कोहरे में धूप




कहानी : गुलज़ार हुसैन 

घोड़ी ने बड़े आराम से पीछे का एक पांव उठाकर अजीज के हाथ में दे रखा था और वह हथौड़ी से धीरे-धीरे नाल ठोक रहा था...ठक...ठक...ठक ...जब कभी हथौड़ी जोर से पड़ जाती, तो घोड़ी पूंछ हिलाती हुई जोर से हिनहिना उठती। अचानक घोड़ी ने जोर से अपना पांव हिला दिया तो अजीज अपने बुढाए शरीर को संभाल नहीं सका और हड़बड़ा कर जमीन पर गिर पड़ा।
खजूर के पेड़ के नीचे बैठी बुढ़िया अलाव के लिए शीशम और बबूल की सूखी लकड़ियों के ढेर लगा रही थी। उसने देखा तो चीखती हुई दौड़ी। ‘‘या अल्लाह, ये क्या हुआ? ’’ हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए बुढ़िया ने कहा।
 ‘‘ कुछ नहीं ...हरामजादी बिदक गई। एक तो इस हफ्ते कोई लंबी सवारी नहीं मिली और ऊपर से इसके नखरे...उफ्फ’’ कमर पकड़ कर अजीज ने लंबी सांस खींची, तो उसकी  सफेद दाढ़ी पतंग की तरह कांप गई। बुढ़िया दौड़ कर अंदर से सरसों का तेल ले आई और कोठरी से खटिया बाहर खींच लिया। अजीज चादर उतार कर उस पर पेट के बल लेट गया। बुढ़िया ने उसकी लूंगी थोड़ी नीचे खिसका दी और कमर में तेल मलने लगी। उसका झुर्रीदार चेहरा चिंता से और अधिक सिकुड़ा- सिकुड़ा नजर आने लगा।


 ‘‘ रहने दे भुट्टी ...जा जल्दी से चाय पिला दे। ’’ लूंगी को कमर पर कसकर उसने सिरहाने पर तह कर रखी चादर ओढ़ ली और बैठ गया।
सांझ ढलने लगी थी और ठंड बढ़ गई थी। अजीज ने कुर्ते की जेब से बीड़ी का बंडल निकाला और घर में घुसने के पहले बुढ़िया को टोक दिया, ‘‘अरे सुन...कोठी (अनाज रखने के लिए मिट्टी से बना बक्सा) के ऊपर माचिस रखी है, पहले जरा वो दे दे ’’
बुढ़िया एक पल के लिए ठिठक गई और फिर बुदबुदाते हुए घर में घुस गई, ‘‘ हुंह...पिछले महीने से ही कमर में दरद है, लेकिन तांगा एकदम टैम से ही ले जाएंगे... ई बुढ़ारी में आराम करना था पर दिन-रात खटते हैं।’’
बुढ़िया ने माचिस लाकर हाथ में रख दिया और गुस्से से घूरते हुए घोड़ी को देखा। वह भी उसी की ओर देख रही थी। उसने घोड़ी की ओर उंगली से इशारा करते हुए कहा, ‘‘ अब भूखो मर...आज से तुम्हारा दाना- पानी बंद। ’’
घोड़ी ने हिनहिना कर पूंछ हिलाया और गरदन नीचे झुका ली। अजीज ने बीड़ी सुलगा ली और अलाव जलाने की कोशिश करने लगा। पड़ोस के युसुफ ने अलाव जला लिया था और उसके परिवार के लोग चाय की चुस्की लेकर हाथ सेंक रहे थे।

बुढ़िया ने घर में जाकर चीनी का बोइयाम देखा, तो एकदम खाली था ...अब क्या करे। चूल्हे में सूखी लकड़ी जोड़ी, गोइठी का टुकड़ा रखा और थोड़ा यसा केरोसिन छिड़क कर उसमें आग लगाने के लिए कोठी पर माचिस ढूंढने चली गई। फिर उसे याद आया कि वह माचिस तो बाहर दे आई है। मन ही मन मुस्कुराते हुए सोचने लगी कि अनाज के डिब्बे जिस तरह खाली होते जा रहे हैं, उसी तरह उसका दिमाग भी खाली होने लगा है।
बुढ़िया माचिस लेकर आई और चूल्हा जलाकर चाय का पानी चढ़ा दिया। वह बैठे -बैठे आंगन के उत्‍तरी छोर देखने लगी, जहां उसकी पुतोह चूल्‍हे पर रोटियां सेंक रही थी और उसके दोनों बेटे उसकी पीठ पर खड़े ललचाई आंखों से तवे की ओर देख रहे थे। उसकी नौ साल की बेटी लालटेन में तेल डाल रही थी। चूल्‍हे के पास चीनी का बोइयाम आधा भरा था। एक पल के लिए बुढ़िया के मन में आया कि चलो पुतोह ही तो है ...आज अलग हो गई तो क्‍या हुआ? ...मांग लेते हैं थोड़ी चीनी। लेकिन अगले ही पल कुछ सोचते हुए वह गंभीर हो गई और उसके चेहरे की झुर्रियां कुछ और स्‍पष्‍ट हो गईं। वह खड़ी हुई, कुछ देर के लिए घृणा से पुतोह की तरफ देखा और झटकते हुए पड़ोसन के फुलकाहां वाली के यहां चली गई।

फुलकाहां वाली आंगन में बैठी रोटियां सेंक रही थी, इसलिए फूंकते-फूंकते धुंए से उसकी आंखें लाल हो गई थीं।
‘‘आव चाची बइठ ’’ उसने अपने बगल में पड़ी पीढ़ी बुढ़िया की ओर बढ़ा दी और माथे पर साड़ी का पल्‍लू रख लिया। तभी शाम की पैसेंजर ट्रेन जोर की सीटी बजाती धड़धड़ाती हुई गुजर गई। आंगन में रस्‍सी पर पसरा ब्‍लाउज थरथराने लगा।
‘‘देख छहबजिया गाड़ी आ गई...अंधेरा भी फैल गया ...मैं ज्‍यादा देर बैठूंगी नहीं, थोड़ी चीनी दे दे…’’
यह बोलते ही बुढ़िया को ध्‍यान आया कि सुबह के लिएआटा भी नहीं है।  ‘‘…सुनथोड़ा आटा भी दे दे...कल लौटा दूंगी। ’’
‘‘…अरे चाची ...चाय त पीते जा... ’’ यह कहते हुए फुलकाहां वाली ने एक रोटी तवे पर पटकी और अपनी आठ वर्ष की बेटी से उठे देखते रहने को बोलकर कमरे में घुस गई। कुछ देर बाद वह एक डगरे में आटा और डिब्‍बे  में थोड़ी चीनी रखकर लाई और बुढ़िया के हाथ पर रख दिया।
‘‘ चाय न पी सकूंगी कनियाबुढ़वा चिल्‍लाना शुरू कर देगा…’’ बुढ़िया ने चादर कस कर ओढ़ ली और डगरा हाथ में थामे बाहर निकल आई। बाहर पूरा मोहल्‍ला अंधेरे में डूबा था। झोपड़ों के दरवाजे से ढिबरी या लालटेन की रोशनी बाहर आ रही थी। किसी- किसी के आंगन से धुआं उठ रहा था। मोहल्‍ले में दो तीन घरों में ही बिजली आई थी और वह भी कभी- कभार  ही चमकती थी। यहां अधिकांश घर कच्‍चे थे, जिनकी दीवारें ईंटों को मिट्टी से बैठाकर खड़ी की गई थी। अधिकांश घरों की छतें खपरपोश थीं और कुछ घरों पर एस्‍वेस्‍टस की छतें डाली गईं थीं।
बुढ़िया लौटी तो बुच्ची अलाव के निकट रखे लोटे में ताड़ी भरकर कटिया लटकाए लौट रहा था। अलाव के धुएं के साथ-साथ हवा में ताड़ी की गंध भी फैल गई। बुढ़िया ने चादर से नाक भी ढक लिया और कुछ बुदबुदाते हुए अंदर चली गई।
‘‘…एक रोटी और ला भुट्टी। ’’ तीसरी रोटी का अंतिम कौर आलू के चोखे के साथ चबाते हुए अजीज ने कहा और एक लंबी डकार ली।
बुढ़िया  ने नाक के पास हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘लगता है आज फिर ज्‍यादा चढ़ा ली है। दाढ़ी तो मौलवियों की तरह रख ली है लेकिन ये हराम नहीं छूटती ’’
अजीज बाहर देखने लगा। आस पड़ोस के लोग अलाव पर पानी छिड़क कर अपने-अपने घरों में बंद हो रहे थे। धीरे-धीरे वहां कब्रिस्‍तान की तरह सन्‍नाटा छा गया।
अचानक लालटेन की लौ फीकी पड़ने लगी। बुढ़िया  ने भी डलिया से रोटी निकाल कर अपने प्‍लेट में रखते हुए कहा, ‘‘ जल्दी से खा लो, …लगता है तेल खत्म होने वाला है।’’
अंदर उसकी पुतोह दरवाजा बंद कर सो गई थी। उसका छोटा बेटा रो रहा था। बुढ़िया रोटी का पहला कौर मुंह में रख कर सोचने लगी ...अभी पिछले महीने तक यह छौरा उसके पास आकर खूब परेशान करता था ...दादी ये ला दो ...दादी वो ला दो ...हाट से आते ही दौड़ पड़ता था ...दादी मिठुअबा सेव दो न ... लेकिन अब देखता है तो नजरें फेर लेता है ...सब ई रंडी ने उसे चढ़ा दिया है नहीं तो बित्ते भर का छोकरा और इतना सयानापन ...ओह ...कैसे कलेजा फाड़ कर रो रहा है छौरा और मतारी रजाई ओढ़े सो रही है ...हरामजादी।
कौर निगलते हुए बुढ़िया ने माथे पर हाथ रखकर पीठ के बल लेटे अजीज से कहा, ‘‘ सुनते हैं... कैसे रो रहा है छौरा। ’’
‘‘ मरने दो हरामजादे को’’
‘‘ कैसी बातें करते हैं आप ...आखिर है तो अपना पोता ही न। ’’
‘‘ कैसा पोता...जब बेटा ही अपना नहीं हुआ तो पोता और पुतोह जाए भाड़ में। ’’ अजीज उत्त्‍तेजित हो गया और फिर अचानक कमर पकड़ कर कराहने लगा ... ‘‘ आह  ...उह ...’’
बुढ़िया ने जल्दी से पानी गले के अंदर उतारा और थाली खाट के नीचे सरकाकर बूढ़े की पीठ दबाने लगी।
 कुछ देर बाद वह खर्राटे भरने लगा तो बुढ़िया ने वहीं बगल में अपनी छोटी सी खटिया बिछा ली और कंबल के अंदर पसर गई। कुछ देर तक लड़के के सिसकने की आवाज सुनाई देती रही। फिर धीरे-धीरे आवाज बंद हो गई।
लालटेन फुक-फुक करके बुझ गई और बुढ़िया के अंदर धुक-धुक कर कुछ जल उठा। पिछले महीने का पहला जुम्‍मा उसे याद हो आया, जब कलाम ने उस पर हाथ छोड़ा औ अपने बाप को धक्‍का देकर उसके सीने पर चढ़ गया। ... बेटा कभी मतारी को मारता है ...मर गया वह मेरे लिए ...मेरी लाश को भी वह कंधा नहीं दे ...मेरा मरा मुंह तक नहीं देखे।
बुढ़िया की आंखों से आंसू की धारा बह रही थी और बूढ़ा जोर-जोर से खर्राटे ले रहा था। बुढ़िया ने आंसू रोकने के लिए साड़ी का किनारा आंखों से सटा लिया ...आखिर क्‍या किया था उसने जो कलाम ने उसे इतनी बड़ी सजा दे दी। ...उसने बस अपनी बीवी की बातें ही सुनीं और ई रंडी ने जाने कैसे उसके कान भर दिए कि पल भर में पराया कर दिया।

...हिन हिन हिन हिन ...घोड़ी जोर से हिनहिनाई तो बुढ़िया अंधेरे में टटोलती हुई उठी। चादर लपेटा और कोठरी के कोने में रखी हुई टोकरी उठाकर बाहर आ गई। धुंध के कारण अंधेरा और अधिक घना हो गया था। बुढ़िया ने घोड़ी की पीठ टटोली और आश्‍वस्‍त हो गई कि उस पर बोरा बंधा है। उसने रस्‍सी खोली और घोड़ी को कोठरी के ओसारे में लाकर खूंटे से बांध दिया। उसके मुंह के सामने घास से भरी टोकरी लाकर रखते हुए बुदबुदाई, ‘‘ ले खा ले बेहया ...तोहरा घास लाने के लिए कितनी दूर जाती हूं कुछ पता भी है।’’
घोड़ी ने प्रसन्‍नता से अपनी देह थरथराई और टोकरी में मुंह डाल दिया। तभी कोई एक्‍सप्रेस ट्रेन गुजरी और गुलमोहर के तने से उछलता हुआ प्रकाश घर की दीवारों से होकर सरसराता हुआ दूर निकल गया। ट्रेन की धकड़-धकड़ जब शांत हो गई तो बूढ़े के खर्राटे की आवाज आनी भी बंद हो गई।
बुढ़िया ने लोटे में रखे पानी से हाथ धोया, तो ठंड से हाथ गलने लगा। वह झट से कंबल में घुस गई और दोनों हाथ रगड़ने लगी। उसके मुंह से ऊहू हू हू ...की आवाज निकलने लगी।
आज नींद बुढ़िया की आंखों से कोसों दूर थी ... हुआ ही क्‍या था ...इतना बड़ा तो कुछ नहीं कर दिया मैंने जो वह रोते हुए चौक तक गई और कलाम को फोन कर आई ...और उसकी बात सुनते ही अगले दिन वह कलकत्‍ते से हाजिर हो गया।
...लेकिन मैंने किया ही क्‍या था जो रंडी मेरे बेटे का कान भर आई ...जो हुआ वो मोहल्ले की सभी औरतों और मर्दों ने देखा था ...मैंने कह ही दिया कि कलाम अपनी सारी कमाई तुम्‍हें देता है, मुझे तो फूटी कौड़ी भी नहीं देता ...तो भला कौन सा आसमान टूट पड़ा .. बूढ़ा रोज पांच बजे भोर में उठकर घोड़ी लेकर स्‍टेशन चला जाता है ...दिन भर सवारी की इधर-उधर पहुंचाता रहता है ...यह कौन नहीं जानता ...इतनी बात सुनते ही सुअर की जनी लगी मुझे गंदी-गंदी गालियां देने ... मैंने भी जवाब दिया और गुस्‍से में बढ़नी (खजूर के पत्‍तों से बना झाडू) उठाकर मारने दौड़ी ...लेकिन उसे मार थोड़े न दिया ...बढ़नी जमीन पर ही गिरी ...सबने देखा पूरा मोहल्‍ला गवाह है ...फिर ऊपरवाला तो देख ही रहा था।
बुढ़िया के सिसकने की आवाज धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी ...जो  रे कलमवा ...चूल्‍हा अलग कर लिया ठीक है, लेकिन आज औरत इतनी प्‍यारी हो गई कि तूने मुझ पर हाथ उठा दिया ...अपनी अम्‍मा पर ...तेरा बाप तुझे रोकने गया तो उसे पटक कर सीने पर चढ़ गया ...और बुढ़वा को गंदी-गंदी गालियां दी ...और बोला काट दूंगा ...छी ...छी ...जो रे कलमवा ...पूरा मोहल्‍ला देख रहा था ... बुढ़िया की सिसकियां कम होने का नाम नहीं ले रही थी ...हां मैंने तुम्‍हें गालियां दी ...जब तू कलकत्‍ता से आया तो सीना भिड़ा के मुझसे पूछने लगा कि बोल तूने उसे बढ़नी से क्‍यों मारा ...अब मैं क्‍या बोलती ...आखिर तूने मेरी कभी सुनी ...केवल उसकी सुनी ...तू मेरा खून है ...मैं तुम्‍हें गाली दे सकती हूं ...मार सकती हूं ...लेकिन तूने तो हद कर दी रे ...

बुढ़िया ने भीगी आंखों को पोछा और कंबल को ऊपर खींच कर मुंह छिपा लिया। लेकिन अगले ही पल करवट बदलकर उसने कंबल से चेहरा बाहर निकाल लिया। भावावेश में सूख गए कंठ को तर करने के लिए उसने खटिया के नीचे से लोटा उठाकर टोंटी मुंह से लगा ली। पानी एकदम बरफ हो गया था। दो-तीन घूंट में ही उसका शरीर ठंड से कंपकंपा गया। उसने झट से अपना चेहरा फिर कंबल से ढक लिया। उसने महसूस किया कि बाहर फैले अंधेरे जितना भयावह कंबल के अंदर का अंधेरा तो नहीं है। सोचते-सोचते न जाने कब उसकी आंखें बंद हो गईं।
सुबह जब बुढ़िया की नींद खुली तो देखा अजीज दातून कर रहा है। बाहर घना कोहरा छाया हुआ था। जमीन गीली हो गई थी, मानो हल्‍की बारिश होकर बंद हो गई हो। पड़ोस में मुर्गा बांग दे रहा था। अजीज कुल्‍ला करके मुंह पोंछने के बाद घोड़ी की रस्‍सी खोलने लगा, तो बुढ़िया ने लेटे-लेटे कहा, ‘‘ इतना भोरवा में जाओगे तो ठंडा मार देगा ...रह जाओगे टनटनाते ...आज तांगा मत ले जाओ। ’’
‘‘ …अरे कुछ नहीं होगा भुट्टी ...होली नजदीक है इसलिए लोग गांव लौट रहे हैं। अच्‍छी सवारी मिल जाएगी।’’ अजीज ने चादर को कनपटी पर कस लिया और घोड़ी को लेकर आगे बढ़ गया।
बुढ़िया कोठरी बुहारने के बाद घोड़ी की लीद को एक जगह जमा करने लगी। कुछ देर में ही धड़धड़ाती हुई मिथिला एक्‍सप्रेस आ गई। वह बड़बड़ाने लगी ...हुंह, आज तो बड़े टैम पर आ गई गाड़ी ...बुढ़वा पहुंचा होगा कि नहीं ...हड़बड़ा जाएगा ...
लीद फेंकने के लिए जाते हुए बुढ़िया का घुटना जकड़ गया। वह खजूर के नीचे टोकरी रख कर बैठ गई और पूरब की ओर आकाश में देखने लगी, जहां कोहरे में छिपा सूरज दिन के चांद की तरह फीका लग रहा था। घुटने में दर्द बढ़ने लगा तो वह पेड़ का सहारा लेकर उठी और लंगड़ाती हुई खटिया पर जाकर लेट गई।

धीरे-धीरे कोहरा कुछ कम हुआ तो सूरज की बेजान किरणों में कुछ जान आई। बुढ़िया चटाई बिछा कर बाहर बैठ गई और गुनगुनी धूप में अपनी देह सेंकने लगी। ठंड से अकड़ी देह में कुछ गरमाहट आई तो उसने कान तक लपेटी चादर हटा ली।
तभी रेलवे लाइन की ओर से औरतों की चीखने की आवाजें उभरी। बुढ़िया ने छाती पर हाथ रख लिया। ‘‘ …या अल्‍लाह ...अभी-अभी गाड़ी गुजरी है। कहीं कोई कट तो नहीं गया ...गे पिलखी वाली क्‍या हुआ है ’’ उसने तेज आवाज में पड़ोस के दरवाजे पर बैठकर चाय पी रही पिलखी वाली से पूछा।
पिलखी वाली ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। वह अपना चश्‍मा ठीक करते हुए उस ओर बढ़ गई जिधर शोर मचा था।
चार-पांच औरतों ने मिलकर बुढ़िया की पुतोह बघनगरी वाली को थाम रखा था। बघनगरी वाली अपना पेट पकड़े कराहते हुए कदम बढ़ा रही थी। रह-रहकर उसकी आंखें मूंद जाती और चीख निकल जाती थी।
बुढ़िया ने पुतोह को दर्द से तड़पते हुए देखा तो मुंह फेर कर बुदबुदाई ...ठीक हुआ ...ऊपर वाला सब देखता है ...किए की सजा नहीं मिलेगी ...बेटा से मतारी को मार खिलाई है ...तुम पर तो बिजली गिरेगी ...
औरतों ने बघनगरी वाली को घर में लिटा दिया। बिस्‍तर पर गिरते ही वह जिबह किए मुर्गे की तरह छटपटाने लगी। घबराए हुए उसके बच्‍चे गला फाड़- फाड़ कर रोने लगे। कुछ औरतें बाहर आईं और बुढ़िया को घेर कर खड़ी हो गई। बुढ़िया एकदम चुपचाप खड़ी थी। उसने किसी से कुछ नहीं पूछा। तभी पकड़ी वाली ने चादर से हाथ बाहर निकाला और बाएं हाथ को छाती से सटाते हुए कहने लगी, ‘‘ अरे क्‍या कहें ...लौटते समय पटरी के पास फिसल गई। वहां नीचे इतना गिट्टी –पत्‍थर पड़ा है ...पेट में चोट आई होगी।’’ बोलते हुए उसकी आंखें धीरे-धीरे बड़ी होती चली गई।
‘‘ … ऐ ...त हमको क्‍या सुनाती है ...जा कलकत्‍ता में इसके भतार को जा के सुना ...’’ बुढ़िया के ललाट की झुर्रियां तन गईं। घृणा से उसके नथुने फैल गए। तभी अंदर से एक औरत दौड़ती हुई आई और बुढ़िया के पास खड़ी होकर कहने लगी, ‘‘ बाप रे ...बघनगरी वाली के त खून गिर रहा है ...जांघ खून से तर है ...’’ बुढ़िया को छोड़कर वहां खड़ी सभी औरतें फिर आंगन में घुस गईं। आठ महीने का फुला हुआ पेट पत्‍थर की तरह कड़ा हो गया था। साड़ी से खून रिस कर बाहर आ रहा था।
किसी ने जाकर मोहल्‍ले के एक पुराने कंपाउंडर अभय शर्मा को खबर कर दी थी। अभय ने दर्द से कराहती बघनगरी वाली की हालत देखी तो घबराहट से उसकी आंखें फैल गईं। नब्‍ज टटोलते हुए कहा,  ‘‘ मामला गंभीर है। तुरंत मुजफ्फरपुर के बड़े डॉक्‍टर के पास ले जाना होगा।’’
अजीज को कोई सवारी मिली नहीं थी। लोग हाथ रिक्‍शे और दूसरे तांगे से निकल गए थे। स्‍टेशन के पुराने गोदाम के पास घोड़ी को घास खाने के लिए खूंटे से बांध वह बीड़ी सुलगाकर धूप का आनंद ले रहा था। धुआं उगलते हुए वह रह-रहकर आंखें मल रहा था और कुछ सोच रहा था ...लंबी दूरी की सवारियां तो उसका सगा छोटा भाई तसलीम और पूरबी टोले का रजेंदरा लपक लेता है ...फिर अब उसका शरीर भी तो इस लायक नहीं रहा कि सवारी के लिए प्‍लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक दौड़ जाए ... तो कभी- कभार बची हुई सवारी ही उसे नसीब होती है ...बीड़ी को मुंह मं फंसाकर उसने कान पर लपेटा गमछा खोला और झाड़कर कंधे पर रख लिया।
तभी वहां एक छोटा लड़का दौड़ता-हांफता हुआ आया। कमर पर लटक रहे ढीले पैंट को एक हाथ से थामे वह कहने लगा, ‘‘ दादा ...बघनगरी वाली चाची गिर गई हैं...रो रही हैं  ...बहुत सारे लोग जमा हैं ...आपको जल्‍दी बुलाया है।’’
‘‘ …अच्‍छा, जा भाग यहां से मैं आ रहा हूं थोड़ी देर में।’’ अजीज ने बीड़ी को दूर फेंककर एक लंबी सांस ली और कमर पकड़ कर धीरे-धीरे खड़ा हो गया।
अजीज जब झटकते हुए दरवाजे पर आया, तो मोहल्‍ले  के बहुत लोग वहां जमा थे। अपनी चादर उतारते हुए वह बुढ़िया के पास गया और उसके चेहरे पर आंखें गड़ाते हुए पूछा ‘’क्‍या हुआ भुट्टी ...’’
‘‘ …ऊपर वाले का इंसाफ है ...मेरा रोआं कलपाएगी त कहर नहीं टूटेगा ...’’ आकाश की ओर हाथ उठाते हुए बुढ़िया ने रुखेपन से जवाब दिया और अपना चेहरा घूमा लिया।
अजीज कंपाउंडर अभय से बातें करने लगा। उसकी बातें सुनकर अजीज के चिपके चेहरे पर अजीब सी उदासी सी छा गई। मोहल्‍ले के लोग जल्‍दी मुजफ्फरपुर में डॉक्‍टर के पास ले जाने की बातें कर रहे थे, लेकिन समस्‍या यह थी कि बघनगरी वाली को डॉक्‍टर के पास ले कैसे जाया जाए। तांगे और आदमी द्वारा खींचे जाने वाले रिक्‍श्‍ो तो स्‍टेशन के पास मिल जाते, लेकिन शहर में जल्‍दी पहुंचने के लिए जीप ऑटो रिक्‍शे की जरूरत थी। इस बीच उस छोटे से स्‍टेशन से सुबह वाली ट्रेन भी जा चुकी थी और अगली ट्रेन कई घंटों के बाद शाम में थी। ले दे के पूरे मोहल्ले में बस हाजी के यहां ही एक जीप थी, लेकिन वह भी दो महीनों से खराब होकर एक कोने में पड़ी हुई थी। तभी मोहल्ले के युनूस ने बताया कि रेलवे लाइन के उस पार रहमान अली ने एक ऑटो रिक्‍शा भाड़े पर चलाना शुरू किया है। तब हाजी और अजीज ने  झट से युनूस को ही ऑटो वाले को बुला लाने को कहा। युनूस ने पास पड़ी अभय की साइकिल उठाई और हड़बड़ाया सा निकल गया।

बघनगरी वाली के बच्‍चों का रो-रोकर बुरा हाल था। मोहल्ले की औरतें उन्‍हें संभाले हुए थीं। बाहर मर्दों में चेमेगोइयां हो रही थीं। तभी अचानक फटफटाता हुआ ऑटो रिक्‍शा हाजी के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। बैचेनी से टहलता हुआ अजीज रुक गया और हाजी के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। उसके पीछे हाजी और कई लोग आगे बढ़ गए।
ढाई सौ रुपए से एक पैसा कम नहीं लेने की जिद पर रहमान अड़ा हुआ था। हाजी ने जब समझाया कि इस मुसीबत में अभी अजीज के हाथ में कुछ भी नहीं है, तो वह कुछ सोचने के बाद दो सौ पर मान गया।
अजीज दौड़ता हुआ घर की तरफ भागा और बुढ़िया के पास ठिठक गया। बुढ़िया की तरफ देखकर अजीज बोला , ‘‘ भुट्टी कुछ पैसा है तो दे दो’’
बुढ़िया ने सिर पकड़कर वहीं नीम के तने से लगकर बैठते हुए कहा, ‘‘ कुछो नहीं है मेरे पास।’’
अजीज झटपट पुतोह के कमरे के बाहर जाकर खड़ा हो गया और आंगन की तरफ नजरें किए हुए बोला, ‘‘ …कनिया, तुम्‍हारे पास कुछ पैसा है तो दे दो।’’
दर्द से छटपटाती हुई बघनघरी वाली ने अपनी बड़ी बेटी के कान में कुछ कहा। बेटी ने दौड़कर कोठी के पीछे रखी एक पुरानी अटैची निकाली और उसमें से एक पर्स निकालकर दादा के हाथ में रख दिया। अजीज ने पर्स खोला तो तुड़ा- मुड़ा एक सौ रुपए का नोट पड़ा था। साथ में दस रुपए के अलावा कुछ सिक्‍के भी थे।
...चलो रिक्‍शे वाले को किसी तरह आज सौ रुपए देकर मना लूंगा, लेकिन डॉक्‍टर की फीस का जुगाड़ कहां से हो ...अजीज खुद को कोसने लगा कि बुढ़िया के हाथ में सब पैसे रखकर वह ठीक नहीं करता है ...उसे अपने पास भी कुछ पैसे रखने चाहिए थे ...यह सोचते हुए अजीज ने खाली पर्स पोती के हाथ में रखा और बाहर निकल आया।
अजीज बाहर आकर सिर पकड़ कर बैठी बुढ़िया के निकट बैठ गया और भर्राए गले से बोला, ‘‘ भुट्टी,जो भी पैसा है पल में वो दे दो ...देर हुई तो उसकी जान चली जाएगी...’’
ऑटो रिक्‍शा वाला रह-रहकर भोंपू बजा रहा था। इस आवाज के साथ-साथ अजीज का कलेजा भी तेजी से धड़क रहा था। बुढ़िया सिर झुकाए पत्‍थर की मूर्ति की तरह बैठी थी।
तभी पड़ोसी युसुफ वहां आया और कहने लगा,  ‘‘ जल्‍दी करिए ...देर हो जाएगी तो क्‍या फायदा होगा।’’
हाजी ने बीड़ी फेंक दी और औरतों की ओर बढ़ता हुआ बोला, ‘‘ ...उसे उठाकर रिक्‍शे में ले चलो...’’ अजीज के नजदीक आते ही वह ठिठक गया और फिर औरतों से जरा ऊंची आवाज में बोला, ‘‘  उसे एक चादर ओढ़ा देना।’’

चार-पांच औरतें बघनगरी वाली को सहारा देकर रिक्‍शे की ओर ले चलीं। हाजी के दरवाजे के बाद रास्‍ता संकरा था, इसलिए रिक्‍शे को वहीं रोकना पड़ा था। बघनगरी वाली के मुंह से ...अम्‍मा गे ...अब्‍बा हो ...जैसी चीखें जोर-जोर से निकल रही थी। चादर में लिपटी देह मुर्दे की तरह शांत थी,लेकिन दर्द से वह अपना सिर दाएं-बांए हिला रही थी। उसके साथ-साथ चल रही औरतें और छोटी लड़कियां अपना हाथ सीने पर रखकर दुआ मांग रही थीं।
बुढ़िया ने आखिरकार अपना सिर नहीं उठाया तो हार-दार कर अजीज उठा और रिक्‍शे की ओर बढ़ गया। अचानक आई इस विपत्ति से उसके होंठ सूख कर कड़े हो गए थे। जाते-जाते उसने पीछे मुड़कर देखा, जहां से वह उठा था, वहां अब उसका नन्‍हा पोता बैठ गया था और दादी को झकझोर रहा था, ‘‘ ...मत लोओ दादी...मत लोओ ...अम्‍मा कहां गेलई ...अम्‍मा के तोट लग गेलई दादी...’’
बुढ़िया बिल्‍कुल भी नहीं हिल रही थी। सारे लोग हाजी के दरवाजे पर चले गए थे। ऑटो रिक्‍शे में एक औरत बघनगरी वाली को पकड़कर बैठ गई थी।
अजीज आगे बढ़कर रिक्‍शे वाले के पास गया और धीरे से बोला, ‘‘ रहमान बाबू, किराया कल ले लेना ...हाथ में कुछ भी नहीं है डॉक्‍टर के लिए...’’
‘‘ लेकिन डीजल तो भरना ही होगा न अगले चौक से ...’’चेहरे को कुछ अजीब तरीके से सिकोड़ते हुए रहमान अली ने कहा, ‘‘ चलिए ठीक है ...अभी कम से कम आधा किराया तो देना ही होगा...’’   
अजीज को कुछ कहते- सुनते नहीं बन रहा था। उसने जेब से सौ रुपए का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ा दिया ...अब बचे हुए दस रुपए में भला डॉक्‍टर की फीस होगी या दवाई...उसके अंदर तूफान उठ रहा था ...ठंड में भी माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं थीं...
अजीज भारी मन से रिक्‍शे में बैठ गया। रहमान रिक्‍शे को चालू करने लगा ...घर्रर्रर्र ...घर्रर्रर्रर्र ...अजीज ने एक बार अपने घर की ओर देखा ...कोहरे की चादर हटाकर निकली धूप की चिलमिलाहट में ठीक से कुछ दिखा नहीं ...एक औरत दौड़ते हुए रिक्‍शे की तरफ आ रही थी...अजीज ने आंखें गड़ाकर देखा ... बुढ़िया दौड़ती-हांफती आ रही है ...उसने अपनी मुट्ठी में एक काला बटुआ दबा रखा था ...
अजीज ने गमछे से अपने माथे का पसीना पोंछा और दाहिना हाथ रहमान के हाथ पर रखते हुए बोला, ‘‘रु‍को ...रुको रहमान बाबू ...एक सवारी और है ...’’
(वर्तमान साहित्‍य’, जून,2014 में प्रकाशित)













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