गरीबों के संघर्ष पर भारी राजनीतिक जादूगरी

                                                                                                            -   गुलज़ार हुसैन



पिछले दिनों गरीबों के भोजन और रहन-सहन को लेकर राजनीतिक गलियारों में जो मजाक उड़ाने का दौर चला था उसका लक्ष्य -सूत्र आप कहां पर देख पा रहे हैं? कोई जिम्मेदार नेता एक प्लेट खाने के दाम को लेकर हास्यास्पद टिप्पणियां करता है तो उसके निहितार्थ क्या हो सकते हैं। इस विषय के उद्देश्यों को भी गहराई से समझना होगा। आप देखिए कि गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले लोगों के लिए जो सरकारी कल्याणकारी योजनाएं लागू हुईं हैं और जो होने वाली हैं उसकी स्थिति क्या है। सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी के माध्यम से गरीब बच्चों और महिलाओं को क्या सुविधाएं मुहैया कराई जा रहीं हैं? इसके दो पहलूओं पर ध्यान दें,पहला तो ये योजनाएं ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हैं और दूसरा कि इन योजनाओं में में जबर्दस्त लापरवाही और भ्रष्टाचार है। इसका बड़ा उदाहरण हाल ही में बिहार के एक सरकारी स्कूल में मिड-डे मिल खाने से हुई छात्रों की मौत है


देश की छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर रणनीतियां बनाने में लगी हैं। लेकिन यह भी सच है कि अधिकांश पार्टियों का ध्यान केवल स्वयं को अधिक ताकतवर बनाने के उपाय खोजने में लगा है। यह समय राजनीतिक पार्टियों के लिए करो या मरो जैसी स्थिति ले आया है। जो पार्टी सत्ता में है वह वहीं बने रहना चाहती है और जो पार्टी सत्ता में नहीं है वह किसी भी हालत में उसे पाना चाहती है। यही सटीक समय है जब देश की गरीब जनता अपने अधिकारों को लेकर सजग हो सकती है और आवाज बुलंद कर सकती है।
इस समय गरीब कई मोर्चे पर लड़ रहे हैं। वे कई तरह की समस्याओं से घिरे हैं और मूलभूत अधिकारों को लेकर सजग भी हैं। आदिवासी इलाकों में जल,जंगल और जमीन को लेकर संघर्ष जारी है। ग्रामीण और देहाती इलाकों में खेतीहर मजदूरों और कारीगरों को अपने स्तर पर रोज लड़ना पड़ रहा है। शहरी,कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में दलित और पसमांदा अपने अधिकारों को लेकर आवाज उठा रहे हैं। इन विभिन्न लड़ाइयों में एक समानता है,जो सत्ता को हिला देने का दम रखती है। वह समानता यह है कि यह समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों की लड़ाइयां हैं। ये निचले पायदान पर खड़े लोग कई खेमों और टुकड़ों में बंटकर अपनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं,इसलिए सत्ता की ताकत इन्हें आसनी से कुचल देने के घमंड से भरी है। यह भी सच है कि इन सारी लड़ाइयों को एक सूत्र में पिरोना आसान नहीं है, लेकिन क्या इन संघर्षों की एकजुटता का संदेश सत्ता के गलियारे तक नहीं पहुंच सकती है। अब ऐसा हो भी रहा है। इसलिए सियासी ताकतें आंख -कान खोले सभी संघर्षों पर नजरें गड़ाए हैं।
इस बहस में सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले दिनों गरीबों के भोजन और रहन-सहन को लेकर राजनीतिक गलियारों में जो मजाक उड़ाने का दौर चला था उसका लक्ष्य -सूत्र आप कहां पर देख पा रहे हैं? कोई जिम्मेदार नेता एक प्लेट खाने के दाम को लेकर हास्यास्पद टिप्पणियां करता है तो उसके निहितार्थ क्या हो सकते हैं। इस विषय के उद्देश्यों को भी गहराई से समझना होगा। आप देखिए कि गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले लोगों के लिए जो सरकारी कल्याणकारी योजनाएं लागू हुईं हैं और जो होने वाली हैं उसकी स्थिति क्या है। सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी के माध्यम से गरीब बच्चों और महिलाओं को क्या सुविधाएं मुहैया कराई जा रहीं हैं? इसके दो पहलूओं पर ध्यान दें,पहला तो ये योजनाएं ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हैं और दूसरा कि इन योजनाओं में में जबर्दस्त लापरवाही और भ्रष्टाचार है। इसका बड़ा उदाहरण हाल ही में बिहार के एक सरकारी स्कूल में मिड-डे मिल खाने से हुई छात्रों की मौत है। स्कूलों में मिलने वाली दवाएं,किताबें और अन्य सामग्री को लेकर भी जो हालात हैं उससे कौन नहीं वाकिफ है? अब अगर किसी गरीब वृद्ध को या जच्चा -बच्चा को बहुत कम सुविधाएं देने की बात है,तो कम से कम सही हालत में वह भी उसके हाथ में पहुंचे। एक तो सड़े हुए अनाज का बना खाना और दूसरा उसमें जहरीले पदार्थ का डर। बिहार के मिड-डे मिल वाली घटना के बाद बिहार ही नहीं कई अन्य राज्यों के छात्रों में इतना डर समा गया कि वे स्कूलों में दोपहर का भोजन या अन्य खाद्य पदार्थ लेने से डरने लगे। तो अब स्थिति जब इस तरह की है,तो भला कोई नेता पांच रुपए में भरपेट भोजन मिलने की बात करके कौन सी चौंकने वाली बात कहता है। वह तो अपना रास्ता बना रहा होता है कि अब इतने कम में जब पेट भरते ही हो तो मुट्ठी भर दोयम दर्जे के चावल से बनी खिचड़ी से भला कुपोषण क्यों नहीं मिट जाएगा। इस सत्य को जानने के लिए आप गरीबों को मिलने वाले पैसे या खाद्य सामग्री पर गौर कीजिए। यह कितना कम है और कैसा है? राशन के अनाज और तेल की कालाबाजारी की खबर तो अखबारों की सुर्खियां बनती ही रहती हैं। आप कभी यह सोचते हैं कि क्यों सबकी गिद्ध दृष्टि गरीबों के निवाले पर ही हैं। क्योंकि गरीबों-मजदूरों और खेतिहरों की लड़ाइयां अलग-अलग हैं। गरीबों के संघर्षों को राजनीतिक षडयंत्र के तहत तोड़ा जाता रहा है।
यदि फिलहाल गरीबों के लिए सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को लेकर ही फोकस करें तो इतना तो कह सकते हैं कि यह देशभर  के गरीबों के लिए ही है,तो भला इन मुद्दों पर एकजुटता क्यों नहीं दिखाई देती? क्या हम अब सत्ता पर काबिज होना चाह रही हर उस राजनीतिक पार्टी के सामने यह मुद्दा नहीं रख सकते कि गरीबों के लिए बनी सरकारी योजनाओं में लापरवाही बंद करने को पहला राजनीतिक एजेंडा बनाएं। क्या हमें बहुत मजबूती से यह कहना नहीं चाहिए कि देश के बच्चों में कुपोषण,गर्भवती महिलाओं की बीमारियों से मौत जैसी समस्याएं दूर होनी चाहिए ...खेतीहर मजदूरों के रोजगार और छात्रों को मिलने वाली सुविधाएं हर हालत में और बेहतर होनी चाहिए।
राजनीतिक पार्टियों तक यह संदेश तो जाना ही चाहिए कि गरीबों के लिए बनी कल्याणकारी योजनाओं की सुविधाओं का पूरा लाभ गरीबों को ही मिले वरना हम आपको वोट नहीं करेंगे। बिहार की ही बात करें तो वहां कई योजनाओं में जमकर घोटाले होने की खबरें बार-बार सामने आईं हैं। गरीबों के लिए घर बनाने और पंचायत स्तर पर अन्य सुविधाएं देने के नाम पर खूब भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं। लेकिन हमें तो यह भी देखना है कि जो मामले उजागर नहीं हुए उनकी स्थिति क्या है? गरीबों के लिए बने घरों और उनके लिए आवंटित अनाज को देखिए और सारे रहस्य आपके सामने खुल जाएंगे। जानवरों के भी नहीं रहने लायक कमरों को घर कहा जा रहा है। भेड़ -बकरियों के न खाने लायक अनाज को गरीब बच्चों को देकर पीठ थपथपवाई जा रही है। गांवों ,देहातों और कस्बों में तो जमकर लूट मची हुई है और कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं है। बिहार के गांवों में मुट्ठी भर जमाखोरों और भूस्वामियों के सारे हथकंडे राजनीति को आसानी से हाइजैक किए हुए हैं। वहां के कई इलाकों में राजनीति में होने का आसान अर्थ लगाया जाता है कि वह जरूर बाहुबली है। और दूसरी ओर स्वयं को गरीबों -दलितों का नेता बताने वाला शख्स इन्हीं लोगों से घिरा है। उन्हें यह सब नहीं दिखाई दे रहा है।
तो मेरा कहना है कि ऐसे समय में जब अगले वर्ष चुनाव होने हैं और राजनीतिक पार्टियों में घमासान मचा है,तब गरीबों को अपने प्राथमिक स्तर के अधिकारों को लेकर सतर्क हो जाना चाहिए। यह समस्याएं बीमारू प्रदेशों बिहार और उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं हैं,बल्कि गुजरात,महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में व्यापक रूप में फैली हैं। क्या आपने पिछले दिनों महाराष्ट्र में कुपोषण से बच्चों की होने वाली मौतों पर राजनीतिक विवाद की खबरें नहीं देखीं? क्या यह सब पेट भरने के लिए होने वाले संघर्षों पर भारी पड़ती राजनीतिक जादूगरी नहीं है? तो आइए, सतर्क हो जाएं और चुप न रहें।        

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