...जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो

मलयज ने अपनी डायरी में लिखा था कि कविता का विचार आता है और  उसे गद्य का भाव काट देता है . मलयज के इस कथन का प्रभाव मेरे काव्य लेखन में भी आप महसूस कर सकते हैं . बहुत कुछ विस्तार से कहने की तमन्ना मुझे पद्य से गद्य की और खींचती है . मैं  कभी -कभी कविता को किसी कहानी या आलेख का पहला पड़ाव समझ लेता हूँ ,क्योंकि मुझे लगता है कि इस 'मोड़ ' से आगे भी बढ़ा जा सकता है ...लेकिन इन सबके बावजूद मैं यह भी महसूस करता हूँ कि मेरे  गद्य लेखन में कविता अधिक भरी हुई है  और मूल रूप में छुपी बैठी है ....या यह भी हो सकता है कि मैं इन स्थितियों को ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ . स्त्री जीवन के संघर्ष और अंतर्द्वंद्व को लेकर कविता लिखना मेरे लिए सबसे कठिन मगर प्रिय विषय रहा है .इस बार दो कवितायें प्रस्तुत हैं ..आलोचना और सुझाव का इंतज़ार है .....
                                                            -  गुलज़ार हुसैन
 
...जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो

 
बूढ़े बरगदों ,पीपलों की घनी छाया से बहुत दूर
उस जामुन के पेड़ की शाखाएं काटता है कुल्हाड़ी से कोई
सुनसान सांझ में सबसे छुप कर
करता है प्रहार बार -बार
गिरती घायल पत्तियों ,टहनियों और अधपके फलों से उठती है कराह
जिसे दूर दूर तक कोई नहीं सुनता
सिवाय लपकते -फुदकते चमगादड़ों के
जिसकी बोली कोई नहीं समझता

कुल्हाड़ी बरसती है डालियों पर निर्मम
यहाँ ,वहां ,जहां ,तहां
कटकर बिखरते हैं टुकड़े डालियों के
नीचे तने के पास मखमली घास पर
जहां से कभी कभार रसभरे फल चुनती हैं
नदी किनारे झोपड़पट्टी की पत्ता बीनने वाली लड़कियाँ

उदास हो जायेंगी लड़कियाँ,जब आयंगी झूमती हुईं
और देखेंगीं कटे तने और बिखरी जड़ों के रेशे

सुनो, कुल्हाड़ी बरसाने वाले
क्या तुम्हें याद नहीं कि बचपन में तुम भी अपने दोस्तों संग
इन्हीं डालियों पर झूला झूलते थे
तोड़ लेते थे रसभरे फलों के गुच्छे

अब सब कुछ भूल कर
काटने लगे मेरे अंग -प्रत्यंग
खट...खट...खट
जैसे मेरी देह मेरी अपनी न हो

अब इन्हीं डालियों को डालोगे चूल्हे में
या ढाल दोगे पीढ़े और खटिये के पाए में
और आराम से आँखे मूँद कर लेटोगे नशे में

लेकिन इस तरह छीन लोगे अपनी बेटियों की आँखों के सपने
जो उन्होंने एक बेहतर दुनिया के लिए देखे थे
मेरी छाया में खेलते हुए लुकाछिपी
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Photo by Gulzar Hussain

लेकिन वह अभिनेत्री नहीं है

कुर्ला स्टेशन पर
लोकल ट्रेन के डिब्बे में अपनी बेटी का हाथ पकड़े
धड़धड़ाती घुस आई औरत
अचानक जोर- जोर से गाने लगती है

यह  किसी ने सोचा नहीं था क्षण भर पहले
कि सुनना पड़ेगा बेसुरा गाना
औरत गा रही है ...परदेशी ...परदेशी जाना नहीं ...
और उसकी नाबालिग बेटी हथेली पसारे
भटक रही है एक सीट से दूसरी सीट

गाती हुई औरत बार -बार देख लेती है
अपनी बेटी की हथेली पर
जब कोई यात्री उसकी बेटी को दूर हटाते हुए
फेर लेता है उपेक्षा से नजरें
तब गाती हुई औरत की आवाज
ट्रेन की तेज रफ़्तार में कहीं खो जाती है
वह भूल जाती  है लय कई बार
लेकिन जब भी उसकी बेटी कि हथेली पर
गिरता है कोई सिक्का
वह ऊँची आवाज़ में गाने लगती है

गाती हुई औरत बार बार भूल जाती  है गाने के बोल
लेकिन वह जोड़ देती है कई शब्द अपने मन से
वह किसी भी हालत में टूटने नहीं देती है
गीत की पंक्तियों की कड़ी
गीत में जुड़े नए अपरिचित शब्द
और टूटते सुर में पसरी पीड़ा
उसका अपना सृजन है

इस समय गीत को रचने और गाने वाली वह स्वयं है
लेकिन वह अभिनेत्री नहीं है 
                                 - गुलज़ार हुसैन

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