स्त्रियों की आजादी पर पहरे
By Gulzar Hussain
स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पहरे लगाने के बहाने उनकी राह में कांटे बिछाने की साजिश पुरुषवादी समाज हमेशा रचता रहा है। पिछले कुछ दशक से स्त्रियों की आजादी पर पहरे लगाने के तरीके जरूर बदले हैं, लेकिन हालात पहले जैसे ही भयावह हैं। इधर, वर्तमान समाज को आधुनिक कहने या मानने के नाम पर इतने बड़े मुद्दे को झुठलाया जरूर जाता रहा है, जिससे स्त्रियों से जुड़ी समस्याएं और बढ़ गईं हैं। दरअसल स्त्री की स्वतंत्रता से पुरुषवादी समाज इतना अधिक डरता है कि वह नैतिकता, शिष्टाचार और धार्मिक रीति रिवाजों के बहाने स्त्रियों पर रोक-टोक लगाता रहता है।
स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पहरे लगाने के बहाने उनकी राह में कांटे बिछाने की साजिश पुरुषवादी समाज हमेशा रचता रहा है। पिछले कुछ दशक से स्त्रियों की आजादी पर पहरे लगाने के तरीके जरूर बदले हैं, लेकिन हालात पहले जैसे ही भयावह हैं। इधर, वर्तमान समाज को आधुनिक कहने या मानने के नाम पर इतने बड़े मुद्दे को झुठलाया जरूर जाता रहा है, जिससे स्त्रियों से जुड़ी समस्याएं और बढ़ गईं हैं। दरअसल स्त्री की स्वतंत्रता से पुरुषवादी समाज इतना अधिक डरता है कि वह नैतिकता, शिष्टाचार और धार्मिक रीति रिवाजों के बहाने स्त्रियों पर रोक-टोक लगाता रहता है।
स्त्रियों पर पहरे लगाने के कई बहाने पुरुषवादी समाज के पास हैं। इन बहानों का उपयोग ही वे हथियारों के रूप में भी करते हैं। इतिहास गवाह है कि सती प्रथा, विधवाओं का परित्याग करने की प्रथा और अन्य धर्मांध परंपराओं के नाम पर स्त्रियों के अस्तित्व मिटाने के प्रयास किए जाते रहे हैं। वर्तमान समय में भी पुरुषवादियों ने कई नए हथियार ईजाद कर लिए हैं। वे कभी पहनावे, तो कभी शिक्षा, तो कभी मोबाइल के इस्तेमाल के नाम पर स्त्रियों की राह में कांटे बिछाते हैं। ऐसे कई बहानों से स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पहरे लगाने के प्रयास के अलावा पिछले कुछ दशकों से ‘ऑनर किलिंग’जैसी समस्या भी बहुत गंभीर रूप से सामने आई है। ‘ऑनर किलिंग’ के मूल में दरअसल स्त्री विरोधी मानसिकता ही छुपी है।ऑनर किलिंग’ के मूल में दरअसल स्त्री विरोधी मानसिकता ही छुपी है। इसी के बहाने किसी लड़की की इच्छा और उसके सपने को कुचलने का सबसे प्रखर हथियार पुरुषवादियों ने ईजाद कर लिया है।
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Drawing by Gulzar Hussain |
उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में स्त्रियों की स्वतंत्रता पर सबसे बड़ा पहरा उनसे उनके प्रेम करने का अधिकार छीन लेना ही है। किसी भी समाज में अगर लड़कियों से उनकी प्रेम करने की आजादी छीन ली जाए, तो शेष और स्तरों पर भी उन्हें प्रताड़ित करना आसान हो जाता है। जिस समाज में प्रेम करने वाली लड़की को चरित्रहीन कह कर दुत्कारा और मारा जा सकता है, वहां भला उनके कैरियर और शिक्षा को लेकर प्रगतिशीलता कैसे बची रह सकती है। यही वह बिंदू है, जहां से एक स्त्री को प्रताड़ित करने का सिलसिला शुरू होता है।
एक युवती को अंतर्जातीय विवाह (Inter-caste marriage) करने पर बंदिशें होती हैं और अगर उसने समाज या परिवार के विरुद्ध जाकर ऐसा कर लिया, तो फिर उसकी जिंदगी पर खतरे मंडराने लगते हैं। देश में पिछले कुछ वर्षों में हुए ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं पर यदि नजर डाली जाए, तो अधिकांश मामले लड़कियों की इच्छा या चयन के विरोध में ही हुए हैं। ‘ऑनर किलिंग’ दरअसल स्त्री विरोधी हिंसा है। यह हिंसा केवल स्त्रियों की आजादी के खिलाफ है। किसी अमीर लड़की के गरीब लड़के या दलित लड़के से प्रेम करने की सजा के तौर पर ही ‘ऑनर किलिंग’ जैसी हिंसक प्रक्रिया की शुरूआत हुई है। यहां एक लड़की को पुरुषवादी समाज या परिवार इज्जत से जोड़कर देखता है और उसकी परवरिश करता है, वहीं ऐसे में यदि कोई लड़की स्वतंत्रता की पक्षधर होती है तो कट्टरपंथी परिवार उसकी जान लेने पर उतारू हो जाता है।‘ऑनर किलिंग’ दरअसल स्त्री विरोधी हिंसा है। यह हिंसा केवल स्त्रियों की आजादी के खिलाफ है। किसी अमीर लड़की के गरीब लड़के या दलित लड़के से प्रेम करने की सजा के तौर पर ही ‘ऑनर किलिंग’ जैसी हिंसक प्रक्रिया की शुरूआत हुई है। यहां एक लड़की को पुरुषवादी समाज या परिवार इज्जत से जोड़कर देखता है और उसकी परवरिश करता है, वहीं ऐसे में यदि कोई लड़की स्वतंत्रता की पक्षधर होती है तो कट्टरपंथी परिवार उसकी जान लेने पर उतारू हो जाता है।
परिवार के अंदर ही एक लड़का अपेक्षाकृत अधिक बेहतर शिक्षा पाता है और उच्च कैरियर के सपने देखता है, लेकिन लड़कियों को कम पढ़ने और परिवार की मर्जी से शादी कर देने तक के सपने देखने की ही आजादी दी जाती है। उसके बाद लड़कियों को पर्दे में रखने के बहाने उनके पहनावे भी पुरुषवादी समाज ही तय करता है। वह बार -बार किसी न किसी रूप में पहनावे के आधार पर लड़कियों को चरित्रहीन साबित करता है और प्रताड़ित भी करता है।दरअसल, ‘ऑनर किलिंग’ स्त्रियों की आजादी पर रोक लगाने की चरम स्थिति है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि फिर स्त्रियों की आजादी छीनने जैसी मानसिकता के पनपने की पहली सीढ़ी क्या है? इस पुरुषवादी समाज में किसी परिवार के अंदर ही स्त्री विरोधी मानसिकता पनपती है। एक लड़के को बचपन से ही परिवार में लड़कियों की अपेक्षा उच्च स्तरीय होने का भान कराया जाता है। परिवार के अंदर ही एक लड़का अपेक्षाकृत अधिक बेहतर शिक्षा पाता है और उच्च कैरियर के सपने देखता है, लेकिन लड़कियों को कम पढ़ने और परिवार की मर्जी से शादी कर देने तक के सपने देखने की ही आजादी दी जाती है। उसके बाद लड़कियों को पर्दे में रखने के बहाने उनके पहनावे भी पुरुषवादी समाज ही तय करता है। वह बार -बार किसी न किसी रूप में पहनावे के आधार पर लड़कियों को चरित्रहीन साबित करता है और प्रताड़ित भी करता है।
शादी के बाद तो और बड़ी समस्या लड़कियों के सामने आ खड़ी होती है। अपरिचित लड़के की हर कमजोरियों और दुर्गुणों को चुपचाप सहन करने के साथ-साथ उन्हें दहेज के नाम पर ताने सुनने पड़ते हैं। दहेज हत्या या अन्य तरह की प्रताड़नाओं से भी स्त्रियों को इन्हीं क्षणों में गुजरना होता है।इसके बाद अरैंज मैरिज के नाम पर दहेज प्रथा का पुरुषवादी खेल शुरू हो जाता है। काम चलाने लायक शिक्षित करने के बाद लड़कियों पर अरैंज मैरिज करने का भरपूर दबाव होता है, जिससे उसके कैरियर के सपने धूल में मिल जाते हैं। उत्तर भारत में तो यह समस्या सबसे भयावह रूप में है। वर पक्ष को दहेज देने की तैयारी में लगा परिवार लड़की को हर समय कमतर और कमजोर होने का एहसास कराता है। इससे लड़कियों को यह लगता है कि वह स्वयं अपने परिवार की सबसे बड़ी दुश्मन है और इससे धीरे -धीरे एक अपराध बोध उसमें घर कर जाता है। शादी के बाद तो और बड़ी समस्या लड़कियों के सामने आ खड़ी होती है। अपरिचित लड़के की हर कमजोरियों और दुर्गुणों को चुपचाप सहन करने के साथ-साथ उन्हें दहेज के नाम पर ताने सुनने पड़ते हैं। दहेज हत्या या अन्य तरह की प्रताड़नाओं से भी स्त्रियों को इन्हीं क्षणों में गुजरना होता है।
वहीं दूसरी तरफ आधुनिकता के लिबास ओढ़े स्त्री विरोधियों की भी कलई खोली जाए। गांवों में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की शिक्षा, कैरियर और स्वास्थ्य को लेकर बहुत अधिक लापरवाही बरती जाती है। अरैंज मैरिज के नाम पर दहेज प्रताड़ना, पहनावे और उसके रहन- सहन को लेकर लगातार रोक-टोक, लड़कियों को बचपन से हीन- भावना से भरने के पुरुषवादी षड्यंत्र हैं। इसके अलावा लड़कियों को उनकी किसी शारीरिक प्रक्रिया या बदलाव को लेकर कई कार्यक्रमों से दूर किया जाना, धार्मिक- मजहबी शिक्षा के नाम पर उन पर लड़कों की अपेक्षा अतिरिक्त शिष्ट बनने का दबाव डालना और किसी बड़े लक्ष्य को चुनने की स्वतंत्रता नहीं देना जैसी कई परंपराएं अब भी समाज के पुरुषवादी वर्चस्व को दर्शाती हैं।
वहीं इसके अलावा टीवी और अन्य विज्ञापनों के माध्यम से गोरा रंग पाने, विशेष सेंट से प्रभावित करने के नाम पर लड़कियों के आत्मसम्मान को लगातार ठेस पहुंचाने का धंधा भी फल-फूल रहा है। ...और ऐसे स्त्री विरोधी विज्ञापनों को नामचीन अभिनेताओं -खिलाड़ियों से खुलेआम सजाया- सवांरा जाता है।
अक्सर, जिन विषयों को छोटा और महत्वहीन समझ कर दरकिनार कर दिया जाता है, वही स्त्री विरोधी मानसिकता को भी बढ़ावा देता है। दरअसल यही छोटी प्रचलित प्रथाएं पुरुषवादी षड्यंत्र के शुरूआती बिंदू भी हैं जो धीरे- धीरे विशाल धब्बे में परिवर्तित हो जाते हैं और स्त्री के अस्तित्व को कैद कर लेते हैं।
लड़कियों से छेड़खानी, बलात्कार या हत्या जैसी घटनाओं को रोकने के लिए ऐसी स्त्री विरोधी प्रचलित प्रथाओें को जड़ से समाप्त करने की भी आवश्यकता है। वहीं दूसरी ओर स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पहरे लगाने की बजाय उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने की जरूरत पर जोर देने की जरूरत है। धर्म -मजहब और समाज के ठेकेदारों को यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं में स्वतंत्रता की स्थिति ही भविष्य में एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकती है।
( 'महिला अधिकार अभियान' के अगस्त, 2014 अंक में प्रकाशित)
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