कहां से आए चमन में आग लगाने वाले

                                                              - गुलज़ार हुसैन

 

 म्मू -कश्मीर की हरी-भरी वादियां पिछले कई वर्षों से सुलग रहीं हैं। यहां खिले हुए फूल बार -बार गोली-बारूद से मुर्झाते हैं। आग की लपटों से झुलसी कलियां चटकने से पहले दम तोड़ देती हैं, लेकिन आग  की तपिश जैसे ही ठंडी होती है, ये कलियां फिर खिल उठती हैं। फिर अपने सुगंध से लोगों को अपनी तरफ खींचतीं हैं। जम्मू के किश्तवाड़ जिले और उसके आसपास की वादियों में एक बार फिर किसी कोने से आग की लपटें उठीं हैं। सांप्रदायिकता की ये लपटें फूलों-कलियों को समय से पहले मुर्झा रहीं हैं। यहां की घाटियों में बहती नदियां उदास हैं। सेब और खट्टे अनार के जंगलों से बहती हवाएं किसी डरी हुई लड़की की तरह कांपती -थरथरातीं हैं। ध्यान से सुनिएगा, तो यहां के हर कोने से आवाज आती महसूस होती हैं। ये कहतीं हैं कि इस चमन में अब आग मत लगाइए ...प्रकृति के सबसे अनमोल उपहार को इस घुटन से बाहर निकालिए।
पिछले दिनों किश्तवाड़ जिले और आसपास के इलाकों में फैले सांप्रदायिक तनाव के माहौल ने फिर से यह साबित किया है कि इस सबसे पुराने और गंदे रोग को बार -बार कुरेदने वाले भी हमारे साथ इसी समाज में ही मौजूद हैं। सांप्रदायिकता का रोग अगर बहुत पुराना और अब नहीं चलने वाला है तो आखिर बार -बार यह इस तरह क्यों प्रकट हो जाता है। कई और अन्य भीषण समस्याओं की तरह सांप्रदायिकता भी अचानक और स्वतःप्रकट नहीं हो जाता है। इसके फैलने और दंगे में परिणत होने के पीछे एक गहरा षड्यंत्र होता है। विभिन्ना फिरकापरस्त गुटों,धर्मांध टोलियों और सांप्रदायिक पार्टियों के लिए यह अमूर्त एजेंडा होता है। सांप्रदायिकता फैलाने के लिए किसी और बहाने से ये कट्टरपंथी गुट या पार्टी सामने आती है और चुपके से आग लगा देती है। लोगों का कहना है कि कोई भी धर्म एक दूसरे से नफरत करना नहीं सिखाता है,फिर क्यों एक दूसरे धर्म के प्रति इतनी नफरत सड़कों पर पसरी दिखाई देती है?क्या एक -दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति इतनी नफरत किसी की तरफ से अपने मजहब के मूल सिद्धांतों को ही खारिज करना नहीं है? दंगे मजहबवादियों और धर्मवादियों के ही हथियार रहे हैं। कोई नास्तिक कभी धर्म के नाम पर दुकानें नहीं लूटता या किसी को नहंी जलाता है। लेकिन यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिर एक धार्मिक व्यक्ति कब -कैसे धर्मांध हमलावर में बदल जाता है? निश्चित  रूप से यहां सबसे पहले संदेह की उंगली उसी पर उठेगी जो किसी इंसान की हर अभिव्यक्ति या कर्म पर कब्जा कर अपनी सत्ता स्थापित करता है। राजनीतिक पार्टियां और मजहबी संस्थान सबसे पहले सवालों के घेरे में आते हैं,क्योंकि ये लोगों की बड़ी संख्या को अपनी बातों से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। देश में हुए अब तक के बड़े सांप्रदायिक दंगों और नरसंहारों पर नजर डालिए,तो आप पाएंगे कि इन सबके पीछे राजनीतिक संगठनों,सरकारों और कुछ धार्मिक संस्थानों का बड़ा हाथ रहा है। नई पीढ़ी इन सभी संगठनों को शक के निगाह से जरूर देखेगी,क्योंकि इनका मूल कार्य लोगों को गोलबंद कर वोट देने के लिए प्रेरित करना रहा है। वहीं कई मजहबी संगठनों और गुटों की ओर से समय -समय पर जारी फतवों  और हंगामाखेज इशारों से क्या आप परिचित नहीं हैं?  तो कुल मिलाकर कई राजनीतिक पार्टियों और कई मजहबी संगठनों का मूल उद्देश्य अमूर्त रूप से यही होता है कि कैसे लोगों की भावनाओं को भड़का कर उसका दोहन किया जाए।
कृष्णचंदर की कहानियों वाला हरा-भरा जम्मू -कश्मीर तो सचमुच दुनिया का सबसे सुंदर स्थान लगता है। लेकिन इसी सुंदर स्थान पर कई तरह की समस्याओं के नाले भी बह रहे हैं। फूलों की खूशबू से उत्साहित कर देने वाली यह जगह सबसे अधिक बंदूक और बारूद की गंध से भी भरी है। यहां की सियासी पार्टियों के राजनीतिक उद्देश्य भी बड़े जटिल हैं। लोगों का मानना है कि यहां पर बहते मीठे पानी के झरने से कभी भी खून के फव्वारे निकल आते हैं।
किश्तवाड़ की तपिश ठंडी तो हो रही है, लेकिन यह सब यहां की धरती पर एक घाव तो छोड़ ही रही है। यह सब उसी सांप्रदायिकता की अगली कड़ी के रूप में एक दूसरे से जुड़ती जा रही है और मानवीय इतिहास में शर्मिंदगी के पृष्ठ दर पृष्ठ शामिल करती जा रही है। इस बारे में नई पीढ़ी क्या सोचेगी ,यह भी कभी सोचा है आपने ?आनेवाली पीढ़ियां शर्म से धरती पर थूकेंगी कि कभी यहां हमारे पूर्वज धर्म-मजहब के नाम पर एक दूसरे का खून बहाते थे। इस दुनिया में जितने भी अपराध हैं, उन सबमें सबसे अधिक क्रूरतम हिंसा सांप्रदायिकता ही है। यह कैसा आधुनिक युग है जहां गुफा में रहने वाले युग की तरह की भी समझदारी नहीं है।
आप ही कहिए कि ये सांप्रदायिक उन्माद के जख्म भला कैसी दुनिया रचेंगे? पाकिस्तान के कई इलाकों में अल्पसंख्यक सिखों,हिंदुओं पर हुए जुल्म,बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचार ,भारत में अल्पसंख्यक विरोधी गुजरात नरसंहार,वर्ष ८४ के सिख विरोधी दंगे,नेली नरसंहार के अलावा कई जगहों पर बार-बार उभरने वाले सांप्रदायिक तनाव क्या हमारे इतिहास के सबसे अमानवीय अध्याय नहीं हैं? धर्म -मजहब के नाम पर हुए इन नरसंहारों से हमने आखिर क्या सीखा?
सांप्रदायिकता के तनाव से गुजरते जम्मू-कश्मीर को देखकर सचमुच भय लगता है। कैसे कोई कल तक के दोस्त रहे सौरभ की दुकान जला सकता है? कैसे कोई कल तक एक साथ स्कूल जाने वाले करीम पर पत्थर फेंक सकता है? यह सारे धार्मिकता और जातीयता के बंधन हम पर थोपे गए हैं। ये सब इंसानों के लिए हैं ,इंसान इनके लिए नहीं हैं।  कोई इंसान दिन भर में चार बार मजहब बदल कर फिर अपने मजहब में वापस आ सकता है। यह सफर जब इतना आसान है तो यह भी समझिए कि इस रास्ते में ...इस चमन में कौन आग लगाना चाह रहा है? चमन में आग लगाने वालों से कहिए कहीं और जाएं,यहां तो फूल खिले हैं।  

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' हमारा महानगर '  में प्रकाशित कॉलम 'प्रतिध्वनि' को यहाँ भी देख सकते हैं -


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