खातिया और हरी-भरी पगडंडियां
BY GULZAR HUSSAIN
तब मैं छठी या सातवीं कक्षा का छात्र था, जब जार्जियन साहित्यकार नोदर दुंबाद्जे का उपन्यास ‘आशा की किरण’ मेरे हाथ लगा था। इसे मेरे भैया ने लाया था। आकर्षक कवर पर सफेद कपड़े पहने पंगडंडी पर खड़ी खातिया थी। परी सी सुंदर। उस समय तक तो बाल-पत्रिकाओं का चस्का लग ही गया था मुझे, इसलिए उस उपन्यास को पढ़ने से खुद को रोक नहीं सका। मैंने उसे चुपके -चुपके पढ़ना शुरू कर दिया और खातिया के साथ एक नई दुनिया में पहुंच गया। बाद में यह किताब न जाने कहां चली गई।
इधर जब इंटरनेट पर मैंने ‘आशा की किरण’नाम से इसे ढूंढना शुरू किया तो मुझे कुछ भी हाथ नहीं लगा। हां लेखक और पात्र खातिया के नाम से मुझे कई जानकारियां मिलीं। मैंने जाना कि 1962 में लिखा गया यह एक चर्चित जार्जियन उपन्यास ‘आई कैन सी द सन’ है और इस पर उल्लेखनीय फिल्म भी बन चुकी है। जो खातिया मेरे मन में बसी है, निर्देशक ने ठीक वैसी ही खातिया को चुना था फिल्म के लिए। अब मैं उस जार्जियन फिल्म को किसी भी तरह देखने का इच्छुक हूं। हां ...मैं अपनी खातिया को ढूंढ रहा हूं।
खातिया एक दृष्टिहीन लड़की है, लेकिन उसके सपने उस गांव की हरियाली से अधिक चमकीले हैं। मासूम मुस्कान लिए खातिया अब भी नर्म घासों से भरी पगडंडियों पर दौड़ती हुई आती है और अचानक किसी बगीचे में गुम हो जाती है। हां उसका एक प्रेमी भी था।कहा जाता है कि लोग अपना पहला प्यार नहीं भूल सकते हैं, तो बचपन में पढ़ा गया पहला उपन्यास और उसके पात्रों को कैसे भूल सकते हैं। मैं भी नहीं भूला। मुझे उस उपन्यास के गांव की हरी-भरी पगडंडी याद है ...उस गांव के मेहनती और बेहद आत्मीय लोग याद हैं ...उस गांव की अल्हड़ और हंसमुख लड़कियां याद हैं ...बेलगार की पनचक्की याद है ...और संगमरमर से सफेद कपड़ों में रहने वाली सुंदर युवती खातिया की खिलखिलाहट याद है। उपन्यास में खातिया एक दृष्टिहीन लड़की है, लेकिन उसके सपने उस गांव की हरियाली से अधिक चमकीले हैं। मासूम मुस्कान लिए खातिया अब भी नर्म घासों से भरी पगडंडियों पर दौड़ती हुई आती है और अचानक किसी बगीचे में गुम हो जाती है। हां उसका एक प्रेमी भी था। सोसोया। लेकिन मुझे उसका चेहरा ठीक से याद नहीं...उपन्यास की कहानी भी अब पूरी तरह याद नहीं है, लेकिन खातिया का अल्हड़पन मुझ इतना असर कर गया था कि उसे भूलना आसान नहीं था।
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‘आई सी द सन’ फिल्म का एक दृश्य |
तब मैं छठी या सातवीं कक्षा का छात्र था, जब जार्जियन साहित्यकार नोदर दुंबाद्जे का उपन्यास ‘आशा की किरण’ मेरे हाथ लगा था। इसे मेरे भैया ने लाया था। आकर्षक कवर पर सफेद कपड़े पहने पंगडंडी पर खड़ी खातिया थी। परी सी सुंदर। उस समय तक तो बाल-पत्रिकाओं का चस्का लग ही गया था मुझे, इसलिए उस उपन्यास को पढ़ने से खुद को रोक नहीं सका। मैंने उसे चुपके -चुपके पढ़ना शुरू कर दिया और खातिया के साथ एक नई दुनिया में पहुंच गया। बाद में यह किताब न जाने कहां चली गई।
इधर जब इंटरनेट पर मैंने ‘आशा की किरण’नाम से इसे ढूंढना शुरू किया तो मुझे कुछ भी हाथ नहीं लगा। हां लेखक और पात्र खातिया के नाम से मुझे कई जानकारियां मिलीं। मैंने जाना कि 1962 में लिखा गया यह एक चर्चित जार्जियन उपन्यास ‘आई कैन सी द सन’ है और इस पर उल्लेखनीय फिल्म भी बन चुकी है। जो खातिया मेरे मन में बसी है, निर्देशक ने ठीक वैसी ही खातिया को चुना था फिल्म के लिए। अब मैं उस जार्जियन फिल्म को किसी भी तरह देखने का इच्छुक हूं। हां ...मैं अपनी खातिया को ढूंढ रहा हूं।
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