचिए, किसान अपने हाथों में आत्महत्या करने वाले किसानों की खोपड़ी लेकर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर ऐसे ही तो नहीं हो गए।सीधे शब्दों में कहें तो मुनाफाखोरी की राजनीति ने पूंजीवादियों के साथ मिलकर किसान के खून- पसीने से उपजे अनाज और सब्जियों को हड़पने का खेल खेला है। इस मॉल संस्कृति की झूठी चमक- दमक के पीछे किसानों का खून पीने का खेल चल रहा है। जरा सोचिए, किसान (Kisan March) अपने हाथों में आत्महत्या करने वाले किसानों की खोपड़ी लेकर प्रदर्शन करने के लिए मजबूर ऐसे ही तो नहीं हो गए।
नोटबंदी ने किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट पैदा कर दिया है। किसान कह रहे हैं कि भाजपा का वादा संपूर्ण लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का था, लेकिन उसे पूरा करने में सरकार फेल रही है। अब सारा खेल आप समझ सकते हैं कि पूंजीवादियों के मुनाफे की चिंता तो की जा रही है, लेकिन किसानों को भंवर में छोड़ दिया जा रहा है।
भाजपा ने 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में किसानों को फसलों की लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाई। सूखे के बाद 2016 में हुई नोटबंदी ने किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट पैदा कर दिया है। अब भाजपा ने फिर वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले अपने आखिरी पूर्ण बजट में लागत मूल्य बढ़ाने का वादा तो कर दिया है, लेकिन इससे किसानों को आशा नहीं है, और वे ठोस कदम उठाने की मांग कर रहे हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की जटिलता को समझने के लिए ठीक से इस मुद्दे की स्टडी जरूरी है। फसलों की लागत को तय करने वाली सरकारी संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) तीन तरह से लागत तय करती है।न्यूनतम समर्थन मूल्य की जटिलता को समझने के लिए ठीक से इस मुद्दे की स्टडी जरूरी है। फसलों की लागत को तय करने वाली सरकारी संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) तीन तरह से लागत तय करती है। पहला है ए 2, इसका मतलब है जुताई, सिंचाई, खाद, बीज, कीटनाशक, ईंधन, मजदूरी पर होने वाला असली व्यय। दूसरा है ए 2+ एफएल जिसमें उपरोक्त ए 2 लागत में किसान की ओर से खेतों में किए गए श्रम के बाजार मूल्य को भी जोड़ दिया जाता है। इसके अलावा तीसरा है, सी2 लागत। इसमें (ए 2+ एफएल) के खेतों के किराए, किसान का पैसा और ट्रैक्टर आदि के मूल्य पर ब्याज, अवमूल्यन की गिनती भी होती है। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि सी 2 लागत ही खेती की असली लागत होती है, इसे ध्यान में रखना होगा। किसान कह रहे हैं कि भाजपा का वादा सी 2 यानी संपूर्ण लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का था, लेकिन उसे पूरा करने में सरकार फेल रही है। अब सारा खेल आप समझ सकते हैं कि पूंजीवादियों के मुनाफे की चिंता तो की जा रही है, लेकिन किसानों को भंवर में छोड़ दिया जा रहा है।
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