उदारवादी छवि और आतंक के शोर में गुम मेहनतकश किरदार

- गुलज़ार हुसैन

पिछले दिनों दंगे में अपने युवा बेटे को खोने वाले इमाम रशीदी ने जब हर हाल में भाईचारा बनाए रखने की अपील की, तो बरबस 'शोले' फिल्म के इमाम रहीम चाचा की याद आ गई। इस फिल्म में इमाम साहब का युवा बेटा अहमद जब डाकू गब्बर सिंह के हाथों मारा जाता है, तो वे कहते हैं कि पूछूंगा खुदा से कि मुझे और बेटे क्यों नहीं दिए गांव पर शहीद होने के लिए। दरअसल वर्ष 1975 में आई रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' का यह संवाद हिंदी फिल्मों में मुस्लिम चेहरे का सबसे लोकप्रिय संवाद माना जा सकता है। हिंदी फिल्मों में मुस्लिम चरित्र की मौजूदगी को समझने के लिए 'शोले' के संवाद 'और बेटे क्यों नहीं दिए गांव पर शहीद होने के लिए' और फिल्म 'माय नेम इज खान' के संवाद 'माय नेम इज खान एंड आई एम नॉट ए टेररिस्ट' तक के विस्तार को देखने की जरूरत है।
लोकप्रिय फिल्म शोले का एक दृश्य 
'शोले' के इमाम साहब की उदारवादी छवि से निकलकर मुस्लिम पात्र को 'मैं आतंकी नहीं' कहने की अपील करने की स्थिति तक पहुंचने के लिए कितने वर्ष लगे यह देखना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि इस बीच ऐसा क्या हो गया जिससे सांप्रदायिक दरार इतनी गहरी हो गई। इसके लिए देश-विदेश की बदलती स्थितियों पर ध्यान देने की जरूरत भी है, क्योंकि इसका असर समकालीन फिल्मों पर पड़ता ही है। 70 के दशक की सुपरहिट कमर्शियल या कलात्मक फिल्मों को देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस दौर में मुस्लिम किरदारों का स्वरूप बदला है। इसे फिल्मों में तवायफों और नवाबों की छवि से मुस्लिम किरदारों के मुक्त होने का दौर भी कहा जा सकता है। 70 के दशक में आई कमाल अमरोही की फिल्म 'पाकीजा' और सत्यजीत रे की 'शतरंज के खिलाड़ी' के मुस्लिम किरदार में तवायफ की पीड़ा और नवाबों के घमंड वाली छवि से दूर होने की छटपटाहट साफ दिखाई देती है। इन दोनों फिल्मों में नवाबों की विलासिता और तवायफ की जिंदगी में मिले जख्म की कहानियां हैं। प्रेमचंद की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पर बनी फिल्म में नवाबी शान के दुष्परिणामों की सटीक व्याख्या भी की गई है।

सुपरहिट कमर्शियल फिल्म 'शोले' में इमाम साहब का किरदार ठूंसा हुआ सा प्रतीत होता है, लेकिन यह भी सच है कि इस पात्र के बिना गांव को दर्शाना बेहद मुश्किल है। यह किरदार भारतीय गांव को संपूर्ण बनाता है। भारत के किसी भी गांव की कल्पना बुजुर्ग इमाम के बिना नहीं की जा सकती है, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि गांव में मुस्लिम का मतलब क्या केवल 'इमाम साहब' ही होता है? सच तो यह है कि मेहनतकश मुस्लिम आबादी का जिक्र किए बिना ठीक तरीके से किसी गांव के बारे में कुछ भी बताया ही नहीं जा सकता है। गांव में मेहनत- मजदूरी करने वाली संघर्षरत मुस्लिम आबादी से जुड़ी कहानियों के बिना बड़े पर्दे पर का गांव नकली और सूना दिखाई देता है। यूं तो 1960 में बनी 'मुगल ए आज़म' जैसी भव्य, 1971 में बनी 'पाकीजा' जैसी क्लासिक और 1981 में मुजफ्फर अली  की 'उमराव जान' जैसी कलात्मक फिल्में मुस्लिम किरदारों की चर्चित गाथाएं प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्में आम मुस्लिम जनता की प्रतिनिधि नहीं कही जा सकती हैं। वहीं 1979 में बनी फिल्म 'नूरी' की प्रेम कहानी के किरदार आम लोगों के दिल को छू जाते हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय मुस्लिमों के जीवन संघर्ष को अधिकांश फिल्मों में ढंग से नहीं रखा जा सका है। 

हिंदी फिल्मों में कलात्मक पेंटिंग की तरह दिखाई देने वाला मुस्लिम 70 के दशक में अपनी छवि से मुक्त होता है, लेकिन बाद में उसका यह विस्तार आतंक की परछाई से प्रभावित होकर यथार्थ से कोसों दूर चला जाता है। फिल्मों के उदार मुस्लिम को मेहनतकश मुस्लिम की छवि में बदल जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उल्टा हुआ यह कि यह छवि आगे बढ़कर खुद को 'टेररिस्ट' नहीं समझे जाने की अपील करते युवक या बहकावे में आकर आतंकी बने युवक तक के दायरे में सीमित होकर रह गई।

'धूल का फूल' में 'तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा' गाने वाले चरित्र की जगह बंदूक थामे 'वासेपुर' के हिंसक चरित्र ने ले ली। प्रेम-भाईचारे का सबक सिखाने वाले मुस्लिम किरदार धीरे -धीरे हिंसक नौजवानों में तब्दील होते गए। इससे जो मुस्लिम चेहरा वर्तमान की फिल्मों में दिखना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। टैगोर की कहानी का 'काबुलीवाला' अब फिल्म 'रईस' में गोलियों की बौछार करने वाले हिंसक नायक में तब्दील हो गया। दरअसल हिंदी फिल्मों से जो भारतीय मेहनतकश मुसलमानों का चेहरा नदारद है, वही अगली कड़ी होनी चाहिए थी, लेकिन यह हुआ नहीं। विडंबना यह भी है कि भारत में पसमांदा कही जाने वाली बड़ी मुस्लिम आबादी फिल्मों में नहीं है। टायर के पंचर बनाने से लेकर घर की रंगाई-पुताई करने में लगे मुसलमान युवकों की प्रेम कहानियां बड़े पर्दे से गायब हैं। कहा जा सकता है कि हजारों तरह के काम-धंधे में लगे मुसलमानों का चेहरा हिंदी फिल्मों में ठीक तरह से नहीं आ पाया है। हिंदी फिल्मों की प्रचलित मुख्य धारा में जो मुस्लिम किरदार है वह या तो 'शोले' फिल्म के इमाम साहब की तरह उदार मुसलमान है या फिर खूंखार आतंकी है या फिर फिल्म 'जंजीर' में एक वफादार मुस्लिम दोस्त की तरह मौजूद है। भारतीय मुस्लिमों की छवि ठीक से नहीं रख पाने के लिए ही हिंदी फिल्मी निर्देशकों और लेखकों की आलोचना नहीं की जानी चाहिए, बल्कि उनकी आलोचना इसलिए भी होनी चाहिए कि उन्होंने आतंक को लेकर गढ़ी परिभाषा के तहत ही काम करना शुरू किया। 'फिजा' जैसी फिल्मों में बहका हुआ नौजवान हथियार उठाकर आतंकी बनता दिखाई देता है, लेकिन आतंक के झूठे इल्जाम में वर्षों तक जेल में सड़ने वाला कोई मुसलमान नौजवान फिल्मों में नहीं है।

इसके अलावा कई फिल्मों में दंगा पीड़ित के रूप में डरे हुए मुसलमान की छवि उसे एक 'घेटो' में बदल देने को आतुर दिखाई देती है। 2004 में दंगे की पृष्ठभूमि पर बनी गोविंद निहलानी की फिल्म 'देव' उजड़ते मुस्लिम परिवारों को दर्शाने में सफल है, लेकिन सत्ता प्रेरित आतंकवाद से घबराए मुसलमान के मन को यह फिल्म ठीक से पकड़ नहीं पाई है। निश्चित रूप से 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उभरे खतरनाक सांप्रदायिक माहौल या वैश्विक आतंकवाद का असर हिंदी फिल्मों के मुस्लिम पात्रों पर पड़ा है। यह प्रभाव इतना गहरा है कि हर तरह के आतंक और राजनीतिक प्रेरित खूनी सांप्रदायिकता के साए में जी रहे मुस्लिम किरदारों की दशा और दिशा तय कर रहा है। लेकिन इस प्रभाव में आकर बनी फिल्मों में दिन-रात जी-तोड़ मेहनत कर देश को और बेहतर बनाने में लगे मुस्लिमों की कहानियां नहीं आ पाईं हैं। गुजरात नरसंहार में सहमे माइनॉरिटीज की पीड़ा को 2007 में आई राहुल ढोलकिया की फिल्म 'परजानिया' में बहुत अच्छे तरीके से रखा गया है। गुजरात दंगे के दौरान बिछड़े एक पारसी बच्चे अजहर की कहानी के साथ ही मुस्लिमों की भीषण तकलीफ को भी बड़ी शिद्दत से इस फिल्म में महसूस किया जा सकता है। दरअसल नरसंहार और दंगों पर बनी ज्यादातर फिल्में मुस्लिम चरित्र को एक ट्रैप का शिकार दिखाती तो हैं, लेकिन समाज में नफरत फैलाने में लगी सांप्रदायिक -जातिवादी गोलबंदी की निशानदेही करने में यह असफल रही है।
मुस्लिम डॉन, गैंगस्टर या अंडरवर्ल्ड पर बनी हिंदी फिल्में अत्यधिक हिंसक गतिविधियों को दर्शाती प्रतीत होती हैं, लेकिन उनकी निजी जिंदगी और मजबूरियों को ठीक से समझा नहीं पाती हैं। इस तरह 'डॉन नुमा' फिल्म बस मामूली क्राइम फिल्म बन कर रह जाती है। 1997 में पार्थो घोष के निर्देशन में 'गुलाम-ए-मुस्तफा' नामक फिल्म अपराध जगत में फंसे मुस्लिमों की पीड़ा को रखने में सफल रही है, लेकिन इसके बावजूद हिंसा के अंदर इस फिल्म की खूबियां दब जाती हैं। इसके अलावा भी कई उल्लेखनीय फिल्म अपराध जगत की कहानियों पर बनी है, लेकिन यह फिल्में अपराध जगत की पोल खोलने में कामयाब नहीं रही हैं। कई बार तो निर्माता-निर्देशक किसी नए-पुराने डॉन की जिंदगी पर आधारित फिल्में बना देते हैं और उसमें अत्यधिक हिंसा और नाच-गाने जैसा मसाला ठूंस देते हैं। इससे फिल्म काल्पनिकता में डूबी और हिंसक मसाला फिल्म बन कर रह जाती है। वर्ष 2010 में डॉन दाऊद इब्राहिम पर बनी फिल्म 'वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई' और 2012 में रऊफ लाला के खूंखार किरदार से चौंकाने वाली फिल्म 'अग्निपथ' भी कुछ खास छाप नहीं छोड़ पाई है।
मुस्लिम स्त्री से जुड़ी समस्याओं को दिखाने में भी हिंदी फिल्में कुछ खास असर नहीं छोड़ पाई हैं। पुरुषवादी समाज में औरतों पर होने वाले अत्याचार को बहुत कम फिल्मों में जगह दी गई है। इंस्टैंट तीन तलाक जैसे मुद्दे पर बनी फिल्में भी बहुत ज्यादा उल्लेखनीय नहीं कही जा सकती हैं। 1982 में आई बीआर चोपड़ा की फिल्म 'निकाह' ने मुस्लिम समाज के कई सामाजिक पहलुओं को सामने जरूर रखा, लेकिन तीन तलाक के पीछे छुपे मर्दवादी जुनून को वह सामने नहीं ला पाई। भारतीय मुस्लिम समाज में बहुत कम फैली हुई, लेकिन गंभीर बनी इस तीन तलाक की समस्या पर अच्छी पटकथा की कमी खलती है। इस मुद्दे पर 1973 में बनी ताराचंद बड़जात्या की फिल्म 'सौदागर' मर्दवादी मुस्लिम के छल-कपट को बड़े सटीक ढंग से सामने रखती है। लेकिन दूसरी ओर इस फिल्म का मुख्य पात्र मोती (अमिताभ बच्चन) जिस आनन-फानन में अपनी बीवी को तलाक देता है, वह असामान्य प्रतीत होता है। यह कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों में मुस्लिम स्त्री-पुरुष के रिश्ते के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती फिल्में नाम मात्र की बनी हैं।

इधर नई फिल्मों में मुस्लिम पात्रों का चेहरा बदला जरूर है लेकिन फिर भी वह सच्चाई से कोसों दूर है। अब फिल्मों में पढ़ा-लिखा मुस्लिम नौजवान दिखाई देता है, जो कैरियर बनाने की चुनौतियों से जूझ रहा है। नई फिल्मों ने पुरानी फिल्मों से चली आ रही मुस्लिम किरदारों की रूमानी परंपरा को भी ध्वस्त तो किया ही है। 'मेरे महबूब' फ़िल्म का शायर अब नए दौर में करियर को लेकर फिक्रमंद है। वर्ष 2009 में आई फ़िल्म 'थ्री इडियट्स' इसका अच्छा उदाहरण है, जिसमें फरहान कुरेशी नामक पात्र कैरियर बनाने के लिए चिंतित हैं। इसके अलावा परंपरावादी जड़ता को तोड़ती कई उल्लेखनीय फिल्में पिछले कुछ वर्षों में सामने आई हैं, जिसने मुस्लिम किरदार को नया आयाम दिया है। इनमें 'रंग दे बसंती', 'चक दे इंडिया', 'सरफरोश', 'वीर जारा' जैसे कई नाम शामिल हैं।

इसके बावजूद सवाल जस का तस बना रह जाता है कि हिंदी फिल्मों से मेहनतकश और पसमांदा मुस्लिम की समस्याएं नदारद क्यों है? भारत में ज्यादातर मुसलमान मेहनतकश है, लेकिन मेहनत-मजदूरी करके रोजी- रोटी कमाने वाले मुसलमानों की कहानियों पर फिल्में क्यों नहीं बन रही हैं? इसके अलावा महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक वेश्यावृत्ति के दलदल में धंसने को मजबूर की जाती मुस्लिम स्त्रियां भी फिल्मों में नहीं हैं। आज के हिंदी फिल्म लेखकों-निर्देशकों के सामने बड़ी चुनौती है कि वे मुस्लिम जीवन से जुड़ी कहानियां सामने ला सकें और विश्व सिनेमा में हिंदी फिल्मों की छवि बेहतर बना सकें।

('बया' के अप्रैल- जून, 2018 अंक में प्रकाशित ) 

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