...खो गए कितने जाने -अनजाने चेहरे
पिछले दिनों कीनिया के नैरोबी में हुए आतंकी हमले की भयावहता लोग अभी भूले नहीं होंगे .इस हमले में कई लोगों की मौत हो गयी थी . उस दौरान कीनिया में रह रहीं मेरी मित्र पिऊ राय भी इस आतंकी घटना से बहुत परेशान हुईं थी . उन्होंने इस हमले को करीब से देखा और बहुत दुखी हुईं .उन्होंने आतंकी कारवाई के दौरान मॉल से उठता धुआँ देखा ...चीख -पुकार सुनी ... पिऊ ने इस विषय पर एक कविता भी लिखी है .उनकी कविता बांग्ला में है.उन्होंने इसका अनुवाद भी मुझे हिंदी (रोमन )में भेजा . मैंने इसे देवनागरी में आप सबके लिए टाइप कर यहाँ रखा है ...
आतंक
धीरे -धीरे कम होता जाता है बचपन से सोया भय
लेकिन लौटता है बार -बार अधिक भयावह होकर
जब- तब आ जाते हैं हमलावर
और पटाखों की तरह चलती हैं गोलियां
यहाँ वहाँ पड़ी मांसपेशियाँ और लाश के टुकड़े
यह कैसा आतंक है ...
कहाँ जा कर जिउं
कहाँ जाकर लूं शान्ति की सांस
टेलीविजन पर आते -जाते दिख रहे हैं जाने पहचाने चेहरे
और उन पर है पसरे डर और आतंक की कहानी
इंसान की तरह ही दिखाई देते हैं
ये हमलावर
लेकिन हृदयहीन पाषाण हैं ये
आतंकित करके ये निभा रहे हैं न जाने कौन सा धर्म और कर्म
क्या जाने
मैंने तो देखा केवल
रोते बिलखते बच्चे
और उनके संग भयभीत स्त्री -पुरुष
हे विधाता ,कैसे बुझेगी इनकी यह रक्त की प्यास
सच कहूँ सबसे अधिक कष्ट होता है
इस आतंक के साए में रहने पर
खो गए कितने जाने -अनजाने चेहरे
टूटती रही माँ के विलाप से रात की निस्तब्धता
और न जाने कितने बच्चे भटकते हुए ढूँढते रहे अपनी माँ के चेहरे
कई शिशु इस दुनिया में आने से पहले ही
इसकी सुन्दरता देखे बिना चले गए न जाने कहाँ
अब दूर हो यह आतंक
ताकि रह सकूँ इस दुनिया में निर्भय होकर
- पिऊ राय
( कीनिया ,नैरोबी )
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पिऊ राय |
धीरे -धीरे कम होता जाता है बचपन से सोया भय
लेकिन लौटता है बार -बार अधिक भयावह होकर
जब- तब आ जाते हैं हमलावर
और पटाखों की तरह चलती हैं गोलियां
यहाँ वहाँ पड़ी मांसपेशियाँ और लाश के टुकड़े
यह कैसा आतंक है ...
कहाँ जा कर जिउं
कहाँ जाकर लूं शान्ति की सांस
टेलीविजन पर आते -जाते दिख रहे हैं जाने पहचाने चेहरे
और उन पर है पसरे डर और आतंक की कहानी
इंसान की तरह ही दिखाई देते हैं
ये हमलावर
लेकिन हृदयहीन पाषाण हैं ये
आतंकित करके ये निभा रहे हैं न जाने कौन सा धर्म और कर्म
क्या जाने
मैंने तो देखा केवल
रोते बिलखते बच्चे
और उनके संग भयभीत स्त्री -पुरुष
हे विधाता ,कैसे बुझेगी इनकी यह रक्त की प्यास
सच कहूँ सबसे अधिक कष्ट होता है
इस आतंक के साए में रहने पर
खो गए कितने जाने -अनजाने चेहरे
टूटती रही माँ के विलाप से रात की निस्तब्धता
और न जाने कितने बच्चे भटकते हुए ढूँढते रहे अपनी माँ के चेहरे
कई शिशु इस दुनिया में आने से पहले ही
इसकी सुन्दरता देखे बिना चले गए न जाने कहाँ
अब दूर हो यह आतंक
ताकि रह सकूँ इस दुनिया में निर्भय होकर
- पिऊ राय
( कीनिया ,नैरोबी )
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