मन में चिंगारी भर देने वाले राजेन्द्र यादव अगर आज होते
By Gulzar Hussain
ओह! ...राजेन्द्र यादव यह नहीं जान पाए कि गाँव-देहात के सरकारी स्कूल में झोले में किताब रखकर स्कूल जाने वाला एक लड़का उन्हें इतना अधिक प्यार करता था। उसके मन में इतना अधिक उनके लिए सम्मान था कि उनके साहसिक व्यक्तित्व के सामने सारे फ़िल्मी एक्शन हीरो के तिलिस्म धीरे -धीरे फीके पड़ गए। युवावस्था आते ही कब राजेन्द्र 'रीअल हीरो' बन बैठे, पता ही नहीं चला। गाँवों में शोषण और अत्याचार देखकर पढाई -लिखाई से निराश उस युवक के मन में धर्मान्धों, कट्टरपंथियों और परंपरावादियों की चुन-चुन कर धज्जियां उड़ाने वाले राजेन्द्र के सम्पादकीय ने चिंगारी भर दी थी।
'हंस' के सम्पादकीय में जिस तरह उन्होंने लगातार ताकतवर साम्प्रदायिक नेताओं और पूंजीपतियों की खबर ली ,वह सब एकदम से अभूतपूर्व और रोंगटे खड़े करने वाला था। जिस तरह उन्होंने सवर्णवादियों के ढकोसलों और यातनाओं को बेनकाब किया, वह सब हमेशा कुछ लिखने ,कुछ करने को प्रेरित करता रहा था। उन्होंने जिस प्रकार हिंदी साहित्य में दलितों,स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को मंच प्रदान किया ,वह सब हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। राजेन्द्र , काश आप यह जान पाते कि घर से बहुत कम जेबखर्च मिलने के बावजूद गाँवों -कस्बों के बहुत सारे नौजवान केवल आपके लिए ' हंस' खरीदते थे। और अगर कभी 'हंस' नहीं खरीद पाते, तो आपके संपादकीय की जेरोक्स कापी कहीं न कहीं से जुगाड़ कर ही लेते और संभाल कर रखते थे ...
मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया इसका दुःख मुझे हमेशा रहेगा। हाँ उनसे फोन पर बातें जरूर हुईं थी। मुंबई में जब नाटककार विजय तेंदुलकर का देहांत हो गया था, तब मैंने उनसे फोन पर बातें की थीं। एकदम से जिन्दादिली और उत्साह से उन्होंने मुझसे बातें की थी। एकदम से लगा नहीं था कि इतने बड़े लेखक से पहली बार बात कर रहा हूँ। मैं कुछ घबराया हुआ था लेकिन उनकी बातें सुनकर सामान्य हो गया। उन्होंने तेंदुलकर को अपने समय का महान नाटककार बताया था। उन्होंने कहा था कि तेंदुलकर ने अपने नाटकों में सेक्स और हिंसा का जो सटीक प्रयोग किया है, वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने मोहन राकेश, बदल सरकार के साथ तेंदुलकर के नाटकों के महत्व पर चर्चा की थी । बातचीत ख़त्म होते- होते उन्होंने कहा था , "अच्छा सुनो, अखबार में यह सब प्रकाशित होने पर मुझे भेजना।" मैंने कहा था कि जरूर भेजूंगा सर।
"राजेंद्र यादव ने 'हंस' के संपादकीय में हर मुद्दे को छुआ। चाहे वो नक्सलवाद का मुद्दा हो या चाहे सांप्रदायिकता की राजनीति का। उन्होंने सब विषयों पर बेबाक और साहसिक टिप्पणियां की। वे ऐसे समय में सांप्रदायिक -राजनीतिक ताकतों के खिलाफ लिख रहे थे,जब देश भर में ऐसे विषय पर एक चुप्पी छाई थी। राजेंद्र ने धर्मांध ताकतों और कट्टरवाद के खिलाफ जैसा लिखा,उस दौरान कोई दूसरा लेखक इस तरह लिखने का साहस भी नहीं कर सकता था। उन्होंने शब्दों को भरे हुए बंदूक की तरह इस्तेमाल किया और नए ढंग के क्रांतिकारी लेखन की धारा चल निकली। कट्टरपंथी और सांप्रदायिक ताकतों ने उनके लेखन का जबर्दस्त विरोध किया, लेकिन उनके लेखन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
हिंदी साहित्य को नई दिशा देने वाले राजेंद्र यादव चुपचाप चले गए। उनका यों अचानक चुपके से चले जाना इसलिए भी खल रहा है, क्योंकि उन्हें अभी और बहुत कुछ लिखना था...क्योंकि वे किसी भी मुद्दे पर चुप बैठे रह जाने वाले लेखक नहीं थे। देश -विदेश की हर छोटी से लेकर बड़ी समस्या पर उनकी कलम चलती थी। 'हंस' पत्रिका में उनके संपादकीय उनके साहसिक लेखन के प्रमाण हैं। उन्होंने अपने क्रांतिकारी लेखों से अपनी एक विशेष छवि बनाई। उनकी यह आक्रामक या 'एंग्री यंग मैन' की छवि नई पीढ़ी में अत्यंत लोकप्रिय रही।
'हंस' के संपादकीय लेखन का दौर उनके अत्यंत सफल और चर्चित साहित्यिक लेखन के बाद का है। लेकिन यह निर्विवाद है कि 'हंस' की उनकी पारी ने उन्हें बहुत गंभीर और क्रांतिकारी लेखक के रूप में स्थापित किया। 'हंस' के माध्यम से उन्होंने नई पीढ़ी के लिए मंच तैयार किया। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण क्षण तब आया जब उन्होंने हिंदी साहित्य में दलित, अल्पसंख्यक और स्त्री विमर्श की शुरुआत की। 'हंस' में वह सब कुछ हो रहा था जो हिंदी साहित्य में इससे पहले कभी नहीं हुआ था। यह अभूतपूर्व और क्रांतिकारी कदम था। दलित,स्त्री और अल्पसंख्यक विमर्श के विशेषांकों को न केवल बहुत चर्चा मिली, बल्कि अब तक हाशिए पर रहे लेखकों को एक बहुत बड़ा प्लेटफार्म भी मिला।
निस्संदेह यह सब हिंदी में पहली बार हो रहा था, इसलिए हिंदी साहित्य इससे बहुत समृद्ध हुआ। उन्होंने 'हंस' को एक लोकतांत्रिक पत्रिका के रूप में उभारने का प्रयास किया,जिसमें हाशिए पर कर दिए गए लोगों और वंचित जाति समूहों की बात सामने आ सके। राजेंद्र का यह योगदान हिंदी साहित्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ और 'हंस ' के अलावा भी कई अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं ने इस मार्ग पर चलने का प्रयास किया। राजेंद्र यादव ने 'हंस' के संपादकीय में हर मुद्दे को छुआ। चाहे वो नक्सलवाद का मुद्दा हो या चाहे सांप्रदायिकता की राजनीति का। उन्होंने सब विषयों पर बेबाक और साहसिक टिप्पणियां की।
वे ऐसे समय में सांप्रदायिक -राजनीतिक ताकतों के खिलाफ लिख रहे थे,जब देश भर में ऐसे विषय पर एक चुप्पी छाई थी। राजेंद्र ने धर्मांध ताकतों और कट्टरवाद के खिलाफ जैसा लिखा,उस दौरान कोई दूसरा लेखक इस तरह लिखने का साहस भी नहीं कर सकता था। उन्होंने शब्दों को भरे हुए बंदूक की तरह इस्तेमाल किया और नए ढंग के क्रांतिकारी लेखन की धारा चल निकली।
कट्टरपंथी और सांप्रदायिक ताकतों ने उनके लेखन का जबर्दस्त विरोध किया, लेकिन उनके लेखन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे लगातार लिखते रहे। सांप्रदायिक दंगे और प्रांतवादी माहौल पैदा करवाने वाले ताकतवर राजनीतिज्ञों को उन्होंने खुले तौर पर 'नरभक्षी' और 'भेड़िया' कहा। नक्सलवाद रोकने के नाम पर होने वाले सरकारी जुल्मों का उन्होंने डंके की चोट पर विरोध किया। पिछले दिनों के संपादकीय में उन्होंने देश की बदलती राजनीति की तस्वीर बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत की। आज जिस तरह नफरत की राजनीति का बोलबाला है, उसमें उनके लेखन की कमी बहुत खलती है ...उनके चिंगारी भरे संपादकीय की कमी खलती है। अगर वे आज होते तो कट्टरपंथियों की धज्ज्यिां उड़ा देते।
उनका मानना था कि देश में वामपंथी पार्टियों की असफलता के कारण ही सांप्रदायिक ताकतों के कदम लगातार आगे बढ़ते चले गए। राजेंद्र यादव के संपादकीय में इस तरह के क्रांतिकारी तेवर नई पीढ़ी को खूब भाए। युवाओं में उनके संपादकीय को लेकर हमेशा एक इंतजार रहने लगा। महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह सब केवल साहित्यिक गलियारों तक ही सीमित नहीं रहा। वे साफ तौर पर कहते रहे कि जो साहित्य वंचित समुदायों, गरीबों और सदियों से प्रताड़ित स्त्री की बात नहीं करेगा, उसे समय खारिज कर देगा। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि पीड़ित और शोषित जन जब स्वयं लेखन करेंगे तभी सच्चाई सामने आ पाएगी। उनके कबीर और सुकरात जैसे तेवर ने ही उन्हें युवाओं का 'रियल हीरो' बना दिया। 28 अगस्त, 1929 को आगरा में जन्में राजेंद्र यादव का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
नई कहानी को गढ़ने और संवारने में मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की त्रयी का उल्लेखनीय योगदान माना जाता रहा है। राजेंद्र यादव के उपन्यास और कहानियां भी अत्यंत चर्चित रहीं हैं। उनका उपन्यास 'सारा आकाश' तो नई पीढ़ी को बहुत अधिक पसंद आया। इसके मुख्य पात्र प्रभा और समर की कहानी अधिकांश भारतीय परिवार की कहानी जैसी थी। परंपरावादी संस्कार और नैतिक द्वंद्व का शिकार पात्र समर अपनी पत्नी से अक्सर दूर रहता है,लेकिन जब वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचना शुरू करता है, तो उसे अपनी गलती पता चलती है। 'सारा आकाश' पर बाद में बासू चटर्जी ने फिल्म भी बनाई जो अत्यंत चर्चित रही। इसके अलावा उनके अन्य उपन्यास भी खासे चर्चित रहे। उनकी कहानियों ने जन मानस पर बहुत अधिक प्रभाव छोड़ा। 'जहां लक्ष्मी कैद है' जैसी कहानियों ने युवाओं को झकझोर कर रख दिया।
मैं एक ऐसे अपने मित्र को जानता हूं जो अपनी पत्नी से किसी कारणवश दूर -दूर रहता था। लेकिन जब उसने 'सारा आकाश' पढ़ा तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। वे दोनों अब एक साथ रहते हैं। 'सारा आकाश' ने मेरे मित्र के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लाया। मेरा मित्र किन्हीं पारिवारिक या सामाजिक पूर्वाग्रहों और परंपराओं की आड़ में अपनी पत्नी से घृणा करता था और उससे दूर रहता था। लेकिन उपन्यास पढने के बाद जब उसके जीवन में परिवर्तन आया तो एक दिन उसने मुझे फोन किया और कहा कि उसने अपनी पत्नी को 'सारा आकाश' की प्रति भेंट की है। उसकी पत्नी ने मुझसे बातें की तो वो बहुत खुश थीं। तो ऐसा रहा है नई पीढ़ी पर राजेंद्र यादव के उपन्यासों और कहानियों का प्रभाव।
वे नए पत्रकारों और लेखकों से भी दोस्ताना व्यवहार करते थे। वे नई पीढ़ी के दोस्त थे। मैं यह मानता हूँ कि आने वाले समय में समाज को राजेन्द्र यादव के उपन्यासों ,कहानियों और लेखों की बहुत अधिक जरूरत होगी। युवा पीढ़ी को नई राह दिखाने का काम उनके लेखन के माध्यम से हुआ है, इसलिए उन्हें भुलाना आसान नहीं होगा।
बहुत अच्छा लिखा है गुलज़ार साब आपने।
ReplyDeleteYou Gulzar Saab is very well written. :)
Thank you...
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